Dreams

Monday, August 24, 2015

गुलाबी (c) Copyright

 
 
 
 
कर्तव्य और धर्म
प्रेम और कर्म
के मध्य एक
गुलाबी और नर्म
हिस्सा है
जिसका यह किस्सा है
जिसकी काया नहीं
जिसकी छाया भी नहीं
जो मूलाधार और सहस्रार
के बीच कहीं खो जाता है
जिसे कोई छू नहीं पाता है
जो तुम्हारे अस्तित्व का
निचोड़ है
तुम्हारी हँसी भी है
पीड़ा की मरोड़ है
जो कर्म और धर्म के
बोझ से परे है
जो ना सुन्न होता है
ना मृत्यु से डरे है
जो मर्यादा नहीं जानता
शाही चाल चलता है
जो प्यादा नहीं जानता
वो गुलाबी पंखुड़ी
हृदय नहीं है
सूर्योदय नही है
ना घनी रात है
ना कायनात है
वो बस है.
वो गुलाबी धधकता अंगारा
ज्वाला है
जिसे प्रत्येक प्राणी ने भीतर
संभाला है
वो विवेक नहीं है
विजयी अभिषेक नहीं है
वो प्राण है
और वो प्राण
तुम्हारे लिए जीवित है
आ जाओ.. मिल जायें
संग खिल जाएं

Thursday, August 13, 2015

प्रतिष्ठावान सावधान (c) Copyright

 
 
 
प्रतिष्ठावान सावधान
श्रमिक खड़े हैं
चुनौती देने
झूठी प्रतिष्ठा के सवारों को
धर्म के स्वघोषित ठेकेदारी
और सामाजिक काठ कबाड़ों को
भस्म करने आए हैं
श्रमिक के लहू से बनी
इन समृद्धि की नकली दीवारों को
मेरी पंक्तियाँ चिंगारी देंगी
इन गुस्सैल सुर्ख अंगारों को
गीत बनेंगी मेरी पंक्ति
श्रम बनेगा राष्ट्र गान
श्रापित श्रमिक को मिल
जाएगा फिर से जीवन दान
प्रतिष्ठावान सावधान
 

फिर गर्जेंगे सब्बल,
फावड़े, तसले और कुदाल
जिस पसीने ने नीव धरी
प्रतिष्ठा की
उसकी चोट के वार को
ज़रा संभाल
झूठे मान पे टिकी
सत्ताएं हिल जाएँगी
जो श्रम के पसीने से
ना सिंची हों वो
व्यवस्थाएँ मिट्टी में
मिल जाएँगी
हाथ ना मैले करे जो
और बन जाए यूँ ही प्रधान
ऐसी पगड़ी को ठोकर, कह दो
प्रतिष्ठावान सावधान
 

युगों योगों तक राज किया है
ऐसे नकली समृद्धों ने
हंसों को ही धर दबोचा
इन लहू चूसते गिद्धों ने
पर सिखाया हमे ही झुकना
दादा, परदादा, हमारे ही वृद्धों नें
और नीति, न्याय के पोतों में
अंकित किया ये भेद
खरीदे हुए ही सिद्धों नें
जो श्रम करे वो ही अब
मान पाए
जो विलासी अलसाए ठूंठ बने हैं
पशु ही अब कहलाएँ
परिश्रम ही प्रगति
श्रम ही अब धाम
महनती ही पुजारी
मेहनत ही भगवान
प्रतिष्ठावान
सावधान
प्रतिष्ठावान
सावधान