Dreams

Thursday, October 31, 2013

बनूँगा, बनाऊंगा ! Copyright (c)

स्मृति बनूँ या बनूँ स्मारक?
सुधार बनूँ या बनूँ सुधाकर?

पिनाकी बनूँ या ब्रह्मास्त्र?
गाण्डीव  बनूँ या पशुपतास्त्र?

मूल बनूँ या मौलिक?
आलोक या अलौकिक?

जीवन या संजीवनी?
दमन या दामिनी?

छंद बनूँ या स्वच्छंद
मुक्तक या निबंध

सागर बनूँगा, छोर भी
सावन बनूँगा, मोर भी
उजाला भी, अंधेरा घनघोर भी
समस्या का तोड़ भी
आशा की डोर भी
उत्तर बनूँगा, प्रश्न भी
सूर्य उष्ण भी

बना बनाया कौन आया
सब यहीं बनते हैं
बनो, बनाओ स्वयं को शांति कमल हरी सा
या तांडव करते शंकर का त्रिशूल
मानव ईश की सबसे प्रखर रचना हो सकती है
या ईश मानव की सबसे बड़ी भूल?
रच जाना ही सबसे प्रमुख ध्येय है
रचयिता ही सृष्टि का मूल |

Saturday, October 19, 2013

सुदर्शन (c) Copyright




दृष्टि और दृष्टिकोण में अंतर मात्र से
मानव महमानव बन जाए
तिमिर की बेला तो हटाए दिया भी
पर केवल सूर्य ही तिमिरारि कहलाए

दर्शन दिशाहीन हो तो प्रदर्शन बन जाए
चक्र भीतर का उत्तेजित हो तो सुदर्शन बन जाए
दिशा का ही सब खेल है, समय की ही सब चाल
दिशा सही तो गतिमय जीवन, दिशा बदले तो दुखदाई घर्षण बन जाए

आधार सही हो तो साधारण भी असाधारण कहलाए
विचार विवेक से हो उत्पन्न तो श्लोक-रूपी उच्चारण हो जाए
आत्म मंथन से अमृत निकलेगा, कह गये ऋशी मुनि प्राचीन
आत्म बोध ही अजर-अमरता का कारण बन जाए

समय चक्र और काल निर्णय बस यह हमे सिखलाए
अंदर झाँको , अंदर ताको, बाहर एक दृष्टि भी ना जाए
मुक्तिपथ की बस एक डगर है जो केवल
भीतर के ओर जाए