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Thursday, September 13, 2012

तुम तो वहाँ हो, तुम क्या समझोगे........नॉन रिलाइयबल इंडियन" Copyright©

पिछले दीनो, एक मित्र को फोन लगाया , और कुछ राजनैतिक गतिविधियों पे बातचीत चालू हुई, आधे घंटे चर्चा करने के उपरांत उन महाशय की एक टिप्पणी ने अकस्मात फोन काटने पे विवश कर दिया :

"तुम तो वहाँ हो, तुम क्या समझोगे... नॉन रिलाइयबल इंडियन "

"तुम तो वहाँ हो, तुम क्या समझोगे", यह वाक्य कई बार सुनने को मिलता है मुझे| हर बार जब ईंधन के दाम बढ़ते हैं या फिर करोड़ों के घोटाले के बाद प्रधान मंत्री कठपुतली कठपुतली खेलते हैं या सरकारी दामाद बने बैठे माननीय कसाब जी पाँच सितारा जेल मे रोटी तोड़ते हैं, और मैं कुछ सुझाव हूँ, तो यह ही वाक्य बोला जाता है | प्रवासी भारतीय भी भारतीय होता है महाशय! माँ को कष्ट होता है तो पुत्र ,चाहे जहाँ हो, उसे पीड़ा होती ही है| भौतिकवाद के इस मज़मे मे, जहाँ सब अपना उल्लू सीधा करने के अवसर ढूँढते हैं और अवसर ना मिले तो सरकार,आतंकवाद, भ्रष्टाचार और सामूहिक मतभेद को कोसते हैं, मैं भारत मे ना रहते हुए हिन्दी भाषा के प्रति प्रेम, भारत की ओर स्नेह और भारतीय लोगों के बीच में अपना काम कर रहा हूँ| मैं टिप्पणी करता हूँ, क्युंकि मैं भी देख रखा हूँ यह मजमा| आवाज़ उठा रहा हूँ, व्यक्तिगत विचारों की अभिव्यक्ति मेरा संवैधानिक अधिकार है, ठेस पहुचना नहीं| सभी की तरह, मेरी भी एक आवाज़ है जो कोसने से पहले मार्गदर्शन का कार्य करती है| सामाजिक , राजनैतिक, वैचारिक गतिविधियों पर व्यक्तिगत प्रतिक्रिया करने, और निवारण ढूँढने की इच्छा लिए, एक आवाज़|

कवि कौन है

अपनी कल्पनाओं की पतंग

को जो दूर गगन में

उड़ा दे

या समाज का प्रतिबिम्ब?

महकते फूलों के रंगों को

अपनी कलम से जो सजा दे

या फिर उस युग का दर्पण?

कलाकार या मुखौटा?

दर्शक या प्रश्न चिन्ह?

नए युग की ओर बढ़ते कदम का आघाज़

या फिर मूक हो गयी आत्मा की

आवाज़!


आवलोकन करने और

व्यक्त करने के बीच का सेतु

या फिर सोये हुए ज़मीर को जगाने

का धूमकेतु

इक आवाज़ जो हर प्रकार के मानव

को उसका चेहरा दिखा सके

और सुन्दरता या कालिक पुते चेहरे को

हर एक तक पंहुचा सके

प्रेम ग्रन्थ हो या दर्शन शास्त्र

की शैली

या फिर हसाते हसाते व्यक्त

कर दे वो जो है मैली

जिसे भय न हो पाठक का

न हो लज्जा तिरस्कार की

न हो ख्याति का लालच

न लालसा पुरूस्कार की

बस एक आवाज़ हो

जो भेद सके हर ह्रदय को

और पिरो दे एक सूत्र में

सारी भावनाएं, हार और विजय को।


आवाज़ को चाहे कोई दबाये

या फिर उसके कम्पन को कोई छुपाये

उस ओमकार की न छुप सकेगी ध्वनि

क्युंकि हर मानव में वो

थरथराता है

सोये हुए विवेक को वो ही जगाता है

और पत्भ्रष्ट हो गयी सभ्यता को

वो ही राह दिखता है

भंवर में फसे समाज की नय्या

वो ही पार लगाता है

वो ही पार लगाता है

वो ही पार लगाता है!

मैं एक भारतीय नागरिक हूँ, भारत में पला-बढ़ा, भारत की भूमि का उतना ही लाल हूँ जितने सब हैं, मेरे अमेरिका मे रहने, काम करने और माँ-पिताजी को पैसे भेजने को ~ भगोड़ा, अमेरिका के रंग मे रंगने, देश द्रोही करार देना सरासर अनुचित है|
भारतवर्ष की सभ्यता, उसकी जटिल संरचना का प्रतीक, प्रत्येक भारतीय है, देश-विदेश में इस सभ्यता को दर्शाता एक दीपक है| परंतु यदि उसके घर मे आग लगी हो तो सबसे पहले उस आग को बुझाने का कार्यभार भी उसका है| उसके तरीके पे ऐसी टिप्पणी करना अपने भाई को गाली देने समान है|

एक आधुनिक विचार यह भी है ,"बदलाव लाने के लिए आपको स्वयं बदलाव का हिस्सा होना पड़ता है,"एकदम सही, परंतु मैने एक दिन एक प्रयोग किया, एक पुस्तक को अपने चेहरे के निकट लाया और पढ़ने का प्रयास किया, नही पढ़ी गयी| कभी कभी सिस्टम के अंदर रहके आप उस सिस्टम के ज़ंग लगे पुरज़ो को नही देख पाते, रोग का निवारण करने का सबसे पहला कार्य है उसके मूल का पता लगाना, निवारण तभी सबसे अधिक लाभदायक होता है जब औषधि के लक्ष्य की पहचान हो| कई प्रवासी भारतीय उस मूल को बाहर से देख पाने का प्रयास कर रहे हैं.

इसी सिक्के का दूसरा पहलू है, कि अधिकतर प्रवासी भारतीय अपनी व्यक्तिगत परेशानी, सुनहरे सूरज की तलाश, या केवल अपना पेट, जो भारत मे नही भरा था, भरने, भारत से दूर अपना घरौंदा बसाते हैं| परंतु वो भी इन टिप्पणियों के पात्र नहीं | टिप्पणी उनपे करो जो अपने घर का सम्मान बचाने से पहले दूसरे के घर की लूटी आबरू पे उंगली उठाते हैं|

मुझे भारतीय होने पे गर्व है, परंतु मेरी माँ ने मुझे यह नही सिखाया कि मैं अपनी पड़ोसी को बुरा भला कहूँ. यदि मैं पड़ोसी के घर गया हूँ तो मैं अपनी माँ द्वारा दिए संस्कारों का पालन करूँगा, सम्मान दूँगा, प्रणाम करूँगा, तहज़ीब से खाना खाऊंगा, और इस तरह से अपने घर आने का न्योता दूँगा ना कि उनके घर जाके उनकी निंदा करूँगा, मेरी भारत माँ ने मुझे यह सीख नही दी है | मेरा घर मेरा है, और हरदम रहेगा, किसी के घर जाके उसी घर की निंदा करना, मेरे घर की इज़्ज़त नही बढ़ा रहा| अपने घर की परेशानी मैं बखूबी समझता हूँ, समय आने पे उसके निवारण का उपाय भी देता हूँ| तो रिलाइयबल या नॉन रिलाइयबल का ठप्पा, कृपया ना लगायें, अपना कार्य करें, तरकीब लगायें, औरों की उपलब्धि और अपनी जलन पर रिलयबिलिटी का चोगा ना पहनायें|

तो महोदय, मेरे प्रवासी भारतीय होने को आप, मेरी व्यक्तिगत इच्छा, मेरी भारत की तेज़ी से ना चल पाने की कमी या फिर विश्व देखने की लालसा कह सकते हैं, गद्दारी, देशद्रोह ,भारत की परेशानियों से दूर पलायन करता भगोड़ा नही!

हर प्रवासी भारतीय की ओर से ~

जय हिंद!