Dreams

Monday, December 15, 2014

मशालों में !! © copyright



 
 
ना तीरों में, ना तलवारों में
ना बरछी में , ना भालों में
कुछ अलग ही होता है
इन जलती हुई मशालों में


युद्धों से जीते गये हैं सिंघासन
आकशों,  धरती में और पातालों में
झुकते शीश, कटे देह 
लाल रक्त की धारा बही है, 
कई कई परनालों में
पर हृदय पर तो ध्वज लहराए हैं केवल 
जलती हुई मशालों नें



जहाँ खड़ग की धारों ने
भय से धरती धोई है
बारूदी विस्फोटों नें
निराशा हृदय में बोई है
भूखंडों पर विजय ध्वज
लहराया तो है कई सम्राट विशालों नें
पर आशा के बगीचे तो सीँचे हैं
बस जलती हुई मशालों ने



नरभक्षी गिद्ध छुपे हुए हैं
निर्मल बगुलों की ख़ालों में
निराशा के गड्ढे खुदे हुए हैं
स्वार्थ की कुदालो से
अंधकार की बेला को आओ
मिलकर हम तुम दूर करें
हथियार छोड़ के, अहंकार तोड़ दे
दूर करें इन जलती हुई मशालों से



ना तीरों में, ना तलवारों में
ना बरछी में , ना भालों में
आने वाले कल की आशा छुपी हुई है
इन जलती हुई मशालों में

Friday, December 12, 2014

पिता या पति का नाम (C) Copyright



हमारी बहिन ने जैसे ही
पासपोर्ट का आवेदन पत्र
उठाया
नाम, उम्र भरने के बाद
एक रिक्त स्थान पाया
ऊपर लिखा था
"पिता या पति का नाम"
हमारी बहिन का सर चक्राया
बोली
"यह कैसा सवाल है?
क्यूँ भारत का अब भी
ऐसा ही हाल है
इक्कीसवीं सदी में तो
तेज़ी से बढ़ रहे हैं हम
पर केवल पति और पिता से 
ही मेरी पहचान है?"

हम दूरभाष पे थे
दूसरी ओर
हमे तो उसका वीज़ा
लगवाने की थी बस होड़
हमने तो इस सवाल पे
कभी पहले ध्यान नहीं दिया था
हमने तो चुपचाप
पिताजी का नाम ही अंकित किया था
उसे क्यूँ इस पर आपत्ती है
पिताजी का और मेरा
सब कुछ
तो वैसे भी उसकी ही संपत्ति है
हमने तो कभी सवाल नहीं 
उठाया
कभी आवेदन पत्रों की बनावट
पर बवाल नहीं उठाया
भारत पुरुष प्रधान है
हर किसी पर या तो पिता की
छाप है या फिर
पति का ही नाम है

उसने हमारे
सन्नाटे को पढ़ा
फिर कुछ देर रुक के
अपना प्रश्न गढ़ा
"भाईजी, मैं क्या पिताजी से ही हूँ
माँ का कोई योगदान नहीं?
संस्कृति मे तो लिखा है
माँ से कोई महान नहीं
माँ पूजनीय माँ देवी है
भारत भी "माँ" रूपी ही महा देवी है
फिर क्यूँ केवल पुरुष अधिकार जमाते हैं
आवेदन पत्रों पर भी क्यूँ फिर
वो ही धौंस दिखाते हैं?
आपसे तो नहीं पूछते
पत्नी और माँ का नाम
मेरी पहचान को ही
फिर क्यूँ नोचते हैं?"

हम सन्नाटे में ही
रह गये
आवेदन पत्र की अंतिम तिथि
शीघ्र थी
पर बहिन की शंका
नुकीली थी, तीव्र थी
हमने बुद्धि का प्रयोग किया
"मनुस्मृति", की ओर संकेत दिया
"मनु, पुरुष था,
उसने नियम भी वैसे ही बनाए
पुरुष को परमेश्वर दिखाया
और नारी के हिस्से, बच्चे पैदा करना
और आधीनता ही आए"
हम अपनी बुद्धिमत्ता के
स्व-सिंहासन से उतार दिए गये
हमारे पुरुष प्रधानता के
सारे कपड़े उतार दिए गये
हमे समझ मे आया
कि स्थिति गंभीर है
युवा अधीर है
हमने सांत्वना के पुल बाँधे
संगठन के तीर साधे
और कहा
"बहिन, चिंता ना करें
हम ये मुद्दा अवश्य उठाएँगे
नयी सरकार के सामने 
प्रस्ताव लाएँगे
कुछ न कुछ तो होगा ही
नहीं तो हम पूरी व्यवस्था
पर उंगली उठाएँगे
माँ,बहिन, बहुँ, पत्नी
अपने आप में महान हैं
समानता ही इस राष्ट्र का
प्रथम अभियान है
मिटा देंगे हर स्थान जहाँ
हमसे तुम्हारी तथाकथित पहचान है
तुम बाकी सब अंकित कर दो
खाली छोड़ दो
जहाँ जहाँ पति या पिता का नाम है
जहाँ जहाँ पति या पिता का नाम है ||

Wednesday, September 10, 2014

निर्माण (C) Copyright



बूढ़ों को, जवानो को
नयी पीढ़ी की सुनहरी खदानो को
छोटे छोटे इन पँखो की मासूम उड़ानो को
प्रेरणा चाहिए

शैशव, यौवन, वृधावस्था की
भ्रांति, उबाल और नीरस्ता 
उन्माद, शौर्य और विवशता को
संवेदना चाहिए

मूक आत्माओं को,
शिथिल संकल्प को
धराशाही विवेक को
चेतना चाहिए

राष्ट्र को शक्ति चाहिए
धर्म को भक्ति चाहिए
राष्ट्र निर्माण के लिए भी
व्यक्ति चाहिए

यह सब देगा कौन?
प्रेरणा, संवेदना, चेतना, 
शक्ति, भक्ति, व्यक्ति?

कवि...

कवि पँखो में उड़ान भरेगा
शैशव में अरमान भरेगा
यौवन में तूफान भरेगा
अनुभवी वृद्ध में पुनः चिंगारी
पुनः उसमे प्राण भरेगा
आधी आत्मा की अभिपूर्ति होगी
अलसाए संकल्प मे स्फूर्ति होगी
उसकी स्याही के छींटो से
विवके उठ खड़ा होगा 
राष्ट्र हमारा फिर बड़ा होगा
धर्म के स्तंभ फिर पक्के होंगे
विश्व के सारे गिद्ध 
फिर हक्के बक्के होंगे
रक्त बहाए बिना
स्याही इतिहास रच आएगी
जब कवि की कल्पना
नया संसार बनाएगी

Saturday, July 12, 2014

गुब्बारे का ब्रह्मांड (c) Copyright



जीवन का वेग 
मुझे निचोड़ रहा है
मेरे हाथ काँप रहे हैं
स्पर्धा में पीछे आने का भय
मुझे कचोट रहा है
मैं तो विफलता का ध्वज भी
अट्टहास के साथ लहराता था
पर अब वो ध्वज  भी 
मुझे फंदे जैसा घोट रहा है

एकांत में जा के मैने
कुछ बातें बचपन की याद की
जब पहली बार पिताजी 
गुब्बारा लाए थे
और कहा था
"साँस भरो बेटा...लंबी साँस
इस क्रिया में हर क्षण का करो आभास
और फूँक दो प्राण इस गुब्बारे में
मिला दो मिठास, खारे में"

अपने छोटे फेफड़ों में मैने
स्वास भरा
पूरा, लंबा..
और सिकोड दिए प्राण
फिर गुबारे के छोर को मूह से लगा
छोड़ दिए पूरे वेग से स्वास के बाण
जैसे जैसे हवा गयी, गुब्बारा फूला
ब्रह्मांड रूपी, चमकदार
मेरी पहली रचना का बना जैसे आधार
फूलते साथ ही पर पिताजी ने
किया एक सुई से प्रहार
फुस्स...
आशा
हर ओर निराशा
आंसूओं के खारेपन ने 
चहु ओर दुख तराशा
मैं बिलकते हुए पूछा
"आपने क्यूँ मेरा गुब्बारा फोड़ा
क्यूँ मेरे प्रयास को तोड़ा
क्यूँ मेरा गुब्बारा ना बनने दिया
क्यूँ सब उम्मीद को मरोड़ा?"

पिताजी ने स्नेह से गले लगाया
फिर रहस्य खोला
"बेटे, साँस तुम्हारी छाती में है
उसे गुब्बारे में क्यूँ समेटना?
ब्रह्मांड चहु ओर है, उसे 
परिधि में क्यूँ लपेटना?
गुब्बारे में हवा
एक दिन बासी हो जाएगी
फिर कोई सुई चुभो देगा
ज़िंदगी, उदासी हो जाएगी
एकत्र करते करते 
अपना स्वास ना व्यर्थ कर
इसे गुबारे में भर कर
ब्रह्मांड का अर्थ, न अनर्थ कर
स्वास ब्रह्मांड का हिस्सा है
उसे एकत्र नहीं किया जाता
जो सब ओर है उसे गुबारे में भर कर तो
सर्वत्र नहीं किया जाता"
मुझे तो तब गुबारे की पड़ी थी
पिताजी की निर्दयता 
और मेरे आँसुओं की दीवार
हमारे बीच खड़ी थी.

अब समझा हूँ....
एकत्र करते करते
गुबारे फुलाते फुलाते
साँस फूल गयी है
जो स्वास उड़ान के काम आना था
वो गुब्बारों में भरा है
जीवन स्थिर खड़ा है
भौतिक चीज़ों का गुब्बारा
समाज का गुब्बारा
परिवार का गुब्बारा
ब्रह्माड़ मेरा गुब्बारों में भरा है
कई बार यह गुब्बारे 
सुई से चुभो भी दिए हैं
मैं फिर उन्हे भर देता हूँ
जीवन जीना का "कर" देता हूँ

अब सारे गुब्बारे मैं स्वॅम फोड़ दूँगा
मुझे स्वतंत्र होना है
साँस भरनी है और उड़ना है
पीछे नहीं मुड़ना है
पंख फैलाना है, जिसमे शान है
स्वतंत्र जीवन ही महान है
जहाँ
ना गुब्बारे हैं, ना बंदी ब्रह्माड़ है

Tuesday, June 24, 2014

प्रज्ज्वलित Copyright(C)




प्रज्ज्वलित है लौ अभी भीतर

लहु भी अभी सुर्ख लाल है

भाले चुभते भी है मगर

छलनी ना अभी भीतर की ढाल है



सीना लहु से गीला है और

पीड़ा से तू बहाल है

लड़खड़ा रहे हैं पैर मगर

वीरों सी तेरी चाल है



देख काँपती रणभूमि के

चेहरे पे कितने सवाल हैं

तू उठके ध्वज लहराएगा या

या वीरगति को प्राप्त तेरी छाल है



अश्व तेरा हिनहीना रहा देख

घिसी नही उसकी भी नाल है

उठ सेनानी, कवच संभाल

लहरानी विजयी मशाल है



घुटनो के बल रेंगेगा तो

भुला देगा इतिहास तुझे

खड़ा उठ खडग संभाल

देगा जग शाबाश तुझे



प्यासी जीभ है

प्यासी रूह

प्यासी तेरी खाल है

थोड़ा सा बस , थोड़ा और

आगे प्यास बुझाता देवताल है



संताने तेरी युग युग तक

तेरे गीत गुनगुनाएंगी

माला के हर मोती में

तेरी पूजा समा जाएगी

डुबो दे उंगली लहु में अपनी

तिलक लगा माथे पर नहीं तो

माथा नही वो तो केवल

लटका मृत कपाल है

उठ सेनानी, कवच संभाल

लहरानी विजयी मशाल है

Thursday, May 22, 2014

रसधारा © Copyright



काव्य रस का सरोवर सूख रहा भीतर
नई , ईश , रसधारा प्रदान करो
मृत में प्राण, मूक मे वाणी , भर पाऊं शब्दो से अपनें
एसी अमृतधारा वरदान करो

नेत्रहीन के नैन बने, चिंतित माँ के चैन बने
शब्दों के गुच्छे मेरे, चमकीले तारों की रैन बनें
राष्ट्र को झकझोड़ सकें, घाराओं को मोड़ सकें
मेरे शब्दों में कुछ एेसे प्रभु तुम प्राण भरो

भूमंडल में स्पनदन हो, आत्माओं का मंथन हो
मेरी कविता के ऊच्चारण से सूर्योदय का आभिनंदन हो
कुरूप भी पढे़ तो लगे उने कि काया उसकी कंचन हो
हाथों मे मेरे ऐसे प्रभु  तुम स्वर्ण उगलती खान धरो

काव्य रस का सरोवर सूख रहा भीतर
नई , ईश , रसधारा प्रदान करो
मृत में प्राण , मूक मे वाणी , भर पाऊं शब्दो से अपनें
एसी अमृतधारा वरदान करो

Thursday, May 8, 2014

"Chhungi Champions"




Being able to afford  and even owning a few gadgets of modern entertainment, I have convinced myself that my current momentum of life will lead me to an end of comfort, happiness and contentment. I recognize that I have been lucky in having a fine "edoocation", ample opportunity to fulfill my dreams and being able to seize opportunities to make a smooth path to a refined life which has bolstered my confidence that the defined meaning of a successful life is near.
Like everyday, I dress, eat a controlled calorific valued amount of modern food, and drive to work. After having managed to pass the first four hours making moolah for BO's government, I go out for a stroll, a habit recently formed to detoxify myself from the acrid mental byproducts of working. I take my time, and being loyal to the memories of the past, I try and look for signs that would remind me of home. I find none. This part of the world and this time of my life is way too far from even remotely alluding to anything recognizable. I give up, consoling myself that the days of yore are meant to be so and future is what I must pursue.
Having acquired a pseudo disposition and an assumed positive countenance from my walk and wandering thoughts, I resume work. Apparently, my long walk has cost the company a handsome change and my immediate intervention and expertise is summoned. I have, in the past, taken extreme forbidden pleasure in similar situations where my so called brilliant mind has been used as an example to belittle other less fortunate minds. I take no pleasure today. I am tied to the past memories, and the space between my conscious and sub-conscious states of mind is filled with this urge to look for signs. I, once again, outshine the others and this moment gets displayed in the corporate pedestal as "exemplary". I take advantage of this moment and ask for a premature retirement for the day, claiming fatigue. Before leaving I tend to a few tasks with my team and guide them in the direction they need to be.
A less brilliant mind asks a question and waits for his turn. He is playing with a rubber-band, trying to solve a technical problem. Being a higher mind, I would have ignored his lowly query and would have moved to attend to something higher, but my mind cannot let go of the rubber-band. This hierarchical attendance based on corporate egotistical culture is not natural for me, but I play along to maintain the peace of the corporate hell. As he winds one end of the band on his thumb and the other on his forefinger and plucks it with his other hand, the vibration resonates with something in the crevice that I mention above. I move toward him, his eyes show a twinkle- he feels his query has been approved, he smiles. Before he opens his mouth and begins to feel that his query has finally reached higher standards, I cut him short,

  'Do we have a bunch of those somewhere', pointing to the rubber band.

 He fails to understand and covers it up by mouthing a "ummm'.

I give him a clue , ' the rubber-band'. He jumps up from his seat and says, ' Yes, in the stationery cabinet, let me show you,' he feels useful. I let him feel so.
When we arrive and when he shows me the packet that contains a month's supply, I grant him a smile,' Thanks, let's talk about your question tomorrow". His eyes light up by the grant but he senses my need to be left alone and turns around and utters,' Thanks, let me know if you need something' and leaves. I don't understand what that rubber band has done, but I am a child again. I take a handful and leave the rest. I rush back to my cabin and close the door. I cut one rubber band, hold one end and slide the other hundred. I carefully tie both the ends and smile. I still remember how to make it. I haven't lost my legerdemain.
A 'Chhungi' , a 'Thepli'.
I smile as I get transported to the beautiful past. My friends and I would play this vernacular sport and compete. School recesses were the perfect time. Bets were placed, champions were made in those tournaments and were lauded and looked up to by all. I was one of the champions - proud and happy. As recesses ended, we would hide these "bunches of joy' in our pockets as this was not a 'regular' sport and was condemned by our teachers and parents. We would still carry it around and play whenever opportunity presented itself.
A loud knock on my cabin door brings me back. I hide my 'bunch of joy' and open my door only to reveal one half of my face.'I thought you had left', the disturber remarks. 'In a minute', I snap back and shut the door again. I pull 'it' out and look at it for a few moments. The burden of existential humdrum is lifted for those moments.I smile again, I am happy again, I feel like a champion again. I feel like a carefree child again. I feel ...again.
I quickly put it back into my pocket just like before and leave with a smile. They look at me and wonder. I look at them and forgive.
I had meant to leave before traffic began, I'm late, but I don't care. I am happy. I sit in traffic for another half hour smiling and ecstatic about my treasure. I reach home , drop my bag, and go out into the backyard and play. After a few practice sessions, I master the sport again.
I am Champion again.


Calling all Champions of the yesteryears :
My score : 322, with 1 'back' at every 50,  'double backs' at every 100.
Get your "bunch of joy' and come let's live again, let's play again.

~ Chhungi Champion !

Friday, March 21, 2014

दंगा ही दंगा है, दंगा दर दंगा है (c) Copyright



दंगा ही दंगा है..दंगा बस दंगा है
चुनावी सरगर्मी से सराबोर धरा में
चोरों के हाथों में देखो तिरंगा है
बगल में छुरी है, होंटो पे गंगा है
दंगा ही दंगा है, दंगा दर दंगा है

दंगा ही दंगा है, दंगा बस दंगा है
कौन पराया यहाँ, कौन यहाँ संगा है
अंतर क्या है देश कौन चलाएगा
अरबों के खर्चे में देश तो नंगा है
दंगा ही दंगा है, दंगा दर दंगा है

दंगा ही दंगा है, दंगा बस दंगा है
क्षेत्र चाहे गुजरात, अमेठी, चाहे दरभंगा है
जो खड़ा हो रहा कहीं से भी
वो नेता कहाँ, बस मत बटोरता भिखमंगा है
दंगा ही दंगा है , दंगा दर दंगा है

दंगा बस ये नहीं, जनता भी दंगा है
लौ जली नहीं कि झट से पतंगा है
एक बोतल और बिरयानी का खेल बस है
क्यूँकि गुरु रविदास कह गये हैं सबसे
मन चंगा है तो कठौती में गंगा है
दंगा ही दंगा है , दंगा दर दंगा है

Wednesday, March 12, 2014

एक नया आसमाँ चाहिए अब, एक नई उड़ान के लिए © Copyright



घोंसले पिंजरे बनते जा रहे
और अब इन पंखों में वो जान कहाँ
कि ये बादल छूँ आयें

कभी फलक पर इंद्रधनुष सजते थे
अब गिद्ध मंडराते हैं
हवायें ज़हरीली हैं
बादल तेज़ाब बरसाते हैं
एक नया आसमाँ चाहिए अब
नई उड़ान के लिए

जिनके साथ उड़ान भरी थी कभी
वो हमराही भी उड़ चले हैं
नये दाने के लिए
हम उड़ना भी चाहें तो
जाल बिछाए तयार हैं बादल
शिकार के लिए
एक नया आसमाँ चाहिए अब,
एक नई उड़ान के लिए

नीले आकाश, पीले हो चले
पीले पत्ते मौत से नीले हो चले
एक इंद्रधनुष था जो जीवट लाता था
उसके रंग भी अब फीके हो चले
एक नया आसमाँ चाहिए अब
एक नई उड़ान के लिए

क्या मैं फिर से उड़ सॅकुंगा ?
या मेरे पंख झड़ जाएँगे
या मेरे पंखों के फैलाव
उड़ान की ताक़त बटोर पायेंगे?
या आसमाँ की ओर ताकते ताकते
प्राण धीमे से निकल जाएँगे?
या
एक नया आसमाँ चाहिए अब
एक नई उड़ान के लिए ?


हाँ
एक नया आसमान चाहिए अब
एक नई उड़ान के लिए

Monday, February 10, 2014

सुनहरे चेहरे (c) Copyright




पुकार हर कोई सुनता है
मगर यह दुनिया, बहरों को ही पूजती है
साहिल का सुकून हर किसी को पसंद है
मगर यह दुनिया, लहरों को ही पूजती है

आधी रात की चाँदनी की ठंडक हर किसी को पसंद है
मगर यह दुनिया, दोपहरो को ही पूजती है
संध्या की ठंडी पूर्वाई किसे नहीं पसंद
मगर यह दुनिया, सहरों को  ही पूजती है

श्याम रंग तो कान्हा का भी है
मगर यह दुनिया, सुनहरों को ही पूजती है
अपनों का साथ सबके पास है
मगर यह दुनिया गैरों को ही पूजती है

मैं भी मासूम हूँ, प्रेम का प्यासा हूँ
मगर दिखाता कठोर चेहरा ही हूँ
मैने भी कई मुखौटे धारण किए हैं
क्यूँकि यह दुनिया, चेहरों को ही पूजती है

Tuesday, January 21, 2014

जो ...© Copyright

 

जो कहते हैं कि गरजने वाले बरसते नहीं
शायद उन्होने, हम जैसे मेघ नहीं देखे
जो पूर्वाई के झोंकों में झूला झूलते हैं
शायद उन्होने हम जैसे तूफ़ानों के वेग नहीं देखे

जो लूली टाँगों की घिसट को मदमस्त चाल बतायें
शायद उन्होने गज के शाही टेक नहीं देखे
जो राष्ट्र को राज्यों में बाँटने में लगे हुए हैं
शायद उन्होने चार्करवर्ती सम्राटों के राज्याभिषेक नहीं देखे

जो चमकीली भंगिमाओं में प्रसन्न रहते
शायद उन्होने सौ सूर्यों के तेज नहीं देखे
जो गोरे काले, रंग भेद से रंगते सबको
शायद उन्होने, इंद्रधनुषी दैविक रंग्रेज़ नहीं देखे

जो हरदम हर में , बुरा ही देखें
शायद उन्होने प्रकृति के छोटे छोटे संदेश नहीं देखे
जो हर दम अपनी मनवाने को आतुर हों
शायद उन्होने यमराज के आदेश नहीं देखे

जो कहते हैं कि गरजने वाले बरसते नहीं
शायद उन्होने, हम जैसे मेघ नहीं देखे
जो पूर्वाई के झोंकों में झूला झूलते हैं
शायद उन्होने हम जैसे तूफ़ानों के वेग नहीं देखे

Monday, January 20, 2014

निनाद © Copyright

 


सन्नाटे में भी
हल्का हल्का सा है निनाद
वेदों की वाणी
वीणा की ध्वनि
जीवन के रस का है स्वाद
हल्का हल्का सा है निनाद

मृत्यु के साए से उन्मुक्त
जीव की नाड़ी के स्पंदन
व्योम में फैला
प्राण का धन्यवाद
हल्का हल्का सा है निनाद

अनादि से पहले अंत के बाद
ओमकार का नैसर्गिक आलाप
उन्नत हुआ स्तर, ना पुण्य, ना पाप
पुराने की भस्म, नवीन की खाद
हल्का हल्का है निनाद

काल चक्र और योनि तोड़े
समय के पहिए को मरोड़े
शिव-शक्ति की भंगिमा से ऊपर
नटराज के तांडव से अनछुआ
"आशा" का है उन्माद
करता हल्का हल्का निनाद
हल्का हल्का सा है निनाद
हल्का हल्का सा है निनाद

Wednesday, January 15, 2014

भूमि पूजन © Copyright

 
 
नीव रखने से पूर्व
गृह प्रवेश से पहले
अनिवार्य है भूमि पूजन

तिमिरारी की लौ जैसी
पूजन की थाल सजी हो
नव्य नवेली दुल्हन सी
अंतर्मन की ज्योत धजी हो

जिस भूमि का पूजन हो
वो त्याग धर्म की धारा रहे
उसकी मिट्टी में बलिदान और कर्मठता
का लहू लबालब भरा रहे
मैने भी भूमियों में भूमि
मातृभूमि के पूजन हेतु
पूजा की थाल सजाई थी
हल्दी, रोली, चावल मॉली
भक्ति भर भर धज़ाई थी
क्यूँकि मुझे लगा था
मेरी मातृ भूमि तो वीरों
और वीरांगनाओं के बलिदान
के लहू में गंगा नहाई थी
ज्योत जलाई मैने और
हल्दी रोली में छिड़का गंगाजल
एक हाथ में घंटी थी मेरे
एक हाथ में था श्रिफल
पुष्प भी थे, आम की लकड़ी थी,थे पान के पत्ते भी
हाथ जुड़े थे, पैर मुड़े थे, झुके हुए थे मत्थे भी
शंख बजाया मैने और कपूर को मैने आग दी
तभी धरती बोली
"मत कर पूजा मेरी, ए श्रद्धालु
मेरे बेटों ने ही मेरा आँचल छीना है
बेच दिया है मुझको और
मेरे सीने पे ही गोली दाग दी"

"मा हूँ मैं, जननी हूँ, हैं संतान भारतवर्ष
मुझे छुड़ाने के लिया किया था वीरों ने संघर्ष
पर जिनके हाथों सौंपी है तुमने सत्ताएं
पानी मेरा खरा हो चला, विषैली मंडराती हैं अब हवायें
कुकर्मो के बोझ से मैं धसती जा रही
अमूल्य थी मैं, अब तो मेरी कीमत सस्ती हुए जा रही
ना रोली , ना चंदन, ना श्रिफल से ना है कुछ अब होने वाला
सत्य और कर्मठता का चाहिए मुझे लहू और पसीना खारा
राष्ट्र बेच दिया तुमने चलो मैने मान लिया
पर फिर कैसे तुमने भूमि पूजन का ठान लिया?

झुकी आँखों और हाथ जोड़ के
मैने यह क्षमा दान लिया
"मा मेरी , मैं प्रण लेता हूँ
अब ना ऐसा होने दूँगा
शीश कटा लूँगा पर
तुझे न अब बिकने दूँगा
ना दोषारोपण करूँगा
और नहीं कहूँगा
उसने किया, वो बोला, मेरा थोड़ी यह दाइत्व है
पर मेरी धरती मेरी माँ, तू ही मेरा अस्तित्व है"

हे भारतवर्ष के पुत्रो
स्वयं ही करना, स्वयं ही भरना
नहीं करेगा कोई और दूजन
बलिदान, त्याग और कर्मठता से ही अब
जियो तुम अपना जीवन
तब जाके कहीं थाल उठाओ
तब जाके करना
मातृभूमि पूजन
मातृभूमि पूजन
मातृभूमि पूजन