Dreams

Thursday, December 22, 2016

छुट्टियाँ आने वाली हैं (c) Copyright



छुट्टियाँ आने वाली हैं

काम से थोड़ा फ़ुर्सत है
पर मुझे अब मनुश्य बनने से छुट्टी चाहिए
थोड़ा खरगोश बनना है
थोड़ा चीता
या फल बन जाऊं
चाहे सेब
चाहे पपीता
मुझे ऐसी घुट्टी चाहिए
मनुष्य बनने से छुट्टी चाहिए

ना दायित्व के दायरे हों
ना इच्छाओं का जाल
ना सामाजिक अपेक्षाएं
ना मर्यादा का भाल
केवल रंग हो मुझमे
और सुगंध हो
हे प्रभु! ऐसा कुछ प्रबंध हो
भावनाओं और अपेक्षाओं से
ज़ख्मी चित्त पर 
ऐसी एक पट्टी चाहिए
मनुष्य बनने से छुट्टी चाहिए

बस धरती हो
नदी हो
बादल हों
आकाश हो
और अवकाश हो
ना कहीं से उदगम होने की इच्छा हो
ना किसी मंज़िल की तलाश हो
बस हवा बहे त्वचा पे शीतल
चारों ओर अपने
ऐसी खस की टट्टी चाहिए
मनुष्य बनने से छुट्टी चाहिए

और आपको?

Monday, November 14, 2016

कभी मुग़ल है कभी मोगली (c) अनुपम ध्यानी



कभी बादशाहों सा दिलदार होता
कभी जोगी सा है मदमस्त
कभी दानी हो जाए मन ये
कभी होता मौका परस्त
जो संस्कारों का चोगा पहने
डंके से बोलें हैं
वो या तो झूठे हैं
या अपने मन को ढंग से ना टटोले हैं
क्यूंकी मन तो एक ओर बहता नही 
होती इसकी फ़ितरत है हरदम दोगली
जो पहचाने इसको वो जानेगा
ये कभी मुग़ल है कभी मोगली

मन की करनी, 
कभी ना डरनी
कभी किसी की चुगली करनी
कभी दया का भाव समाना
कभी प्रेम मे लहू बहाना
कभी , कभी तो प्यार और नफ़रत को
एक पालने में ही सुलाना
कभी क्षमा की छतरी थामे
कभी भाले की नोक चुभाना
कभी करेले सी ज़ुबान को
गुड़ में घोल के ही दिखाना
जो मन के इस मदमस्त अश्व को
थाम लेगा
जिसने इसकी दौड़ रोक ली
वो पूरा कहलाएगा उस दिन
वो ही मुग़ल हो , वही मोगली


एक राह में  चलते चलते
मंज़िल तो मिल जाएगी
राह बदल और सोच बदल तो
हर राह महक जाएगी
कभी हो तिरछी, कभी हो सीधी
कभी हो मिर्ची, कभी हो मीठी
कभी कभी खटास मिलाके
ज़िंदगी मज़े से बीत जाएगी
मन तो अल्हड़ है
मन है चंचल
मन की नदी
कभी सब बहा ले  जाएगी
जिसने इसको वश मे करली
समझो उसने हर जीत भोग ली
मन तो मन है, मन का क्या है
कभी मुग़ल है, कभी मोगली
कभी मुग़ल है, कभी मोगली
कभी मुग़ल है, कभी मोगली

Thursday, June 9, 2016

पड़ती है !



नयी फसल जो रोपनी हो तो
पहले भूस पुरानी जलानी पड़ती है
ईर्ष्यालु की जलन भी पथिक
श्रम से अपने कमानी पड़ती है

धाराओं को मोड़ने की
चट्टानी ताक़त के लिए
जवानी अपनी लुटानी पड़ती है
पसीने को सम्मान मिलता ज़रूर
पर परिवर्तन के लिए
रक्त-धार तो बहानी पड़ती है

खड़ग की धार तेज़ हो
समय आने तक म्यान को ही
उसकी चमक बचानी पड़ती है
धैर्य ऐसी कड़वी औषधि है
समय आने तक हर विजयी को
चुप चाप चबानी पड़ती है
~© अनुपम ध्यानी


 

Tuesday, April 26, 2016

दिल से ही जीता जाता हर स्वयंवर (c) Copyright

 
 
 
दिमाग़ को चुनाव की अनुमति दी
दिल ने क्या बिगाड़ा ईश्वर
चुनौती का चयन करने वालों ने भी
दिल से ही जीता हर स्वयंवर

दिमाग़ को चुनने का ग़ुरूर है
दिल को बस बह जाने का फ़ितूर 
मय बनाने वाले ये नहीं समझे मगर
नशे के लिए तो दिल ही है मशहूर

ज़हन से मंज़िल बनती है
पर हौसले दिल दिया करते हैं
इश्क़ में दिमाग़ की नहीं चलती
वहाँ फ़ैसले दिल किया करते हैं

रणनीति सेनापति बनाते भले हैं
पर चुनौती शूरवीर दिया करते हैं
भूगोल राजा के हाथ लग जाते हैं
इतिहास स्वर्ण अक्षरों से अंकित, सेनानी किया करते हैं

समारोह बुद्धिजीवियों का माना लो अभी
सदियों तक तो मोहब्बतें हर याद रहेंगी
समाधियों के फूल मुरझा जाएँगे
मज़ारों की अगरबत्तियाँ ही याद रहेंगी

चुनाव, संदेह को जन्म देता 
दिल बहे है एक डगर
दिमाग़ बाँध बनाता नदी पर
दिल की धारा चट्टानें चीरे है मगर

दिमाग़ को चुनाव की अनुमति दी
दिल ने क्या बिगाड़ा ईश्वर
चुनौती का चयन करने वालों ने भी
दिल से ही जीता हर स्वयंवर

 
~©  अनुपम ध्यानी 

Monday, April 25, 2016

मैं अपना दिल किराए पर चढ़ाना चाहता हूँ (C) Copyright



मैं अपना दिल किराए पर चढ़ाना चाहता हूँ
किराए एकत्रित यादों से हुआ करेगा
यादें, जो तुम बनाओगे औरों के संग
मेरे दिल के उस कमरे में रख देना
जहाँ मेरी अपनी धूल चढ़ी यादों का किताब घर है
जब लौटाओ मेरे दिल को
तो याद रहे, हू-ब-हू वैसा ही लौटना जैसे दिया था
ना कोई कील का निशान, ना पुताई की परत
ना खिड़कियों के ही पल्ले खराब हों
ना दरवाज़ों की खूँटि खराब
बड़ी मेहनत से घर बनाया है
संभाल के रखिएगा जनाब

मेहमान आएँ तो शोर कम हो
आयें कुछ देर , बैठें फिर जाएं
कहीं मेरी यादों की कोठरी
के साँप, उन्हे डस ना जाएं

मैं अपना दिल किराए पर चढ़ाना चाहता हूँ
क्यूँकि, आजकल दिल होते कहाँ हैं लोगों के पास
जब हमने बनाया था दिल अपना घरौंदे सा
तब इतनी आबादी कहाँ थी
दिल होते थे सब के पास

दिल है, चाहे थोड़ा खंडहर सा
छत हो जाएगी तुम्हारी
यादें बटॉरोगे
और खर्च हमारा दिल होगा


Friday, April 22, 2016

लगे दिल किसी से भी ना (C) Copyright

 
 
दिल खुला हो सबके लिए
मगर लगे दिल किसी से भी ना
खुदा यह ही बस इक गुज़ारिश
यह बस मेरे दिल की इलतेजा

 
सब छूट जाते हैं
सफ़र में ज़िंदगी के
बस उम्मीद ही है जो
मिटे किसे से ना

 
बंधन बेड़ियाँ बने, इस से पहले
इश्क़ इबादत से बने सज़ा
अश्को के सैलबों से धुल जाए
चाँदनी मे हाथ पकड़ने का मज़ा
मेरे दिल, इस से पहले बना ले तू
शबनम के बूँदों सी अपनी अदा

 
तेरे टूटने की आवाज़
सदियों तक गूँजे
तुझे मज़ारों में
इस से पहले कोई पूजे
तो खुद-ब- खुद
दीवाने, हो जा फ़ना
खुदा यह ही बस इक गुज़ारिश
यह बस मेरे दिल की इलतेजा

 
दिल खुला हो सबके लिए
मगर लगे दिल किसी से भी ना
खुदा यह ही बस इक गुज़ारिश
यही बस मेरे दिल की इलतेजा


Monday, April 18, 2016

कोई बतलाए रे (C) Copyright

 
 
पुरुषार्थ की परिभाषा
नारित्व के दायरे
किसने बनाए रे?

इश्वर की मूरत
दानव की सूरत पे
मुखौटे किसने
चढ़ाए रे?

पाप की ज्वाला
धधके क्यूँ है
पुण्य का प्याला
हमेशा क्यूँ
छलकाए रे?

हर चीज़ को बाँटना क्यूँ है
कोई बतलाए रे?

सोच में तेरे
छेद है
इस बात का खुदा को भी खेद है
पर खुदा भी प्यारे
तूने ही बनाए रे.

सिद्धों में
गिद्धों में, अंतर
इच्छा भर का है
फिर सिद्धों को ही क्यूँ
प्रसिद्ध बनाए रे
ताकि हर ओर
लार टपकाते, माँस नोचते
गिद्ध मंडराएँ रे?

बुद्धि और करुणा में
शौर्य और अहिंसा में
किसे चुनें हम?
हरदम चुनाव को चुनौती ही
क्यूँ बनाए रे?

अंतर, भेद, चुनाव
के ही हरदम
क्यूँ भाले चलाए रे
मानव ही जब
सब बनाता
खुदा को ही
ढाल क्यूँ बनाए रे?

सब तो तूने राख किया है
फूँक दे सब जो
सामने तेरे आए रे
जब उत्तर ढूँढना ही नही है
फिर प्रश्न को भी
आग क्यूँ ना लगाए रे
मानव तू बड़ा चतुर है
सब को खेल बनाए रे.




Wednesday, April 13, 2016

युद्ध बुद्ध ( c) Copyright



जब जब युद्ध की भाषा बोलनी हो
बुद्ध हो जाती है दिल्ली
चुप्पी चाहिए हो जब सरकार से
तब प्रबुद्ध हो जाती है दिल्ली
जब स्थिरता चाहिए होती है
सुध बुध खो जाती है दिल्ली
जब जब युद्ध की भाषा बोलनी हो
बुद्ध हो जाती है दिल्ली

आधों से झुकती, पूरी दिल्ली
प्यादों से फूंकती, पूरी दिल्ली
कभी शौर्य होता था सीने में यहाँ
बिना दिल की, अब अधूरी दिल्ली
शहन्शाहों के तख्त सी
सिंहों सी दहाड़ती दिल्ली
ना जाने दिल इसका कहाँ खो गया
दुबक कर, सहमी, भीगी सी बिल्ली
दिल्ली

इमारतों से क्या होगा
धुएँ से ढ़क़ी हुई है काया
देश भर में भेद जन्मा इसने
खुद गठबंधन ही बस कमाया
सीमाओं पे बहे रक्त से
जेबें भरती है दिल्ली
लहू की गर्मी होती थी कभी इसमे
अब बस बर्फ की सिल्ली है दिल्ली
जब जब युद्द की भाषा बोलनी हो
बुद्ध हो जाती है दिल्ली

~ अनुपम ध्यानी





Thursday, February 4, 2016

मेरी कविता ढोती है ~ © Copyright



जो कहते हैं, मेरी कविता
भारी भरकम शब्दों से लैस होती है
उसमे मिठास कम होती है
उन्हे नहीं पता 
मेरी कविता किस किस का भार ढोती है

जब घर लौटे सैनिक के ताबूत पर
माँ रोती है
उन आँसुओं का भार 
मेरी कविता ढोती है

जब राष्ट्रा निर्माण के लिए
एक सिंग खड़ा अकेला
और बाकी सब की आवाज़
उसके खिलाफ एक हथियार होती है
मेरी कविता उस सिंग
की दहाड़ होती है

जब पिता के कंधे
झुका दें बेटे के कर्म
पाप से रंगे उसके दुष्कर्म
उसे हर बार मुआफ़ करने की
शक्ति नही होती है
उसे क्षमा करने का भार
मेरी कविता ढोती है

जब चट्टानें खड़ी हों
हर मोड़ पर
जब प्रश्न चिन्ह लग जाए
तुम्हारे ज़ोर पर
जब धराशाही हर
उम्मीद होती है
तब कविया मेरी
उन चट्टानो को चीरती
धार होती है

जब प्रशंसा दुर्लभ हो
और निंदा हर बार होती है
श्रम का फल ना मिलने पर भी
कर्मठता तेरी अपार होती है
उस जुझारू तेरी लगन को
मेरी कविता दंडवत हो,
उसे प्रणाम करती 
एक ललकार होती होती है

दयनीय, दंडनीय
घृणित, निंदनीय
जब संसार से ही
मानवता खोती है
उस पतन का भार
मेरी कविता ढोती है
तो भारी हो या भरकम हो
उन मानवता के शवों को
लयबद्ध करने की ज़िम्मेदारी
मेरी कविता की होती है
कड़वाहट से नहा के 
पंक्तियों में मेरी मिठास कम होती है
क्यूँकि मेरे शब्द, पंक्तियाँ, मुक्तक, कविता
कई कई भार ढोती है
कई कई भार ढोती है
~ ©  अनुपम ध्यानी