Dreams

Monday, August 22, 2011

धुम्र-पान डॅंडिका Copyright ©
















इसके सुलगे छोर को देखो
कैसे धधकती हुई आग है
यह शांत सी ज़िंदगी में
कुछ करने की दौड़ भाग है
सुर्ख लाल अंगारे और जलता हुआ इसका बदन
यह तो एक ज्वालामुखी के मूह सा
एक खुला हुआ सुराख है
धुएँ में उड़ जायें फ़िकरें
यह तो एक निरंतर सत्य की राख है
बंद करो आँखें और खीँचो इस धुएँ को
तंबाकू नही यह तो मधुर सुगंध का राग है
अंगरों और धुएँ के बीच यह तो
भविश्य का घटाना, वर्तमान का भाग है
उंगलियों के बीच अठखेली खाती
यह ज़िंदगी के हमाम में
कुछ जिए लम्हों का झाग है
यह डॅंडिका तो ज्वलंत रहके
परित्याग का प्रमाण है
देखो इसके सुलगे छोर को
धधकती ज्वाला सी आग है


















Tuesday, August 16, 2011

मौत से यारी कर तू पहले Copyright ©














तख्त-ओ-ताज मिट जाएँगे,खो जाएगी यह कायनात
सियासतें लुट जाएँगी , लूट जाएगी हर शतरंज की बिसात
पर याद रहे हरदम हरपाल,भूले ना यह सच कभी
रह जायगी उम्मीद, जैसे सूरज रौशन करता हर गहरी रात

काली रात के साए का डर निरंतर चला आ रहा
सब खो जाने का डर सदियों समय के साथ बहा
भयभीत निगाहें , काँपती बाँहें हर बार यह कह देती है
जो झेल गया समय, किस्मत और परिस्थिति की मार,
उसे ही इतिहास ने हरदम बादशाह कहा

जो तेज नही है, और ना है कुछ करने की कूबत
ना है ताक़त हर मार को सह जाने की , चाहे जिस भी सूरत
उस तख्त पे नज़र ना डाल, ना उस ताज का बना सेहरा
तू तो है एक निर्जीव, ज़ीवट रहित, एक बेजान मिट्टी की मूरत

तलवार की धार पे चलने की हिम्मत जो कर पाएगा
वो ही इतिहास में अंकित होने का दर्ज़ा ले जाएगा
चाहे समंदर की ऊँची लहरे तुझे डुबाने को हो तय्यार
उन्हे चीर कर ही तो सुनेहरी रेत, जगमगाता भविश्य पाएगा

रोक ना तू अपनी बाहों में दौड़ते लहू को
ना रोक दिल में उफनते तूफान को
मौत से पहले यारी कर तू
फिर कहीं जाके संभाल अपनी जान को

तो निकल अपने मखमली राज महल से, दे ज़िदगी को ललकार
पतझड़ और ग्रीष्म के बाद ही आती है हरदम बहार
कांटों से ना छिल गया कभी तो गुलाब कैसे चुन पाएगा
मौत भी तेरी ऐसे हो कि अरथी तेरी ले जायें कहार



Monday, August 15, 2011

आज़ाद भारत की फसल Copyright ©

किस ओर है देश अग्रसर , किस ओर है भारत की नज़र
किस मुक़ाम पे पहुँचना है हमको, क्या होगी हमारी डगर
आज़ादी की शाम ना होने देने की कसम हमने खाई थी
इस 'आज़ाद' भारत का कैसा होगा अब सफ़र







जो बो दिया है बीज, उसके फल तो हम काटेंगे
चौसठ साल के इतिहास का वर्तमान तो हम बाँटेंगे
यदि आज अच्छा नही है तो, यह बीज पुराना था
इसीलिए तो हमको, प्रेम का फूल ही बस उगाना था
आतंकी शाखें जो आज खिली हैं
भ्रष्टता की जो जागीर मिली है
वो कल की गैर- ज़िम्मेदारी है
यह बीते कल की कालिख, बीते कल की बीमारी है



इस कवि , इस अभिव्यक्ता ने आज यह तस्वीर इसलिए उतारी है
क्यूंकी कल के भविष्य का बोझ, उसके हृदय मे भारी है
संकल्प तो हमने हर बरस इस दिन लिया था,
पर अगले क्षण ही भारत मा को नीलाम किया था
यदि कल भारत का परचम हमे विश्व भर में लहराना है
तो उस कपड़े का तार तार हमे आज से बनाना है
जो कल हमको सोने की चिड़िया फिर स्वर्ण बनानी है
हमको आज से हर उसके पिंजरे को तोड़ जाना है
पौधा उगाना है कल का, उस पौध को यदि लहलहाती फसल बनाना है
तो इस आज़ादी की हो रही शाम पर
सुनेहरा सूरज चमकाना है
तिरंगे के रंगो पे नया रंग चढ़ाना है
सोए भारत को इस 15 अगस्त हमे ऐसे आज जगाना है

ज़य हिंद!!!

Wednesday, August 10, 2011

Parenthood ! Copyright ©


For new, old and future parents !

DO NOT TAKE PARENTHOOD LIGHTLY.....THE FLOWERS OF THE FUTURE MAY NOT LIVE TO SEE A BRIGHT TOMORROW



responsibility came to me
in the form of a flower pot
beautiful purple flowers
emanating freedom like a new born
leaves bright green, confident and reborn
she had said
i give you this to take care
i have its cousin, the other pair
nurture it with the love u got
like baby this is , our flower pot


i was not ready for this parenthood
but i thought she wants to see
how good of a dad i could be
how much love i could give it wholeheartedly
because motherhood, to her, came naturally
i said to myself that i might fail
but i will give it my best shot
to that crimson red flower pot


i placed it in the balcony
to nurture it with the sunlight of love
it would grow happy and healthy
with blessings from the sky above
and then.......
the first flower shed
fallen to the ground
i had failed as i parent, i thought
i am sorry my poor baby, my flower pot


but i wanted it to live and to thrive
to emanate that beautiful vibe, to survive
so i replenished it with water
and cleaned its body
gave it some more sun
looked at it for hours
and thought about its cousin
am i being as good as she wanted me to be
how is its cousin fairing, better than me?
i was scared that when she would come
and see the withered leaves
she would sadden and judge my parenthood
oh my heart grieves


it was dying, my baby
sick and withered and wilted
i had failed
i woke up one night to see
how i could revive
would it , my carelessness, survive
like a father i was sad
but i had to give it hope, like a dad
so i gave it love
and then it smiled
it is still a little sick
but i will get it to live
i will teach it how to give
when to
when to not
oh my love, my flower pot


last night i wondered about its cousin
how was it being raised
had it been beaming with radiance
oh i would be so amazed
so i called the mother to check on it
to ask if our little one was awake
was it smiling
or taking a break
and....
i was told that it was dead
the day it was born
it had a short sojourn
its death had not been mourned
i was questioning my parenthood
all this while
feeling bad that i had failed
when the other ship had never sailed


i wish the cousin had survived
and she would have loved it
but i know she was not ready for this
but neither was I
her love had made me do what
i was so afraid of
i guess this is how you learn
with certain losses , you earn
the good thing is
that one of the kids has survived
and our love has thrived
so we will nurture this little one
and share its growing fun
will love it like parents should
we will now definitely
mature in parenthood.!

Tuesday, August 9, 2011

अग्रसेन चाहे उग्रसेन Copyright ©


उग्र करार दिया गया मुझे
उद्दंड भी गया कहलाया
मापदंडों की नाव में पाँव रखे तो
मेरी काया को भी ढहाया गया
क्रोध की अभीवियाक्ति की मैने तो
मेरी आवाज़ को दबाया गया
उग्र कहलाया गया
परिमाण की वर्षा में मुझे नहलाया गया
उग्र कहलाया गया


जब मैने मधुर गीत गाए तो कवि कहलाया गया
जब रौशन किया लोगों का जीवन तो रवि कहलाया गया
जब कूची रंगो से भरी मैने तो कलाकार हो गया
जब शब्द निकले निस्वार्थ प्रेम के तो सलाहकार हो गया
पसंद आए लोगों को बोल तो समझदार हो गया
नही आए तो मेरा प्रयास बेकार हो गया
पर हूँ तो मैं अभिव्यक्ता चाहे अच्छे का चाहे बुरे का
इसी की पसंद का चाहे नापसन्द का
है सत्य को व्यक्त करने की यह विधाता की देन
चाहे अग्रसेन कहलो मुझे चाहे कहलो "उग्र" सेन



अभिव्यक्ति डर की हो चाहे उम्मीद की
चाहे हो कटु सत्य कहने की क्षमता चाहे चलती रीत की
तू अपनी विचारधारा को किसी के लिए ना बदल
सीख भले पर, तेरे विचारों को ना जलाए ये समाज का दावानल
यदि तुझमे नेतृत्व के क्षमता नही तो अनुयायी ही हो जाएगा
हरदम द्वितीय स्थान की ही शोभा तू बढ़ाएगा
तो अपने सपने, अपने बोल, केवल बजायें तेरे चित्त का ढोल
मत कर परवाह जो समाज के मापदंड से तुझे दिया जाए तोल
तू बस बोल...
अभिव्यकती है ईश्वर की देन
तू बस बोल
चाहे फिर हो जाए तू
अग्रसेन या "उग्र"सेन


Sunday, August 7, 2011

अंगद Copyright ©


अंगद बन बन जब जब मैने
रख दिया धम्म से पाँव
तब तब डगमगाई डामाडोल
शत्रुओं की नाव
जो किसी चीज़ के लिए नई रह पाएँ खड़े
उन्हे हर चीज़ मुग्ध कर पड़े
अंगद हुआ मन तब ही मैं कुछ फ़ैसले ले पाया था
नही तो मेरा भी जीवन केवल एक साया था
जब मेरा संकल्प अंगद हुआ तब ही मैं
सब सपने सच कर पाया था
तभी मैं अपने जीवन के चित्र्फलक को
इन रंगो से रच पाया था
बन जाओ अंगद, रख दो अपने पाँव गढ़ा के
हिला ना पाए आँधी तूफान जहाँ में
होने दो हर किसी का प्रयास निरर्थक
जहाँ गढ़ा हो पाँव तेरा, अमृत धारा जन्मे वहाँ पे
अपने संकल्प से तुम बदलो यह जग
तुम बदलाव हो जाओ इसका
घोर साधना , से अपने विचार के पारंगत हो जाओ
धरो पाँव ऐसा तुम भी, तुम भी अंगद हो जाओ!!!

Thursday, August 4, 2011

और मैं..चला गया! Copyright ©


मुश्किलों में मैं मुस्कुराता चला गया
थकान को हर बार छुपाता चला गया
मुरझाया फूल , मृत्यु के बाद भी महकता ज़रूरा है
बस उस सुगंध को ही हर ओर मैं फैलाता चला गया !




अपने अश्क, अपनी सिसक को मैं दबाता चला गया
मुस्कान अपने चेहरे पे सजाता चला गया
जगमगाते सूरज के जलने का दर्द तो केवल सूरज ही जाने
मैं उस सूरज की तरह जग चमकाता चला गया


अपने जीवन को औरों का कंधा बनाता चला गया
बेवकूफ़, निमित्त मात्र, कहलाता चला गया
रिश्तों नातो और भाईचारे में बस दागा ही पाई मैने
फिर भी दुश्मनो को गले लगाता चला गया


कई सूखी शाखों को मैं लहू से अपने भिगाता चला गया
उनके पतझड़ हो रहे जीवन में बहार लाता चला गया
मौसम की तरह आया और गया मैं उन सबके जीवन से
खुश्क,पीलेपन पे उनके, हरियाली बस चढ़ता चला गया


बहते समय में मैं, जीवन बहाता चला गया
कई नदियों को मैं सागर के जैसे समाता चला गया
वो नदियाँ तो जाके सागर से मिल आतीं और मोक्ष पा जातीं
वो मैं था जो उन नदियों पे पुल बनाता चला गया


नशे में डूबी दुनिया को मैं अपना लहू पिलाता चला गया
जाम ख़त्म होते सबके तो मैं नये जाम बनाता चला गया
सब मय में झूम , झूम मदिरा की तारीफें करते रहे
और मैं साकी बनके बस उनको उनकी मादकता का एहसास कराता चला गया

और मैं..चला गया!

Tuesday, August 2, 2011

कतरे कतरे में आहुति Copyright ©


कतरे कतरे में उम्मीद भरी थी
बूँद बूँद में था विश्वास
छलनी सीने , निर्जीव आँखों से भी
नही गयी जीने की आस
बहाया लहू तूने धीरे धीरे ऐसे कि
निरर्थक रह गया मेरा प्रयास






हर टपकती बूँद लहू की शीश तुझे झुकाती है
पर तुझे यकीन नही आता खुदा कि हर बहती बूँद प्राण ले जाती है
मेरा शीश नतमस्तक है उठा खड़ग और कर दे कल्म एक बार ही
बार बार की मृत्‍यु देना तेरे चरित्र को नही भाती है


हर बार आज़मा लेता आस्मा मुझे अनायास
हर बार प्यासा छोड़ देता यह सागर
हर बार कदम बढ़ते हैं उम्मीद भरे तो
तोड़ देता ,तू ,खुदा मेरे विश्वास की गागर


प्रमाण चाहिए तुझे मेरी निष्टा का
तो बतला मुझे क्या करूँ न्योछावर
ऐसे लहू बूँद बूँद ना निकाल
खाली हो जाएगा मेरी श्रद्धा का सागर


तेरी ज्वाला को मैं तो चहु ओर फैलता हूँ
तेरा परचम तो मैं गाँव गाँव लहराता हूँ
तेरे आशीष से , विश्वास से तो मैं औरों के दीप जलाता हूँ
तुझे क्यूँ विश्वास नही होता कि मैं तो हर बार तेरे दर ही आता हूँ


फिर क्यूँ हर बार मुझे आज़माने का आनंद तू लेता है
हर बार क्यूँ खून चूसते घाव तू देता है
क्यूँ करता हर बार आज़माइश मेरे सपनो की
हर बार कैसे तू इस सब में इतने मज़े ले लेता है


ज़रा देख तो सही एक बार मेरी ओर और बतला मुझे
इस टपकते लहू की नदियाँ बह चली हैं
बूँद बूँद करके पूरी काया ढह चली हैं
मुरझाअए पत्ते सा मैं पड़ा न तेरे कदमो में
फिर भी तेरे चरणों में मेरी आहुति चढ़ चली है
फिर भी तेरे चरणों में मेरी आहुति चढ़ चली है
फिर भी तेरे चरणों में मेरी आहुति चढ़ चली है

Monday, August 1, 2011

रचना Copyright ©


कौन रचयता तुम्हारा, किसकी दिव्य रचना तुम?
कौन तुम्हारा वादक, किसकी हो वीणा तुम?
मुरझाए पत्तों में जान फूंकति, अमृत धारा तुम
इतने समय बाद मिली हो....अब ना हो जाना कहीं गुम


मैं मुरझाई शाख तर बतर होने को था आतुर
सौंदर्या पीने वाला , रहा था मैं सपने बुन
अपना प्याला रखा समक्ष तुम्हारे , बूँद एक छलका जाओ
मुस्कुराओ, खिलखिलाओ ऐसे चुप चाप ना बैठो तुम



पंख फैलाए मैं हूँ अथाह आकाश में , हो वो इंद्रधनुष तुम
नीलिमा आकाश की और संध्या की लाल गुर्राहट तुम
सागर तट का सूखापन और रेत समान मेरा चित्त
लहरों सा मुझे भिगो दो, पड़ा हूँ मैं विवेक हीन , सुन्न

दिए की बाति बना मैं दिए में बैठा हूँ
तुम धधकती ज्वाला , मैं घनघोर अंधेरा हूँ
जलने को तय्यार मेरी काया इस सौंदर्या अग्नि में
भस्म हो जाऊं तो क्या, मैं वो लौ प्रेमी पतंगा हूँ


अठखेली करती नदियाँ भी तुम्हारे यौवन से जलती हैं
तुम्हारी सुंदरता से तो चाँद को भी चाँदनी खलती है
गुणगान करूँ या ना मैं, यह प्रकाश तुम्हारा सर्वव्यापी है
इस सुंदरता को बनाए रखने को तो गंगा भी उमड़ति है.


तुम्हारा कर्तव्य था अपने नशे में ..हम जैसों को रमाये रखना
हमारा धर्मा था उस प्याले को कंठ से लगाए रखना
अमृत धारा बहने का धैर्या नही है अब मुझमे
प्याला मूह में अब तो और अपने शब्दों को उस लौ में जलाए रखना


जन्म जन्मान्तर का मिलन ईश ने चाहे ना लिखा हो
करने दो इन शब्दों से ही युगों युगों का अमृत पान
डूबने दो इस नीर वर्षा में मुझे आज
फूँक दो इस निर्जीव शाख में भी थोड़ी सी जान


रचयता भी नशे में होगा, तभी ऐसे बनी काया
मानव रूप में सौंदर्य को वो ऐसे गढ़ पाया
हे ईश मुझे वरदान दो कि एक बूँद में ही भीग जाऊं
कहूँगा सबसे मैं वर्षा में था भीग पाया


इस सौंदर्य को उम्र क्या क़ैद करेगी
इसकी लालिमा को क्या कोई चादर ढकेगी
ऐसे रचना तो कई जन्मों में एक बार रचता वो
इसकी निरंतरता तो अनंत काल तक बहेगी



समाने दो इस सौंदर्य की उष्ण गर्मी में मुझे
ज्वालामुखी सा ताप है अब मुझमे धधकता
अंत समय आए मेरा तो बस यह इच्छा मेरी
ईश में मिल जाऊं में इसे तकता तकता !!