Dreams

Tuesday, May 31, 2011

कुलटा !! Copyright ©


सुबह सुबह जब आँख खोली तो
तलब हुई चाय पीने की
थोडा, दौड़ती ज़िंदगी में, जीने की
तो हम पहुंचे सड़क के किनारे
जहाँ चचा मुस्कुराते हुए खड़े थे प्याला संभाले
चुस्कियों के लुत्फ़ उठा ही रहे थे,
अखबार में धोनी के गुण गा ही रहे थे
कि आगे मजमा लग गया
एक अधनंगी काया पे ध्यान जम गया


थोडा उसे देख ही पाए थे कि
भीड़ ने उसे समां लिए
जैसे गिद्ध हों , अपनी चोंचों में
मांस सा दबा लिए
एक आदमी निकला बाहर भीड़ से
और उसने सर हिला दिया
हमने कहा "हुआ क्या" वोह बोला
"अरे कुलटा ने मोहोल्ला जला दिया"
वैसे तो हम ऐसे मुद्दों पे ध्यान नहीं देते
रोज़मर्रा के काम से काम हैं बस लेते
पर उसके आक्रोश ने मन पिघला दिया
उत्सुकता बढ़ी और हमने भी भीड़ की ओर पैर बढा दिया

उसकी घबराई आँखें देख मन रुदाली सा रोया
उसके अधनंगे शरीर को देख के मन शोक में सोया
पर मनुष्य हूँ...आदमी हूँ...भूखा हूँ..सूखा हूँ
तो एक और आवाज़ मन से आई.. महिला है.. नग्न है
बेसहारा है...तू गिद्ध है...वोह मांस..नोच
मैं सकपकाया...यह क्या था..यह कैसी सोच
और मैं सरपट निकला भीड़ से...
ग्लानि में डूबा...शोकाकुल
मेरी आत्मा में दाग
मेरे ख्वाहिशों की काली राख

भीड़ छंटी, गिद्ध हुए तितर बितर
वोह बेचारी सहमी ठिठुरे इधर उधर
घबराई आँखें , फिर अधनंगा बदन
मैं न जाने कितने प्याले फांक चुका था
उसके अधनंगे अंग को झाँक चुका था
अब हिम्मत करके मैं पहुंचा उसके पास
एक हाथ में चाय की प्याली एक हाथ में विश्वास
मैंने उसे सब सत्य बताने की ठानी
मैंने कहा " हे देवी तू कौन...कैसे हुआ यह सब
कैसे गिद्धों ने तुझे नोचा....
मैं भी एक गिद्ध हूँ...
जो कामुक आँखों से तुझे देख रहा था
पर अब मैं ग्लानि में डूबा हूँ
मैं तुम्हारे लिए कुछ कर सकता हूँ?"

रुआंसी सी, वोह बोली " गिद्धों ने नोचा
नोचा समय ने, नोचा किस्मत ने , नोचा ह्रदय ने
तुम भी नोच लो, दबोच लो, मैं तो मांस हूँ
भावना रहित निर्जीव घास हूँ...
जब मन भर जाये... छोड़ देना.. "
यह सुनने के बाद आपको लगेगा मेरा ह्रदय पसीज गया
मैंने उसे चादर उढ़ाई और ग्लानि को अपनी जीत गया
पर नहीं......मेरे अन्दर अभी दानव था
मेरे अन्दर अभी कालिक थी
मैंने उसे कहा मैं उस ऊपर वाले मकान में रहता हूँ
जब भीड़ छांट जाए, चली आना
उसकी बड़ी बड़ी आँखों के सामने मैं दयनीय लग रहा था
उसके इस विश्वास , कि मैं भी गिद्ध हूँ, के आगे में कांपा
पर दानव युद्ध जीता , मैं घर पहुंचा

फिर दरवाज़ा खटका, मैं झटका
द्वार खोला और देखा
वोह वहीँ थी...मैंने उसे तसल्ली से सेका
अन्दर आई...बैठी..मेरी पीठ थोड़ी ऐन्ठी
उसके देह से वस्त्र उतारे...
और देखता ही रह गया...
"कुलटा" तुझे कुलटा क्यूँ कहें लोग
तू तो सौंदर्य की प्रतिमा है...
नोची गयी है पर सत्य की तू गरिमा है
कुलटा तो मैं हूँ.... जो अपने भीतर दानव को जागने देता हूँ
उसने बेशर्मी से मेरी देखा... "भूख लगी है... मुझे"
मैंने कहा.. पहले मैं तुझे देख लूँ, तेरी गर्मी सेक लूँ
फिर खायेंगे....


मैंने अपना चित्रफलक उठाया और कूची
कहा...वहीँ लेटी रहना....मैं
तेरी काया में अपने कालेपन का प्रतिबिम्ब देख रहा हूँ
मैं इसे रंगों में उतारूंगा...
जब जब मेरे अन्दर का दानव जागेगा
इसे सराहुंगा...
कुलटा तू नहीं...कुलटा मैं हूँ
कलंकित तू नहीं.. काला मैं हूँ
फिर कूची ऐसे घूमी चित्रफलक पे
कि जैसे कल हो न हो और एक काया
बन गयी....काली, घ्रिनास्पद मैली काया
मेरी काया ,
शरीर उसका...पर आत्मा मेरी
जैसे मेरे नंगेपन की हो प्रभात फेरी

उसकी भूख मिटाई... वस्त्र दिया और कहा
जब जब मेरे अन्दर दानव पनपेगा
चली आना.... मुझे मेरा चेहरा दिखा जाना
मेरे अन्दर सब है घ्रिनास्पद, काला और उल्टा
तू नहीं....मैं हूँ कुलटा
तू नहीं ...मैं हूँ कुलटा
तू नहीं.. मैं हूँ कुलटा!!


1 comment:

Anonymous said...

Wow...a man showing his darker sides to the outer world is rare! You actually did that...and did a wonderful job my friend!

-P.S.