Dreams

Tuesday, May 31, 2011

कुलटा !! Copyright ©


सुबह सुबह जब आँख खोली तो
तलब हुई चाय पीने की
थोडा, दौड़ती ज़िंदगी में, जीने की
तो हम पहुंचे सड़क के किनारे
जहाँ चचा मुस्कुराते हुए खड़े थे प्याला संभाले
चुस्कियों के लुत्फ़ उठा ही रहे थे,
अखबार में धोनी के गुण गा ही रहे थे
कि आगे मजमा लग गया
एक अधनंगी काया पे ध्यान जम गया


थोडा उसे देख ही पाए थे कि
भीड़ ने उसे समां लिए
जैसे गिद्ध हों , अपनी चोंचों में
मांस सा दबा लिए
एक आदमी निकला बाहर भीड़ से
और उसने सर हिला दिया
हमने कहा "हुआ क्या" वोह बोला
"अरे कुलटा ने मोहोल्ला जला दिया"
वैसे तो हम ऐसे मुद्दों पे ध्यान नहीं देते
रोज़मर्रा के काम से काम हैं बस लेते
पर उसके आक्रोश ने मन पिघला दिया
उत्सुकता बढ़ी और हमने भी भीड़ की ओर पैर बढा दिया

उसकी घबराई आँखें देख मन रुदाली सा रोया
उसके अधनंगे शरीर को देख के मन शोक में सोया
पर मनुष्य हूँ...आदमी हूँ...भूखा हूँ..सूखा हूँ
तो एक और आवाज़ मन से आई.. महिला है.. नग्न है
बेसहारा है...तू गिद्ध है...वोह मांस..नोच
मैं सकपकाया...यह क्या था..यह कैसी सोच
और मैं सरपट निकला भीड़ से...
ग्लानि में डूबा...शोकाकुल
मेरी आत्मा में दाग
मेरे ख्वाहिशों की काली राख

भीड़ छंटी, गिद्ध हुए तितर बितर
वोह बेचारी सहमी ठिठुरे इधर उधर
घबराई आँखें , फिर अधनंगा बदन
मैं न जाने कितने प्याले फांक चुका था
उसके अधनंगे अंग को झाँक चुका था
अब हिम्मत करके मैं पहुंचा उसके पास
एक हाथ में चाय की प्याली एक हाथ में विश्वास
मैंने उसे सब सत्य बताने की ठानी
मैंने कहा " हे देवी तू कौन...कैसे हुआ यह सब
कैसे गिद्धों ने तुझे नोचा....
मैं भी एक गिद्ध हूँ...
जो कामुक आँखों से तुझे देख रहा था
पर अब मैं ग्लानि में डूबा हूँ
मैं तुम्हारे लिए कुछ कर सकता हूँ?"

रुआंसी सी, वोह बोली " गिद्धों ने नोचा
नोचा समय ने, नोचा किस्मत ने , नोचा ह्रदय ने
तुम भी नोच लो, दबोच लो, मैं तो मांस हूँ
भावना रहित निर्जीव घास हूँ...
जब मन भर जाये... छोड़ देना.. "
यह सुनने के बाद आपको लगेगा मेरा ह्रदय पसीज गया
मैंने उसे चादर उढ़ाई और ग्लानि को अपनी जीत गया
पर नहीं......मेरे अन्दर अभी दानव था
मेरे अन्दर अभी कालिक थी
मैंने उसे कहा मैं उस ऊपर वाले मकान में रहता हूँ
जब भीड़ छांट जाए, चली आना
उसकी बड़ी बड़ी आँखों के सामने मैं दयनीय लग रहा था
उसके इस विश्वास , कि मैं भी गिद्ध हूँ, के आगे में कांपा
पर दानव युद्ध जीता , मैं घर पहुंचा

फिर दरवाज़ा खटका, मैं झटका
द्वार खोला और देखा
वोह वहीँ थी...मैंने उसे तसल्ली से सेका
अन्दर आई...बैठी..मेरी पीठ थोड़ी ऐन्ठी
उसके देह से वस्त्र उतारे...
और देखता ही रह गया...
"कुलटा" तुझे कुलटा क्यूँ कहें लोग
तू तो सौंदर्य की प्रतिमा है...
नोची गयी है पर सत्य की तू गरिमा है
कुलटा तो मैं हूँ.... जो अपने भीतर दानव को जागने देता हूँ
उसने बेशर्मी से मेरी देखा... "भूख लगी है... मुझे"
मैंने कहा.. पहले मैं तुझे देख लूँ, तेरी गर्मी सेक लूँ
फिर खायेंगे....


मैंने अपना चित्रफलक उठाया और कूची
कहा...वहीँ लेटी रहना....मैं
तेरी काया में अपने कालेपन का प्रतिबिम्ब देख रहा हूँ
मैं इसे रंगों में उतारूंगा...
जब जब मेरे अन्दर का दानव जागेगा
इसे सराहुंगा...
कुलटा तू नहीं...कुलटा मैं हूँ
कलंकित तू नहीं.. काला मैं हूँ
फिर कूची ऐसे घूमी चित्रफलक पे
कि जैसे कल हो न हो और एक काया
बन गयी....काली, घ्रिनास्पद मैली काया
मेरी काया ,
शरीर उसका...पर आत्मा मेरी
जैसे मेरे नंगेपन की हो प्रभात फेरी

उसकी भूख मिटाई... वस्त्र दिया और कहा
जब जब मेरे अन्दर दानव पनपेगा
चली आना.... मुझे मेरा चेहरा दिखा जाना
मेरे अन्दर सब है घ्रिनास्पद, काला और उल्टा
तू नहीं....मैं हूँ कुलटा
तू नहीं ...मैं हूँ कुलटा
तू नहीं.. मैं हूँ कुलटा!!


Monday, May 30, 2011

दगड्यू ( गढ़वाली ) !!Copyright ©




मेरे परम मित्र कार्तिक की याद में !!










माँ बोल्दी च की तिन बल
मेरु हाथ पकड़ी जब
हम माँ की गोदी मा छा
मिन बल, मुसकुरै दे जब
हम माँ की गोदी माँ छा
वू सब कख हर्च गि
सब तन किलै बिग्ड्यु
तू कख चल गें ...दगड्यू


याद च ते सने जब हमन काफल छकी छा
अगस्त की बारिश मा बणदी सड़क मा जू नदी छाई
वू मा पैर रखी छा
तू कण मेरी माँ सने माँ बोल्दी छेई
और मैं तेरे बाबा के पैर छुन्दों छौं
कण घबरै कि तिन मेरु हाथ पकड़ी एक बार
कण चोरी छुपी हमन बांग रगड़ी एक बार
कण छू वू प्यार सीना माँ जकड्यू
तू कख चल गें ...दगड्यू


तेरी याद औंदी च , रोंदुं भी छौन
पर तेरी याद मा ते सने खोंदुं भी छौन
जीवन मेरु चल्दु रोलु, जब तक तू मैं सने
अपना नज़दीक नि बोलोंदी
तब तक तेरी साथ की ज्वाला सने जले की रख्लू
तेरी हसी सने खिले की रख्लू
तिन जन बताई छोऊ ,
वन सब सने एक साथ मिलै की रख्लू
मं तेरी डोर, तेरु आभास ..च पक्द्युन
जल्दी मिलला ...मेरे दगड्यू
जल्दी मिलला...मेरे दगड्यू
जल्दी मिलला...मेरे दगड्यू


Sunday, May 29, 2011

उधेड़ बुन !! Copyright ©


यह काया , यह माया यह इन्द्रधनुष का सरमाया
यह गरजते मेघ, यह काली घटाएं, ये साया
नाचते मोरों का झुण्ड, या पहली बारिश की बूँद
सूरजमुखी की मुस्कान , या वेदों का गान
मेरा मन अनेको ख़याल रहा है बुन
यह मंद हसी होंटों पे, ओह यह कैसी है उधेड़ बुन


कभी प्रेम का मधुर गान , कभी सखी की मुस्कान
कभी धर्मों की छाप, कभी धरती का नाप
कभी पंछियों से बातें , किस्मत से मुलाकातें
कभी परछाइयों से आँख मिचोली, कभी खून की होली
अंग अंग में बाजे मृदंग, रोम रोम गाये है धुन
यह मात्र-कोमलता भीतर, ओह यह कैसी है उधेड़ बुन


पिरोते मोटी, सीपों की माला , शंखों का स्वर
ब्रह्माण्ड के अनगिनत स्वरों की अनंतता अमर
मिटटी की खुशबू, जगहों की रूह
भटकते भ्रमिक , मुस्कुराते श्रमिक
बंद आँखों से भी जग देख लेना
झेलम की लहरों से उम्मीदें सेक लेना
चिनार की ऊंचाई, प्रशांत की गहराई
मेरा ह्रदय अपनी कम्पन रहा है सुन
यह कैसी है कल्पना , यह कैसी है उधेड़ बुन


इन ख्यालों में डूब के , इन रंगों में कूद के
ही मैं अपने चित्रफलक को रच पाया हूँ
इन ख्यालों के खजाने से ही मैं अपनी कल्पना खर्च पाया हूँ
देवों का आशीष है मेरी सोच की कूची
मेरी सोच हैं होती रहे निरंतर ऊंची
फिर एक दिन मैं कल्पना के सागर से ढूंढ लूँगा वोह अनोखा मोती
तब न होगी सोच में मिलावट, न होगी कोई घुन
होगी केवल सुनहरी कल्पना , न होगी यह उधेड़ बुन
होगी केवल सुनहरी कल्पना , न होगी यह उधेड़ बुन
होगी केवल सुनहरी कल्पना , न होगी यह उधेड़ बुन

Monday, May 23, 2011

अर्ध-सत्य !! Copyright ©

सत्य के पीछे तो हर कोई भागे
पर सबके जीवन असत्य के धागे
मूल मंत्र है , सबका ध्येय
पर यह जीवन अर्धसत्य का है विषय


सत्य क्या , क्या है मूल
प्रत्यक्ष क्या है , क्या है चक्षु की धूल
कौन सत्य का धारक, कौन असत्य का स्मारक
यह ज्ञान छुपा अर्धसत्य में



यह जीवन अपना अर्ध सत्य
स्वप्न जैसे आधा लटका ज्ञान में
आधा अज्ञान और अभिमान में
इतना सत्य की उत्सुकता पैदा कर पाए
और इतना असत्य की भ्रम पनप पाए
पूर्ण सत्य की ओर अग्रसर
या पूर्ण असत्य को आलिंगन
या इसी अर्धसत्य की मादकता हो पड़ाव
.......आपका चुनाव!!!!


इस अर्धसत्य की अनुभूति होती सबको
कुछ विचारते , कुछ नकारते
कुछ विचार के बाद सत्य की ओर मार्ग बनाते
कुछ अपना स्तम्भ असत्य को बनाते


अर्ध सत्य को पहचानने की शक्ति
आये विचारोत्तेजना से , शोध से
अर्ध सत्य की खोज करने की चाह से
और ज्ञान प्राप्ति पे चल पढ़ी राह से


अर्ध सत्य ही चरम सत्य और
चरम सत्य की परम
इस अर्ध सत्य को गले लगा के ही
हो जाए मानव, ब्रह्म
बुद्ध ज्ञान प्राप्त हुआ
इसी अर्ध सत्य के ज्ञान से
चुनाव सिद्धार्थ का था
जो किया उसने ध्यान से


साधू संत और परम ज्ञानी
की युगों- युगों से यह ही कहानी
पहचान पाए इस अर्ध सत्य को
और वश में करली इन्द्रियाँ सारी


अर्ध सत्य को पहचानो प्यारे
अर्ध सत्य को बनाओ आधार
पूर्ण सत्य की ओर हो अग्रसर
और रचो इतिहास अपार
रचो इतिहास अपार
रचो इतिहास अपार!

Sunday, May 22, 2011

स्वाहा ! Copyright ©


पुरानी लकीरों को ...स्वाहा
जंग लगी तकदीरों को...स्वाहा
हारों को ..स्वाहा
अतीत की कटारों को ...स्वाहा
बेड़ियों को ..जंजीरों को ..स्वाहा
नहीं उम्मीद नया चैन....आहा
पुराना सब कुछ..स्वाहा!



उलझनों को , कठिनाइयों को..स्वाहा
कारागारों, सलाखों को ..स्वाहा
जकड़ती रीतों को...स्वाहा
अकडती पीठों को ..स्वाहा
झूठी माया को...स्वाहा
ठिठुरती काया को ..स्वाहा
अनगिनत चोटों को... स्वाहा
थर्राते होंटों को... स्वाहा
नए ध्वज को .. आहा
पुराने झंडों को...स्वाहा



यह रीत है..
समय चक्र भी
जो जीर्ण है जो जंग लगा है
वह उतर जाएगा
नवीन परत चढ़ा जाएगा
चाहे मरहम कहलो चाहे नया जीवन
समय तो अपना रंग दिखा जाएगा
सो याद रखो यह अच्छा समय
पर न भूलो बुरा वक़्त
आज की कोमल सतह की वजह से
न भूलो अन्दर जो है सक्त
पर समय की मांग है
और किस्मत का इशारा
मुट्ठी में है तेरे जग सारा
तो कर आँखें बंद और लगा छलांग
न पीछे मुडके देख दुबारा
आगे सब ...आहा
पीछे सब...स्वाहा
पीछे सब..स्वाहा!!
पीछे सब..स्वाहा

Thursday, May 19, 2011

छिलके ! Copyright ©

















फल तो सब खाते हैं
रस तो सब भाते हैं
पर इन छिलकों का क्या



छिलके जो कवच हैं जीवन का
जो हैं बिछौना
जो हैं गर्भ भ्रूण का
जो हैं हिंडोला
पूछो इन छिलकों से जो
फैन दिए जाते हैं
जो किसीको भी न भाते हैं
क्यूँ इनकी ऐसी तकदीर
यह जूठन नहीं , न हैं कूड़ा
यह तो हैं सुनहरी जागीर



अपने जीवन के छिलकों को पहचानो
इन छिलकों का मेहेत्व जानो
इनके बिना न तुम फल बन पाओगे
न इनकी गर्मी की परत बिना जी पाओगे
इन जैसे ढालों के बिना लुप्त हो जाओगे
रस तो क्या , सांस भी नहीं ले पाओगे
यह छिलके हैं आज कल माँ-बाप
जो फेंक दिए जाते हैं
जैसे ही मिलता जीवन का आलाप



त्वमेव माता, च पिता त्वमेव
अब केवल कूड़े दान में मिलते हैं
किसी वृधाश्रम में ठिठुर ठिठुर के
नीरसता में बहते हैं
जिन "छिलकों" ने ताप सह के
तुमको खिलाया था
उनको तुमने दूर फ़ेंक के
ऐसी अग्नि में सुलगाया था
अरे चरणों में जिनके तुमको होना था
चरनामृत तुमको जिनका पीना था
उनको तुमने पैरो से अपने दबा दिया
लात मार दी ह्रदय से अपने
छिलका उनको बना दिया



यह छिलके नयी पौध की खाद बनें
तुमको पाला था पहले अब
अब तुम्हारे पौंधों को आबाद करें
यह छिलके तो अपना जीवन तुम्हे बचाते रह गए
तुमने इनको दिया निकाल और यह फिर भी आशीर्वाद कह गए



पाप पुण्य का बहि खाता जब लिखा जाएगा
तब तुम्हारे हिस्से केवल नरक ही आएगा
मात-पिता को छिलका रुपी तुमने जैसे बना दिया
देखना वैसे तुमको यम ने न अगर जला दिया



पिता तना और माँ शाखाएं हैं तुम्हारे
फलते जीवन की
ना पंपोगे एक क्षण को तुम
यदि तुमने
छिलका इनको बना दिया
छिलका इनको बना दिया
छिलका इनको बना दिया

Wednesday, May 18, 2011

गिद्ध !Copyright ©


गिद्ध खड़े हैं परनालों पे
और घनघोर घटाएं फैलीं हैं
रक्त बह रहा नालों में और
स्वछता ही मैली है
खूब बही जो सर सर हवाएं
वोह आज बस ज़हरीली हैं
गिद्धों ने तो सर ऊंचा कर
रक्त से होली खेली है



आज कटे हैं सर राजकुमारों के भी
सुबह से बस मौत ही माओं ने झेली है
दोपहर होते ही चिताएं जल उठी
केवल लहुलुहान हथेली है
गिद्ध आये थे सुबह सुबह और
कर गए ऐसा प्रहार
अपनी चोंचो और नाखूनों से
कर गए नरसंघार
अब शाम हो चली और जीते गिद्ध बैठे
देख रहे हैं सबकी हार
ऐसे मंज़र में एक आँख खुल उठती है
नज़र मिला के गिद्धों से वो काया
खौल उठती है



उन आँखों ने यह भयावह होली
पूरे दिन आज देखी है
लड़ते लड़ते घायल हो चली वो आँखें
और चिताओं की गर्मी सकी है
उठ खड़े हो और देख क्या मजमा
गिद्धों ने फैलाया है
कैसे अपने नाखूनों से तेरी धरती को
लाल बनाया है



डरते डरते उस काया ने शक्ति अपनी बटोरी है
एक हाथ में खड्ग और एक में रक्त भरी कटोरी है
क्रोध से उद्गम एक बिजली अब उसकी नसों में जो दौड़ी है
कातिल गिद्धों के सामने अब उसकी छाती चौड़ी है
हर दिशा से गिद्धों ने किया प्रहार
कोई टूटा टांगो पे तो किसे ने किया दिल पे वार
उस काया ने खड्ग को अपनी, कुछ ऐसे लहरा दिया
गिद्धों के कलमे सरों से उसने बनाया अपना हार
अब रात हो चली, गिद्ध मर चलो और थक गयी वो काया है
पर कल और आयेंगे , और मरेंगे और बनेंगे हार




यह गिद्ध निरंतर आते रहते
रक्तपात फैलाते रहते
बिना भय और कोमलता के
मानव लहू बहाते रहते
उठ खड़े हो , इन गिद्धों से न मानो हार
अपनी शक्ति को पहचानो , निकले ज्वाला बारम बार
अपनी तलवार फैलाओ ऐसे कि
एक बार में करदो इनको चित्त
इनकी उड़ान को सीमित करके
करदो इनको शुद्ध
नहीं तो यह फिर आयेंगे
फिर से जीवन बिखरा जायेंगे
यह निर्दयी गिद्ध
यह निर्दयी गिद्ध
यह निर्दयी गिद्ध

Tuesday, May 17, 2011

समभोग ! Copyright ©


हाड मॉस के पुतले हम और
हाड मॉस का अपना धंधा
देह धर्म और ईमान की बोली
काला , कुटिल और गन्दा
समभोग को करके व्यक्त परदे पर
उसके तात्पर्य को भूल गए
अधनंगे शरीरों पे लार टपका के
काम , क्रोध में झूल गए
कामसूत्र के मूल मंत्र को हमने
यूँ ही भुला दिया
नग्न नर-नारी को बस एक शय्या में
सुला दिया



समभोग है जुड़ना आत्मा का परमात्मा से
शिव-शक्ति के मिलन से प्रकट होती उस आत्मा से
जब टकराए एक निरंतर गतिमय शक्ति
एक निरंतर स्थिर काया से
ले जो ऊर्जा जन्म इन से, दूर हो जो इस माया से
देह मिले या मिले मन
न मिलें आत्मा तो यह माया है अधूरी
जब समां जाओ तुम मुझमें और मैं तुझमे
तब होती यह यात्रा पूरी
जैसे गंगा- जमुना मटमैली सी जुड़ जाएँ
संगम करते उठ जाएँ
वैसे समभोग की हो कामना
हो तब तक परमात्मा से अपनी दूरी



मंथन करके अमृत निकले
निकले गीता सार
इस मिलन से त्रिदेव प्रकट हों
जन्म ले शक्ति अपार
मूलाधार चमके स्वयं का
उत्तेजित हो मन इतना
शिव की भाँती जटाओं से निकले गंगा की धार
समभोग में मोक्ष की शक्ति
मोक्ष परमात्मा से परिचय
परिचय स्वयं का देवों से और
स्वयं पे स्वयं की विजय



समभोग मात्र से , समय को जकड़ा
अपने अन्दर ब्रह्माण्ड को पकड़ा
उक शक्ति से रचे वेद और रची गयी
यह सभ्यता
उससे उत्पन्न भ्रूण हुआ जो
इतिहास अपना गया रचा
इस मिलन से भूगोल बदल आये
कई सम्राट
स्वयं का स्वयं से समभोग हुआ तो
निकली शक्ति विराट



स्वयं से स्वयं का समभोग
रोक नहीं पाओगे
उस शक्ति को केंद्र बना के
बुद्ध हो जाओगे
यह शक्ति पहचानो तो
भूलोगे विलास , मोह, माया ओर भोग
बस अपना लोगे इस मार्ग को
करोगे जब स्वयं का स्वयं से समभोग
फिर स्वयं का आत्मा से समभोग
फिर आत्मा का परमात्मा से समभोग!

Friday, May 13, 2011

सोच ! Copyright ©


मैं अपने सपनो का प्रतिबिंब हूँ

मैं अपनी इक्च्छाओं की तस्वीर

कभी गगन में उड़ता पंछी

कभी चिंतक गभीर

मैं अपनी सोच का जीता पुतला

मैं अपने मंसूबों की जागीर

जब चाहूं राजा हो जाउन

जब चाहे फकीर

मैं लंबी दौड़ का घोड़ा

मैं लौ का पतंगा

मैं इंद्रधनुष सा रंगीन

मैं काले मेघों सा संगीन

कभी दानव रूप करूँ धारण

कभी बन जाउन पियर

कभी पथिक हूँ, कभी राह भी

कभी किनारा , कभी बहता नीर

कभी कड़वाहट का काला घूँट

कभी हूँ मीठी खीर

मैं अपने सपनो का प्रतिबिंब हूँ

मैं अपनी इक्च्छाओं की तस्वीर

कभी जग को रौशन करता सूरज

कभी मैं टिमटिमाता तारा

कभी पूरा जग लुटा दूं

कभी मुट्ठी में मेरे जग सारा

कभी हूँ मैं अमृत धारा

कभी हूँ सागर सा खारा

मैं अपनी सोच का चित्रफलक

कभी हूँ चित्रकार

कभी हूँ भ्राह्मकमल मैं

कभी हूँ गीता सार

मैं हूँ कमान की प्रत्यंचा

कभी हूँ स्वयं तीर

मैं अपने सपनो का प्रतिबिंब हूँ

मैं अपनी इक्च्छाओं की तस्वीर

सोच मात्र में ब्रह्म की शक्ति

सोच से शिव होता शंकर

सोच से ही कल कल बहता पानी

और सोच से ही रह जाता कंकर

फैलाने ने अपनी कल्पनाओं को पंख

उड़ने दे गगन में अपने गीत

बहने दे अपनी इच्छाओं को

तोड़ दे सारी रीत

सोच बनाती तुझको मुझको

सोच बनाये कायर या वीर

बन जा अपने सपनो का प्रतिबिंब तू

बन जा अपनी इच्छाओं की तस्वीर

इच्छाओं की तस्वीर

इच्छाओं की तस्वीर.

Wednesday, May 11, 2011

ताजपोशी ! Copyright ©


उन दिक्कतों को न भूलना
उन कड़वाहटों को न भूलना
उस कायरता को न भूलना
उस हार को न भूलना
उस कोमल खाल को न भूलना
तो तुझसे थी खरोंची
यह सारी बातें न भूलना
जब होगी तुम्हारी ताजपोशी



उन घावों को न भरने देना
उन गालियों को न ग़ुम होने देना
न भूलना अकेलापन, न दुश्मनी सेना
न तलवारें , न कटारें
न अपनी " बचा लो" की पुकारें
न भूलना जंगें
न रिश्तों की दरारें
न भूलना गिरते महल
न भूलना घायल घोड़े पे सवारी
जब ताजपोशी होगी तुम्हारी



जब मखमली चादर पे बैठोगे
जब जाम-इ-ज़िन्दगी चखोगे
जब गूँज उठेगा दरबार तुम्हारे आने पे
जब सुनहरी थाल सजेंगी
जब कायनात मुस्कुराएगी तुम्हारे गाने पे
जब हुक्म मानेंगे , पुराने हुक्मरान
जब जग देगा तुम्हारे ख्वाब को अंजाम
जब तख़्त पिघलेंगे, जहाँ से तुम गुजरोगे
न भूलना उन लाशों का मंज़र
न भूलना खून से धरती बंज़र
न भूलना कांटे, न दुश्मन, न प्रहारी
जब ताजपोशी होगी तुम्हारी



धर्माशोक तब बन पाया था
जब चंडअशोक मर पाया था
चंडअशोक तब बन पाया था
जब अशोक कंपकपाया था
जब ऐसे बादशाह शह से न घबराए थे
जब गिरते घुड़सवार , फिर से चल पाए थे
जब तुम गिर गिर के उठ खड़े होगे
जब अनगिनत हारों के बाद तुम विजयी होगे
तब न भूलना हर गिरते लम्हे को
तब मत भूलना रेत के हर एक कतरे को
मत भूलना कितना वह पल था भारी
जब ताजपोशी होगी तुम्हारी
जब ताजपोशी होगी तुम्हारी
जब ताजपोशी होगी तुम्हारी

Tuesday, May 3, 2011

क्या हुआ था उस अन्धकार में !!! Copyright ©


और उस दिन मैं डूब गया
काले अन्ध्रेरे में
और उस दिन मैं सूख गया
नीरसता की चादर में
मुझे था गर्व कि मैं
स्तम्भ था बहुतों का
लाठी था और दीपक भी
परन्तु उस दिन सूरज बुझ गया


सब ओर सन्नाटे का शोर था
मृत आत्माएं चीख रहीं थी
हारे हुए लोगों की टोली
आंसुओं में भीग रही थी
और इस सब में मैं भी आ पहुंचा था
झुक चुका था सर जो कभी ऊंचा था
नज़र नहीं मिली किसी से
न ह्रदय धड़का
चहुँ ओर था कालापन डर का
क्या होगा इस अँधेरे में
मैं चिल्ला उठा, तिलमिला उठा
सोचा सब सुन लेंगे
मुझे पकड़ लेंगे
समझ लेंगे
मगर मानो सब मेरी काया को
भांप न सकते थे
मेरे कम्पन को नाप न सकते थे
और मैं सुन्न था


इस काले अँधेरे में फिर
कहीं से एक बूँद टपकी
प्यासे मन को तर कर गयी
जैसे मृगत्रिष्णा की तलाश में
जल मिल जाए
भक्त को आराध्य मिल जाए
इन्द्रधनुष का छोर मिल जाए
बरसात से पहले नाचता मोर मिल जाए
क्या थी यह बूँद
यह थी अनुभूति
आत्मा के परमात्मा से मिलने की
जो कहते हैं केवल मृत्यु पर है होती
पर मैं जीवित था
स्व की शक्ती से असीमित था
तो फिर क्या थी यह बूँद


यह थी पुकार परमात्मा की
मेरी स्वयं की आत्मा की
कि तू कस्तूरी लिए घूमता है
और न जाने कहाँ कहाँ ढूंढता है
मैं तो तेरे अन्दर हूँ समाया
तूने झाँका और पाया
और तू इस अँधेरे में क्यूँ आया
यह पूछ रहा होगा
तो कहीं न कहीं यह उत्तर बूझ रहा होगा
तो सुन , तेरे अन्दर जो भण्डार है
जो मैंने तेरे अंकुर में फूँका था
वोह प्रचूर्ण मात्रा में है
जितनी कठिन राहें हैं इस जीवन में
उतनी ही मखमली चादर हैं वहाँ
जितने काँटे हैं उस से कहीं अधिक
फूल हैं वहाँ
बस तू भूल जाता है
और यह शूल हो जाता है
और मैं जानता हूँ तू फिर भटकेगा
फिर अटकेगा
पर मैं हूँ
बस झाँक अन्दर और मैं हूँ


बस फिर क्या था
उस काले अन्धकार में भी
मैं चमक उठा
उस आधी नींद से भी मैं
गूँज उठा
मैं चमकूँगा ईश की रौशनी से
तो जग चमकेगा
और फिर एक बार यह अन्धकार आ धमकेगा
पर क्या हुआ यदि वह आये
यह उजाला उस तम को दूर भगाए
जो रात बीती है
कोई बात नहीं कि वह फिर आये
पर
वह पुनः यह ऊर्जा लाये
वह पुनः यह ऊर्जा लाये
वह पुनः यह ऊर्जा लाये!