Dreams

Tuesday, November 29, 2011

Come Burn with Me.!! Copyright ©


when will you understand
that the sun sets in my life when
you are not there to brighten it
when will you understand
that the night rejects me when
your facial moon refuses to shine
when will you feel the
burning desire within me which
makes everything into ashes
if its not kindled in your name
when will you fathom the deepness of my passion
that engulfs me, my being, drives me insane


black, ashes every where inside me
bleakness shrouds
the sunshine which brightens my soul
is behind these clouds
you ask me what do I possess
love for you or claiming you to make you mine
well , god's honest truth
there is a fine line
passion bellows in the heart
crawls into the deepest corners of me
and that passion is only for thee
like the Romeos of history, i have no desire
i love only like my own internal fire


masturbating souls, gratifying goals
fleeting desires, funeral pyres
power of the throne, fire flying drone
volcanic eruptions, voluptuous plans
magnanimous dreams, death's dance
frictional fury, doomsday jury
naked boldness, blunt truths
hurting candor , forbidden fruits
all feel pale, when in presence of my passion
my passion, for you my love..


but when will you understand the intensity
i must not wait for u to understand,
i must ask u to immerse , immerse in this
intoxication with me
dive into the blood vessels and streams
to drown in this intensity
intensity enough to live till eternity
more than the Juliets of history
so come, my love... and dive
let this volcano thrive
let this inferno of passion rule thrones
let our passions be palindromes
for you are me and and i am yours
only us can settle our scores...
the battling differences can melt in this fire
the unequally yoked can be yoked in this desire
you just have to close your eyes
and let yourself flow free in me
for thine is this life, and this life is thee
for thine is this life, and this life is thee!!
come burn with me
come burn with me!!

Monday, November 28, 2011

बारूद ! Copyright ©


सीने की धड़कन है या यह धमाकों का शोर है
मन के सन्नाटे में गूंजती यह कैसी भोर है
लपलपाती जीभों की लार, या फिर टूटती यह डोर है
बारूदी समां है यह, बारूद हर ओर है







मन की सुरंगों में झाँकूँ तो बारूद पाता हूँ
दिल की चिंगारी को पर मैं इस से दूर हटाता हूँ
दोनों मिल जाएँ तो , धमाका न हो जाए कहीं
मैं यह बारूद सीने में इस कदर दबाता हूँ


कब आया बारूद यह मन में , कब ऐसा उनमाद हुआ
कब मासूमियत मर गयी, कब अन्दर का इंसान, हैवान हुआ
पता भी नहीं चल पाया, कितना खुरदुरापन आया मन भीतर
कब बारूद भर गया , कब अन्दर यम दीप दान हुआ


इन्द्रधनुष के रंगों सा मन, बारूदी काला हुआ
बचपन की किलकारी , सीने का भाला हुआ
खंरोच दिया गया नटखट्पन, उधेड़ी गयी काया
सर्प रुपी ज़हरीला डंक ही है मैंने अब संभाला हुआ


डस न जाऊं किसी को, न कर जाऊं सामूहिक निषेध
ढहा न जाऊं प्रेम की इमारतें, न कर जाऊं किसी के सीने में छेद
मन में राम था मेरे, दशानन ने मन चीन लिया
बारूदी सुरंगों में भस्म न हो जाएँ मन के यह वेद


पर बारूद निकालना है , पुनः इस मृत मन को करना है जीवित
ह्रदय को चाहे होना पड़े छलनी
किसी को डसने से पहले, नीलकंठ सा करूँ विष स्वयं धारण
यह बारूदी सुरंगे अब चाहिए नहीं पलनी


उस दिन का मुझे है इंतज़ार
जिस दिन विस्फोटक सब कुछ हो जाए बेकार
मन में केवल हो प्रेम का असल और आस्था का सूद
बस निकल जाए मन से, यह बारूद
बस निकल जाए मन से, यह बारूद
बस निकल जाए मन से, यह बारूद

Tuesday, November 22, 2011

मैं रसीदें नहीं रखता ~ !! Copyright ©


खरीद फरोख्त के ज़मानो में
बिकती जागीरों, बहते मयखानों में
भूत की मदिरा से भरते आज के पयमानों में
मैं रसीदें नहीं रखता





पुरानी मशालों से खाख हुए महलों में
किसी कोने में पड़े जंग लगे गहनों में
फीकी हो चली किताबों के पन्नो में
मैं रसीदें नहीं रखता


रसीदें जो,
कल के बहे रक्त और पुराने बहि खातों का प्रमाण हैं
जो बीते कल के टूटे दिलों के चकना चूर निशाँ हैं
जो कालिख पुते इतिहास का असल और उसमे बहे सूद की मिसाल हैं
मैं रसीदें नहीं रखता


इन रसीदों को फ़ेंक देने में भलाई है
पुरानी चिताओं से आज की लौ जो सबने जलाई है
जो लगे अपनी, पर हो चली पराई है
उसे संजोने में कोई बुधिमानी नहीं
वह खून की नदियाँ हैं, निर्मल पानी नहीं


रसीदें जो जेबों में पड़ी हैं उन्हें फ़ेंक दो तुम
पुराने हिसाबों से नए सपने मत बुन
पुराने सितार से कैसे बनेगी नयी धुन
फ़ेंक दो रसीदें , नहीं इनमे कोई गुण


रसीद कटवाना.. तो केवल अब भविष्य की
नयी स्याही से , नए रहस्य की
नयी उमंगें हों , नया भविष्य, नयी लकीरें
फ़ेंक दो पहले यह पुरानी रसीदें
फ़ेंक दो पहले यह पुरानी रसीदें

Thursday, November 17, 2011

ए समंदर Copyright ©


इन बुलबुलों सा मेरा मुक़द्दर,
इस रेत सी मेरी प्यास
आज बुला ले ए समंदर
आज बुला ले अपने पास

आज भिगो दे मन को मेरे
आज भिगो दे मन की ये मेरी आस
खारे पानी में नेहला दे मुझे
नमक के हक का हो एहसास



लहरों को चीरने निकला था मैं
मगर कश्ती टूटने वाली है
अब न रेत के महल सुकून देते हैं
बस बवंडर देते थोडा विश्वास

आज समां जा मुझे , ले नीले आगोश में
आज तूफ़ान भी हैं कुछ खामोश से
आज हवायों में भी बारूद है
आज बादल भी न लगते ख़ास

ए , तूफानों से कश्ती निकालने वाले
तुझे मैं क्या दुबोऊंगा
तेरी जल समाधि का कैसे बोझ ढोऊंगा
तेरा मुक़द्दर मेरे जैसा नीला हो चला
तेरी प्यास मैं क्या भिगोऊंगा
मैं तो केवल खारा पानी हूँ
तू एक सोच है, तेरी नज़र है सूर्या का प्रकाश


तो ऐसे न आ मेरे पास
बुलबुलों को ना बना मुक़द्दर
रेत को रहने दे प्यासी
हिम्मत रख ज़रा सी
मैं समंदर, तुझसे आज एक लेता हूँ वादा
जीवन न रख अपना सादा
लहरों से जूझ
गुत्थियों को बूझ
मेरे नीलेपन की ओढ़ चादर
इस नमक का कर थोडा आदर
निकाल कश्ती एक बार फिर
निकल तूफानों से लड़ने
मैं अथाह सागर , तुझे प्रणाम करता हूँ
तेरी हिम्मत के आगे सर रखता हूँ
निकल फिरसे कुछ कर गुजरने
कई समंदर हैं तुझे अभी भरने
कई समंदर हैं तुझे अभी भरने
कई समंदर हैं तुझे अभी भरने

Monday, November 14, 2011

जान लेना~~~ !!! Copyright (c)


तेरी हिम्मत का चर्चा जब गैर की महफ़िल में हो
जान लेना की दुनिया तेरे कदमो में है
तेरी लौ से रौशन हो जब हर दिया
जान लेना की तू रौशनी ही है
तेरे बोल जब गुनगुना उठे दुश्मन
जान लेना की वोह शागिर्दी में है
तेरी साँसों से तूफ़ान इधर उधर होने लगे जब
जान लेना तेरी साँसों में बदलाव की ताक़त सी है

तेरी मिलकियत में जब औरों को पनाह मिले
तो जान लेना क़ि तू ऊंची बादशाहत में है
तेरी जागीर से जब दुनिया नहाए
तो जान लेना ज़िंदगी देना तेरी फितरत में है
कर दे जो तेरे नाम पे कोई और जान निसार
जान लेना यह कुर्बानी तेरी रग रग में है
डर लग्न बंद हो जब जहाँ को , जब तू बोलने लगे
जान फूंकना , मान लेना, तब तेरी तबियत में है


क़त्ल हो चली है कईयों की नीयत , तुझसे जो टकराए हैं
जान लेना, हारना तुझसे , उन सबकी फितरत में है
घाव देता है जहाँ तो देने दे ए बादशाह
घाव लेके मरहम लगाना तेरी ही बादशाहत में है
जब नाम तेरा औरों के लबों पे माला के जैसा बन पड़े
मान लेना तेरे लहू के हर कतरे की, दुनिया ज़रुरत में है
जिस ओर तू चले, उस ओर भीड़ चले तेरे पीछे
मान लेना सब का सर, तब तेरे ही सजदे में है
तेरी हिम्मत का चर्चा जब गैर की महफ़िल में हो
जान लेना क़ि दुनिया तेरे कदमो में है
तेरी हिम्मत का चर्चा जब गैर की महफ़िल में हो
जान लेना क़ि दुनिया तेरे कदमो में है

Thursday, November 10, 2011

ठप्पा ! Copyright ©


मापदंड, तराज़ू, कटघड़े
सब कर देते हैं एक बार तो खड़े
किसी की सुई से नापे जाते
किसी के कांटे पे होते निर्भर
मुक़द्दमा चला जाती दुनिया
नैतिकता होती नाप तोल कर
ठप्पा लगा देते दुनिया वाले
चरित्र और नीयत पर
कोई चरण छूके चले जाता
कोई लगाता दाग, कोई धब्बा
और लग जाता हम तुम पे
किसी और के मापदंड का ठप्पा


किसी की कचेहरी, किसी का दरबार
किसी और की लटकी तेरे ऊपर तलवार
किसी और का न्याय, किसी और के नियम
कोई और बन जाता तेरी सरकार
तराज़ू में तुल तुल तू कब तक लटका रहेगा
कब तक दरबारों में भटकता रहेगा
हर कोई अपना नज़रिया लेके पैदा होता
कब तक तू इनकी सूली चढ़ेगा
अपना न्यायाधीश खुद बन
खुद कर नैतिकता और नीयत का फैसला
हो जा खुद ही कचेहरी, खुद ही मुकद्दमा
झुके सर केवल उसके आगे तेरा रब्बा
न लगाने दे किसी और को
तेरे ऊपर उनका ठप्पा


कभी धर्म ने लाठी मारी तुझपे
कभी समाज ने किया प्रहार
कभी परिवार ने डांटा तुझको
कभी दिया सबने सिंघासन से तुझे उतार
और तू घबराया, ग्लानि भरली किसी और के कहने से
किसी और का नज़रिया मान कर तूने कीमत चुकाई
अपने आंसू की धरा बहने से
समय बदला और तुझपे लगे ठप्पे का रंग उतर गया
फिर सबने कमज़ोर मानुष को कटघड़े में फिर खड़ा किया
रोज़ सुनवाई, रोज़ कचेहरी , रोज़ तराजू से तोलम तोल
तेरी परछाई भी गिरवी हो गयी
पिया जो तूने इन सबका विषैला घोल


अरे उठ खड़ा हो, और देख अपने भीतर
जिस कमज़ोरी की वजह से तुझे इन्होने अपना निशाना बनाया था
उस कमजोरी को बहार फ़ेंक और
उठा तलवार , जिस जिस ने तुजेह ललकारा था
विशवास तेरा बोलेगा और आत्मा तेरी खिल उठेगी
जब तेरे गांडीव पे तेरे 'स्व' की प्रत्यंचा चढ़ेगी
तब मुक़द्दमा ख़ारिज होके आएगा तेरे पास
तेरे कर्म, तेरी सजा, बस तेरा है होगा फिर कटघड़ा
तू सलामी देगा, और तू ही लगाएगा बस अपना ठप्पा
तू सलामी देगा, और तू ही लगाएगा बस अपना ठप्पा!

Tuesday, November 8, 2011

थूक,थूक मत चाट ! Copyright ©














फल पाने के चक्कर में
स्वाभिमान के घोड़े पे सवार
लगाम थमा देते हैं हम काम को
चाहे स्वाभिमान का घोड़ा डगमगाए
चाहे हम फल पाने के लिए नीलाम हों
अश्वा को दौड़ा दौड़ा थका देते हैं हम इतना
क़ि स्वाभिमान का घायल घोडा सह नहीं सकता जितना
फिर उसकी आहुति देके , उतारते एक दिन , उसे मृत्यु के घाट
चाहे उसकी भक्ती को खो दें हम
अपना नारा बस....थूक थूक के चाट


जब तिरिस्कार कर देते किसी लत, किसी कालिख सनी आदत को
ताकि उसकी आधीनता रहित ज़िंदगी, ही अपनी ताक़त हो
तो फिर क्यूँ अपनी कायरता का हल हम अपने जीवन में जोतें फिर
अपनी इन्द्रियों को वश में क्यूँ न करते, जिससे अपना उद्धार हो
अपने स्वाभिमान की गठरी चंद सिक्को या कुर्सी को क्यूँ देते बेच
जब उस स्वाभिमान की शय्या, स्वाध्याय का बिछौना हो सकता है सेज
पर फिर भी क्यूँ कर देते अपनी आत्मा का सौदा, समझी नहीं यह बात
अपना तो नारा हरदम हो जाता....बस थूक थूक के चाट


अरे ज़िल्लत सहने का शौक है इतना तो मानुष जीवन क्यूँ स्वीकारा
आत्मा मार के क्यूँ तुमने परमात्मा को पुकारा
अन्याय के आगे सीना चौड़ा करने में जो स्वाद था
तुमने अपने पीठ दिखाके, क्यूँ स्वाभिमान को जग के कोठे पे उतारा
नेता, अभिनेता, प्रतिबिम्ब हैं हम तुम की कमज़ोरी का
रीड की हड्डी हुए बिना, बिना बात की सीना ज़ोरी का
रेंगते सांप बन चुके सब लोग, छाती तानना कहाँ गया
बाज़ार में नीलम करके हमने, ज़मीर को बाजारू बना दिया
फिर रोते हैं तुम और मैं...क्यूँ नहीं देता इश्वर हमारा साथ
कैसा देगा वो भी जब हम रहे ...थूक थूक के चाट


थूक- चाट दरबारी मत कर न बे पेंदे का लोटा मत बन
जिधर स्वार्थ को मालिश मिलती उस ओर न जा, न छोटा बन
स्वाभिमान रहेगा तेरे भीतर तो वो सोना बनके चमकेगा
तेरे सिद्धांतों के कंधे पे ही कल का समाज संभलेगा
तू देखेगा एक इश्वर रुपी मानुष को दर्पण में हर दिन
मुस्कुरा पड़ेगी तेरी काया, आसमान देने देगा तारे चुन
मत कर अपनी आत्मा पे प्रहार मत कर उसपे ऐसा आघात
पीठ सीधी कर, सीना चौड़ा.....थूक थूक मत चाट
पीठ सीधी कर, सीना चौड़ा ....थूक थूक मत चाट
पीठ सीधी कर, सीना चौड़ा.... थूक थूक मत चाट

Monday, November 7, 2011

लौ ! Copyright ©


एक रात मोमबत्ती को देख देख
ऐसे ही मन में ख्याल आया
कैसे रौशन हो चली थी
काली, रात की घनघोर काया
परछाइयां बन रही थी
और था काला साया
पर जैसे ही चिंगारी भड़की
और दीप जलाया
एक विचार मन में अनायास ही आया
जो रौशन कर रही लौ थी
वो धधकती हुई उम्मीद का प्रमाण थी
बस छूटने वाले तीर की कमान थी
फिर उस बत्ती से मैंने दूजे का मूह सुलगाया
उसे भी उम्मीद का स्वाद चखाया
उस अनुभूति से एक और एहसास हुआ
दूजो को बांटने से बुझता नहीं दिया
बल्कि रौशन हो उठती है कायनात
एक की रौशनी से दूजा भी जिया
ज्ञान की लौ बांटने से है बढ़ती
फिर वो आग बनके हर कोने में है धधकती
दूजे की ज्योत जलाने से केवल बढ़ती है शक्ती
एक हो तो नमन, अनेक हो तो भक्ती
तो जब लौ नहीं शर्माती किसी दूजे को रौशन करने में
दूजी बाती में उष्ण गर्मी भरने में
तो मैं क्यूँ शरमाऊँ
क्यूँ अपने ज्ञान का दीपक
अपने मन में ही बस जलाऊँ
क्यूँ न औरों की ज्योत जलाऊँ
और इस अन्धकार को क्यूँ न दूर भगाऊँ
मेरी लौ से दूजी जले तो हम, दो हो जायेंगे
और धीरे धीरे करते सौ हो जायेंगे
फिर जब यह रौशनी सूरज का रूप लेगी
तम की गहरी चादर, थोड़ी तो हटेगी
तो अपनी लौ को जलाओ पहले
और दूजो में बांटो
और ज्ञान, हौसले और प्रेम की रौशनी
पूरे जग में बांटों
चिंगारी मैं देता हूँ
तुम बस स्वीकार करो
उस लौ से तुम भी सारे जग का उद्धार करो
फिर "मैं" से "हम दोनों",
"हम दोनों" से "हम सब" हो जायेगे
फिर "हम" भी.. प्रचंड , पवित्र, अग्नि कहलायेंगे
फिर" हम" भी.. प्रचंड , पवित्र, अग्नि कहलायेंगे
एक लौ से पूरा संसार जगमगायेंगे

Friday, November 4, 2011

क्या आटा..... क्या रेत.... Copyright ©


दाने छोटे छोटे , पर कितने भिन्न भिन्न
महल बनाये कोई, सियासतें चलाये कोई
भाई ,भाई को दाने दाने के लिए मार गिराए
इन दानो की वजह से न जाने कितनी लाशें सोयी
इतिहास बने हैं इन दोनों के दानो से
कालिख निकली है वर्तमान की खानों से
भविष्य बना है इन दानो से
आटा और रेत ही खरीदे - बेचे, इंसानो को इंसानो से


चक्की में पिस पिस के गेंहूँ किस्मत कईयों की बना जाता है
और बड़े से बड़ा परबत, घिस घिस रेत हो जाता है
इस आटे के पीछे भैया कितने ही नीलाम हुए
रेत के महल बना बना कई मृत्यु की शय्या के मेहमान हुए
आटे के लिए गिरी सियासत, इतिहास ने छाननी से चंद दानो को छाना
रेत के महल बने भूत में जो, उन्हें वर्त्तमान ने खँडहर माना
क्या अंतर फिर इनमे , क्या है इनका सार
एक काया का निर्माण करे , दूजा ख़त्म हुआ गया थार


इन दानों को देखो ज़रा तुम गौर से
न जाने गुज़रे हैं यह कैसे कैसे दौर से
इन दोनों की खातिर कितनो ने बलिदान दिया
गोली खायी , ज़िल्लत झेली, खून का घूँट पिया
कहते हैं कण कण में भगवान् हैं
लगता तो ऐसा है अब, दाने दाने में शैतान है
जो लालच, घ्रिना, द्वेष मानुष में जगाता है
भई को भई से लडवा के, भाभी को दाव पे लगाता है
एक दाने को खाके दूजा जाना ही जब होना है
उसके लिए क्यूँ अपना ज़मीर खोना है
आटा और रेत के लिए, लगती बोली लगते दाम
मानव अपना ज़मीर बेचके हो जाता नीलाम
और फिर कहता जग यह है
दाने दाने पे लिखा है खाने वाले का नाम


इन दानों के पीछे अपनी आत्मा न नीलम करो
इन शैतानी दानों पे न अपने जीवन की शाम करो
यह दाने तो तुमको खरीदने की ताक़त रखते हैं
इनके पीछे न ईश के दिए जीवन को बदनाम करो
बहुत भेंटें हैं दी गयी , उस मौला के हाथों तुमको
क्या नंगा, क्या भूखा , क्या राजा क्या सेठ
अपनाओ और जो मिला है, अपनाओ और कोई भेंट
इसके पीछे भागो मत
क्या है आटा , क्या है यह रेत

Thursday, November 3, 2011

रब ने पिला दी थोड़ी ! Copyright ©




जब घबराया मन था और सारे कोने थे चित्त
जब प्रेम की अनुभूति न था, थे हम मात्र निमित्त
जब पिता का प्यार दूर था, न थी कानो में माँ की लोरी
पुकारा उसको और उस रब ने मुझे पिला दी थोड़ी



कौतुहल का तूफ़ान छाती में जब तब उबला था
जब मन ने हीरे के बदले केवल कोयला उगला था
जब विश्वास न था, और हमने उम्मीद खो दी
पुकारा उसको और उस रब ने मुझे पिला दी थोड़ी


मित्रों का साथ जब छूटा, छूटा बचपन का साथ
जब जेबों में छेद थे, और धेला भर भी न था हाथ
जब ढूंढ रहा था लक्ष्य को और ,सारी किस्मत रो दी
पुकारा उसको और उस रब ने मुझे पिला दी थोड़ी


पीते पीता, मन मदमस्त हाथी सा डोला
रगों में बारूद मिला और हाथों में हथगोला
चिगारी बनी मेरी सोच और कलम बन बैठी गोली
इस सबके पीछे वो ही थी जो उसने पिलाई थी थोड़ी


फिर एक दिन सोचा मैंने क्या पिलाया होगा
कैसे नशे में चूर करके , क्या समझाया होगा
फिर निकली आवाज़ भीतर से , जन्मायी तुझमे उसने छोटी सी विश्वास की घोड़ी
लगाम थामई तुझको और, पिला दी तुझको थोड़ी


बस यह घुट्टी, यह मदिरा, यह मादकता बनी रहे
मेरे विचारों की नदिया में पूरी दुनिया बही रहे
हरदम शब्दों का रसास्वादन हो , बने कवि ,पाठक की जोड़ी
आओ मैं खोलूं यह मयखाना, तुम भी पीलो थोड़ी!

Wednesday, November 2, 2011

चश्मदीद गवाह Copyright ©


सुनी सुनायी बातों पे
सच्चाई की बरसात पे
इतिहास के छातों पे
यकीन कहाँ मुझे
मान कर चलता नहीं मैं
जान कर चलता रहा
किस्से कहानी के 'सच'
को मानू कैसे,
भूत की उंगली नहीं पकड़ता मैं
बहने देता हूँ आज के सत्य को
मैं धारा प्रवाह
मैं लतीफों के पन्नो में डूबना नहीं चाहता
मैं तो होना चाहता हूँ हर पल का
चश्मदीद गवाह


इतिहास रचा गया और स्वर्ण अक्षरों में नाम अंकित हुआ
माना तुमने, पोथियों में 'सच' लिखा हुआ
जांचा नहीं और 'महापुरुष', 'महान' जैसे शब्दों का
निर्माण किया
और परखे बिना , न कोई प्रमाण लिया
कैसे?
कैसे हर बात जो घुट्टी बन के तुम्हे पिलाई गयी
उसे तुमने स्वीकार किया
किसी पोथी को सच बतलाने का कैसे तुमने अधिकार दिया
मैं कैसे चल पाऊं ऐसे अँधेरी , रहस्यमयी राह
मैं तो होना चाहता, इतिहास के हर पल का
चश्मदीद गवाह


इतिहास जीतने वाले रचते हैं,
जो आधा सच सुनना चाहते हैं , वो ही इसे महान कहते हैं
जो पूरा सच सुनने के हिम्मत रखते हैं
उन्हें उद्दंड, क्रांतिकारी लोग कह पड़ते हैं
पर आधे सच की कोमलता से तो पूरे सच का
कड़वाहट ही मुझे रास आती है
कड़वाहट में कम से कम झूट की
तो नहीं बास आती है
फैसला चुनाव से होना चाहिए
भ्रमित करने वाले डर से नहीं
इसीलिए मुझसे नहीं सुननी किसी की वाह वाह
चाहे भयावह ही सच हो इतिहास का
मुझे तो होना है हर पल का चश्मदीद गवाह



शुत्रुमुर्ग की भांति जो मिटटी में सर धंसे हैं तेरे मेरे
उसे निकालें हम और विवेक का प्रयोग करे
हर कही बात सच नहीं होती,
हर पोथी, पुस्तक, इतिहास के घ्रिनास्पद सच के
पाप नहीं धोती
मान मान के पीढ़ी पीढ़ी कठोर सच को नाकारने वालों
सत्य को बिना जांचे, इतिहास की गरिमा को स्वीकारने वालों
खोलो आँखे , रहो प्यासे, सत्य को परखने की रखो चाह
इतिहास ऐसे ही मान न लो, बनो उसके चश्मदीद गवाह

Tuesday, November 1, 2011

क्या है ~ Copyright ©

हवा के झोंकों के संग बहते पत्ते से पूछो, दिशाहीनता क्या है
नए प्रसफुठित अंकुर से पूछो, नवीनता क्या है
शब्दकोष में तो बहुत शब्द अंकित हैं, उनकी अनुभूति कहाँ
कीचड़ में खिले कमल से पूछो, शालीनता क्या है


जंजीरों, सलाखों में बंधे कैदी से पूछो, घुटन क्या है
बारूदी सुरंगों से गुज़रते सैनिकों से पूछो, घबराहट क्या है
नशे की लत में जकड़े मानुष से पूछो, आधीनता क्या है
गगन में उड़ते पंची से पूछो, स्वाधीनता क्या है

बुलबुलों का आकर लेते पानी से पूछो, अल्पायु क्या है
सूखे बंजर खेतों से पूछो, माँ सरयू क्या है
निरुप माटी को आकर देते कुम्हार से पूछो, मौलिकता क्या है
मद्धम चाल चलते, जीवन समेटते, कछुए से पूछो, दीर्घायु क्या है

तूफानों को चीर के निकली नय्या से पूछो, जीना क्या है
किसी की आँखों में डूबे प्रेमी से पूछो, पीना क्या है
बेटे की मुस्कान के लिए , लहू सा बहाते, पिता से पूछो, पसीना क्या है
उधड़े रिश्तों को मरहम लगाती माँ से पूछो, सीना क्या है

शब्द सब जानते हैं, रोज़ प्रयोग कर जाते हैं
जो दिखता है उसे ही मान जाते हैं
हर ओर कायनात, को परख के, जीवन के स्वाद को चख के
कवि जो समाज की कालिख की स्याही में कलम डुबोता है,
उस कवि से पूछो , मार्ग क्या है
उस कवि से पूछो, दिशा क्या है
उस से पूछो, "हम" क्या हैं!!