Dreams

Sunday, October 31, 2010

प्रसन्नता या संतोष Copyright ©


संतोष और प्रसन्नता

दो भिन्न भाव हैं

एक का दुसरे से न कोई मेल

न कोई लगाव है

संतुष्टि का एहसास कर्म पे निर्भर है

प्रसन्नता तो एक पड़ाव है

मानस, भाव के बिना निर्जीव है

संतोष के बिना, पशु

और प्रसन्नता के बिना

उसका जीवन, एक नासूर

एक घाव है



संतोष का स्रोत कर्मठता में है

पुरुष का पौरुष

उसके पुरुषार्थ से है

नारी का नारित्व

धैर्य और अंकुश पे है

संतुष्टि की धारा

बहती वहां जहा कर्म

का चोगा पहने मानवता



प्रसन्नता एक पड़ाव है

एक मनोस्थिति , एक अलगाव है

मोक्ष के मार्ग का एक

चुनाव है

प्रसन्नता के स्रोत भिन्ना हैं

मार्ग अनेक हैं

प्रसन्नता का परचम वो

लहराए

जो स्वयं से संतुष्ट हो जाए



एक बात दोनों में है सामन्य

स्वतंत्रता

दोनों भाव, स्वतंत्र

बना देते आत्मा को

बस चुनाव करना

हमारा कार्य

किस मार्ग की ओर बढ़ना

ये अपना निर्णय



आपका क्या चुनाव है

कर्म करने की उत्सुकता

या ख़ुशी का कोष

प्रसन्नता या संतोष

प्रसन्नता या संतोष

प्रसन्नता या संतोष

Thursday, October 28, 2010

धावा Copyright ©


लिखे जाने दो बारूद से इतिहास

लहू से सींचा जाये हरदम प्रयास

प्रत्यक्ष और अदृश्य दोनों

शत्रुओं का हो जिस दिन आभास

चुनौती दे दो और लगाओ ललकार

धधके अन्दर विश्वास का लावा

अब और नहीं थामो उसको

बोल दो धावा



परिस्थितियों का आवलोकन

करते सभी हैं

और कोसने में भी नहीं झिझकते

दुबक के बैठ जाते हैं

कभी रोते हैं, कभी सिसकते

नपुंसक आत्मा कहाँ ले जाओगे

ललकारना भी न होगा काफी

चुनौती दे दो स्वयं को पहले , क्यूँकी

नपुंसकता को तो ईश भी नहीं देगा माफ़ी



बोलो धावा परिस्थितियों पे

बोलो धावा तकदीर पे

घात करो विश्वास के धनुष से

और उम्मीद के तीर से

चोट कर दो सब पे जो तुम्हे

हैं ललकारते

बोल दो धावा उन सब पे

जिन्हें तुम्हारे अन्दर की

ज्वाला का अनुमान नहीं

और उनपे जिन्हें ऊँगली उठाने के सिवा

किसी और का ज्ञान नहीं

मनवो लोहा जिसमे हो ताप

ऐसे जैसे तेरे अन्दर का लावा

और बस, सांस भरो

बोल दो धावा

बोल दो धावा

बोल दो धावा

Monday, October 25, 2010

प्रश्न-उत्तर Copyright ©


प्रश्न....

क्यूँ, कैसे, कब, कहाँ

किस ओर और क्या जहाँ

उत्तर.....

सोच के सागर में डूबें हम

तो अनेक.....

प्रत्यक्ष पर कोई नहीं रहा देख

हर ओर उत्तर

हर ओर सुलझती गुत्थियां

हर ओर खुली खिड़कियाँ

हर बार

हर ओर

अनेक अनसुलझी गुत्थियां

हरदम प्रश्न की ऊँगली

और उत्तरों की मुठ्ठियाँ




मैं उत्तर की तलाश में

निकला था कभी

दृष्टि हरदम टिकी थी उसपे

हर क्यूँ, कैसे, कब की

छाप लगी थी जिसपे

परन्तु गलत था मैं

उत्तर हर दिशा में थे

विराजमान

उन उत्तरों की खोज में

भूत बिक चुका था

और अधर में लटका था

वर्त्तमान

इतने उत्तर तो मैंने मांगे न थे

जितने छोर मिले उतने तो

धागे भी न थे

मेरी सोच गलत थी

प्रश्न ढूंढना चाहिए था

वो प्रश्न जिस से

भूमंडल और ब्रह्माण्ड

में फैले उत्तरों की दिशा दिखती

और मेरे भूत , और वर्तमान

की जागीर ऐसे न बिकती

परन्तु ढूंढता रहा था

हर बार

हर ओर

अनेक अनसुलझी गुत्थियां

हरदम प्रश्न की ऊँगली

और उत्तरों की मुठ्ठियाँ




हम सब के जीवन में भी

उत्तर प्रत्यक्ष हैं

हरदम हम उनके

समक्ष है

हमें बस प्रश्न करना नहीं आता

हमें मार्ग इसीलिए नहीं मिलता

क्युंकी हम उत्तर की खोज में हैं रहते

और इसीलिए दिशाहीनता की लहर में हैं बहते

जीवन सार्थक बनाएं कैसे

प्रश्न चिन्ह ढूंढें पहले

उत्तर हर ओर हैं

नज़र घुमाएँ , सारी श्रृष्टि

उनसे सराबोर हैं

बस अपने जीवन का

ढूंढें जा प्रश्न

बन जा ब्रह्म, बुद्ध और कृष्ण

मत दोहरा वो गलती को मैं कर बैठा था

और

हर बार

हर ओर

अनेक अनसुलझी थी गुत्थियां

हरदम प्रश्न की ऊँगली थी

और उत्तरों की थी मुठ्ठियाँ

हरदम प्रश्न की ऊँगली थी

और उत्तरों की थी मुठ्ठियाँ

हरदम प्रश्न की ऊँगली थी

और उत्तरों की थी मुठ्ठियाँ


Tuesday, October 19, 2010

ब्रह्मकमल Copyright ©


एक बरस में एक बार

ही ब्रह्मकमल खिलता है

श्रृष्टि की अद्भुत रचना का

सार उस पल में कहता है


ऐसा सुसज्जित पारसमणि

हो जाता उस पल में

लाखों उमीदें

जगाता है


ऐसे अद्भुत अनुभव

ऐसी सुन्दरता देखि जिस दिन मैंने

सार समझा जीवन का

और ठंडक पड़ी मन में


दीर्घायु की कामना करते

उनको यह बतला दूँ

जीवन लम्बा चाहे हो न हो

बड़ा उसको बना दो


एक पल में ऐसे खिल जाओ

जैसे ब्रह्मकमल हो

अपनी छाप उस पल में जमा दो

कि वो पल अमर हो


बात पते की एक और मैं बतलाता हूँ

एक भेद का द्वार और खुलवाता हूँ

जिन देवों को हम पूजते हैं वो

हम नश्वारों से डरते हैं

क्यूँकी उनका जीवन अमर है होता

और नीरस सा जीवन व्यापन करते हैं

मानव जीवन का हर पल होता है मौलिक

जो कल हुआ था उस पल में

वो कभी और न करेगा जीवन आलौकिक


तो समझे हम कि अपने जीवन

के हर एक पल को ऐसे जी जाएँ हम

कि हर पल में ब्रह्मकमल सा खिलें और

उस पल का अमृत पी जाएँ हम


ब्रह्मा कि रची श्रृष्टि के

ऐसे अनमोल रत्नों का करें सृजन

खिलें चाहे एक जीवन में एक बार ही

पर ब्रह्मकमल सा खिले हम.

उस परब्रह्मा में मिलें हम

ब्रह्मकमल सा खिले हम


Monday, October 18, 2010

ध्वज Copyright ©


आगे बढ़ने की बात हरदम

करता रहता नितदिन

आज कदम बढ़ा दिया है

अब केवल मंजिल को आलिंगन



छोड़ पीछे अनगिनत हारें

छोड़ पीछे मरघट

पैर चले हैं एकाग्र

पैर चले हैं सरपट



सोचा बहुत है विचारा भी

कलम डुबोयी लहू में और

बहा है आंसुओं का दरिया भी

अब उस कीचड को छोड़ पीछे

दौड़ पड़ा हूँ

दिखता शिखर, पग स्थिर हैं

और निगाहें टिकी उसपर ही



जो छूट गया ,

जिसने छोड़े मेरा हाथ

मचा रहे हैं “शातिर” होने का शोर

उन्हें पता नहीं

काली घनी रात ढल गयी अब

हो गयी मेरी भोर



जो उम्मीद का झंडा मैं लहरा रहा था

उसको अब बदलना होगा

जीत का परचम हाथ में पकडे

अब पहना मैंने विजय का चोगा



आओ सब आओ पीछे

आओ समारोह मनायेंगे

मन जीत चुका हूँ

तन जीत चुका हूँ

यह गीत गायेंगे



पुलकित मन है हर्षित दिल

और आत्मा उन्नति से

ओतः प्रोत है

निगाहें तीखी

ह्रदय धधकता

प्रेरणा का स्रोत है



आओ जुड़ जाओ

जो जो “जीता” है

जिसने स्वयं से नज़रें मिला ली

जो विजय अमृत पीता है

मैं ध्वज लहराए खड़ा हूँ

उसके साथ जुड़ जाओ

मैं तुम्हारी

प्रतीक्षा कर रहा हूँ

मेरी जीत

तुम्हारी जीत

हम सब की जीत

का झंडा लहराने को

खड़ा हूँ।