Dreams

Tuesday, December 11, 2012

गोली की रफ़्तार से Copyright©



मैं संभल संभल के पग रखता था, डरता था मैं हार से
कंधे झुक गये थे मेरे, जग की अनगिनत उम्मीदों के भार से
रेंग रेंग के जीता था मैं , फूक फूक के बढ़ता था
पर जीवन निकल रहा था मेरा गोली की रफ़्तार से

धैर्य धरा मैने और जला भी मैं समय की अंगार से
घबरा भी गया मैं इस संसार के विशाल आकार से
कविता रूप  जीवन माँगा था मैने विष्णु के अवतार से
पर जीवन दिया उसने जिसे चलना था गोली की रफ़्तार से

बाल समय बीत गया, अनुशासन की मार से
यौवन वृद्धा गया हो जैसे पैसे की पुकार से
गिरता फिर संभलता, फिर गिरता मैं आगे ही बढ़ा था थोड़ा
पर जीवन गतिमय हुआ और पुनः निकल गया गोली की रफ़्तार से

अब नही जाने दूँगा इसे, रंग जाऊँगा इसे अपने विचार से
कुछ शब्द पुष्प खिलाऊँगा अपनी कविता के उच्चार से
इतिहास रचना होगा इन्ही कुछ पलों में मुझे
नही तो जीवन निकल जाएगा फिर गोली की रफ़्तार से

कुछ दिलों में छाप छोड़ूँगा, उद्धार से
किसी को सीने से लगाऊँगा, प्यार से
दंद्वत हो जाऊँगा, किसी के चरणों में ..आभार से
कुछ बिछड़ों को बुला लूँगा अपनी कविता की पुकार से
पल पल में जीवन है , जी लूँगा उसे जी भरके
डरूँगा नही जीवन की ललकार से
जो कहता है हर दम....कुछ कर नही तो
निकल जाऊँगा मैं..गोली की रफ़्तार से

Tuesday, November 6, 2012

हम भी केजरीवाल हैं !Copyright©



भारत माता के हैं सपूत हम
हम भी उसके ही लाल हैं
हम भी गाँधी, हम हैं अन्ना
हम भी केजरीवाल हैं
काशमीर की धरा तोपों के गोलो से
हैं गूँज रही
मगर दिल्ली को अब भी बस राजनीति है सूझ रही
करना होगा कुछ हमको अब इन दिल्ली के आदमख़ोरों का
इटली की मायादेवी का, पगड़ी वाले मोरों का
लेनी होगी बागडोर देश की इन सत्ता के ठेकेदारों से
यादव जी से, मोदियो से, और शरद पंवारों से
भारत माता के हैं सपूत हम
हम भी उसके ही लाल हैं
हम भी गाँधी, हम हैं अन्ना
हम भी केजरीवाल हैं

पड़ोसी के आतंकी झांपढ़, प्रण लो अब ना खाएँगे
प्राण दे देंगे मगर दूजा गाल अब ना दिखलाएँगे
दो हाथ मे सरकार हमे, हम तुम्हे कर के बताएँगे
सीमा छोड़ो, इस्लामाबाद मे जाके हम तिरंगा लहराएँगे
सेनाओं के कदमो से अब दिल्ली हिल जाएगी
दिल्ली मे बैठे बाबूओं को हम केसरी स्वाद चखाएँगे
खून चूसते बगुलों को अब पवन हंस बनाएँगे
हथकंडों को इनके हम इनके ही हाथ से जलाएँगे
इनकी काली काया को सरे आम नीलाम करवाएँगे
बदल देंगे अब यह दो दिल्ला का हाल है
भारत माता के हैं सपूत हम
हम भी उसके ही लाल हैं
हम भी गाँधी, हम हैं अन्ना
हम भी केजरीवाल हैं

सजने धजने का समय नही है, समय है कफ़न ओढ़ने का
धारा के संग ना बहने का, धारा को है अब मोड़ने का
जो चुप बैठा हिन्दुस्तानी अब तो फिर गुलाम हो जाएगा
जैसे अँग्रेज़ों से किया था, यह अब खुद ही जकड़ा जाएगा
यह समय नही है सैलाबों से डरने और बिलकने का
ना है आते तूफान को हाथ जोड़ के तकने का
हम ही जवाब हैं हम ही अब सवाल हैं
भारत माता के हैं सपूत हम
हम भी उसके ही लाल हैं
हम भी गाँधी, हम हैं अन्ना
हम भी केजरीवाल हैं

चुप चाप बैठी सेनानियों की टोली को बोलो
वो ही बग्नख , वो ही बाघ की अब छाल हैं
वो ही बरछी, वो ही कटारी, वो ही अब ढाल है
गीता के सार को समझो, युद्द ही वीरता का प्रमाण है
तुम्हारे हाथ में ही धनुष है, तुम्हारे हाथ मे ही बाण है
आपस मे हम जुड़ जायें तो हम सेना बड़ी विशाल हैं
भारत माता के हैं सपूत हम
हम भी उसके ही लाल हैं
हम भी गाँधी, हम हैं अन्ना
हम भी केजरीवाल हैं

Saturday, November 3, 2012

मोहब्बत क्या है?Copyright©



यदि मेरे तुम्हारे जीवन मे होना भर काफ़ी नही तो तुम्हारा प्रेम
व्यर्थ है
यदि मैं ना हूँ और तुम फिर भी प्रसन्न हो तो तुम्हारा प्रेम व्यर्थ है
मेरे बिना यदि तुम जी सकती हो तो प्रेम कहाँ
मेरे बिना तुम मुस्कुरा सकती हो तो फिर प्रेम कहाँ

दीवानगी किसे कहते हैं पूछो हमसे
पागलपन ना हो मोहोब्बत मे तो वो मोहोब्बत बेकार है
ना दीवानगी बिना प्यार हम करते हैं ना हमे ऐसा तथाकथित प्रेम स्वीकार है

प्रेम होता है बादल और सूखी धरती के बीच
बादल बरसने का वादा करता है और धारा इंतेज़ार करती है
बादल बरसता है धरती की खातिर
और धरती उस पानी से ही बस आबाद होती है

प्रेम होता है अंधेरे और उजाले के बीच
रात की बर्फ़ीली ठंडक को सूरज अपनी गर्मी से तृप्त करता है
रात अपनी ठंडक से सूरज का पसीना पोंछती है
ना रात के बिना उजाला उजाला होता है, ना उजाले के बिना रात रात होती है

प्रेम हो ऐसा कि महबूब बिना हर महल खंडहर लगे
क़ि महबूब संग एक बूँद भी सागर लगे
वो हो तो हर फूल महके
ना हो तो दुनिया कारागार लगे

तो ए मोहोब्बत करने वालों
तब तक प्रेम ना मानो जब तक महबूब  
का जीवन तुम्हारे बिना अधूरा
और उसके बिना तुम्हारी ज़िंदगी खाली लगे

यदि तुम उसके बिना जी सकते हो
तुम मोहोब्बत नही कर सकते

लोग कहते रहे कि प्रेम की भाषायें भिन्न होती हैं
हर किसी के जताने का तरीका अलग मगर
मोहोब्बत आज भी मोहोब्बत है
मोहोब्बत आज भी मोहोब्बत है
यह ना बदली है, ना बदलेगी
अंधेरे का ख़ालीपन केवल उजाला मिटाएगा
धरती की प्यास , केवल बदल से ही बुझेगी

Monday, October 29, 2012

रिक्त स्थान Copyright©



रिक्त स्थान

मेरे जीवन की पंक्ति में
जो रिक्त स्थान हैं
उसे मैं भरने निकला था
आश्वमेध का प्रचम लहराया मैने
समय के रुख़ को मैने बदला था
कभी मेरे क्रोध से
सूरज तक भी पिघला था
शिखर चढ़े मैने
चोटी के अभिमान को मैने तोड़ा था
धाराओं के रुख़ को भी मैने हाथों से अपने मोड़ा था
मगर वो रिक्त स्थान जीवन का, अब भी भरा नही था
ना जाने किसके लिए मैने उसे अब तक छोड़ा था


फिर त्याग सभी को मैने मन के अंदर भी झाँका
ईश को पुकार लगाई , आकाश को भी ताका
रिक्त फिर भी था मन, रिक्त थी अब भी जीवन की पंक्तियाँ
लाख जतन किए मैं भर ना पाईं कोई शक्तियाँ
फिर एक दिन स्वप्न मे तेरी पायल की झंकार सुनी
तेरे केशों के साए मे मैने मीरा की पुकार सुनी

इतने करतब किए मैने , ना जाने कितनी पीर सही
रिक्त स्थान को कैसे भरना है, मुझे था ग्यात नही
जब तुम गयी जीवन से तो मुझको मालूम हुआ
तुम जीवन अमृत थी पर मैं औरों मे मशगूल हुआ
आदि से प्रेम नही, प्रेम से आदि है
बाकी सब व्यर्थ बाकी सब 'इत्यादि ' है

आ जाओ मेरे जीवन मे फिर, मैं रिक्त स्थान भरना चाहता हूँ
तुम्हे पूजने के सिवा, बाकी सब को 'अतिरिक्त' करना चाहता हूँ

Tuesday, October 16, 2012

हिम्मत की ढाल Copyright©


आक्रमण का ना भाला दे चाहे
पर हिम्मत की तू ढाल दे
मयूर नृत्य की ना दे क्षमता
पर मृग जैसी तू चाल दे
हे परमेश्वर सब प्रश्नों के उत्तर ना हों
पर तू सही मुझे सवाल दे
आक्रमण का ना भाला दे चाहे
पर हिम्मत की तू ढाल दे

गुमनामी के सौ बरस नही

जगमगाते साल दो साल दे
सबके दिल मे बस जाऊं
ऐसे शब्दों को ताल दे
ना फ़र्क पड़े मुझे निंदा से
गैंडे जैसी तू खाल दे
आक्रमण का ना भाला दे चाहे
पर हिम्मत की तू ढाल दे

पहुँचू मंज़िल पे चाहे धीरे ही
चाहे कछुए की चाल दे
थकने ना पाएं कदम मेरे
ऐसा कुछ कमाल दे
सब को वश मे करलूँ मैं
ऐसा माया जाल दे
आक्रमण का ना भाला दे चाहे
पर हिम्मत की तू ढाल दे

आक्रमण का ना भाला दे चाहे
पर हिम्मत की तू ढाल दे

Wednesday, October 3, 2012

अतुल्य Copyright©



वो तुल जाता इस तरज़ू में
जो तुलने के लिए जीता है
जग के मापदंडों मे जो
जलने के लिए जीता है

तोल मोल के बोलता जो
वो मोल से तोला जाए
जो मन की बोले, खरी बोले
निर्भेक स्वर उसका अतुल्य कहलाए

महापुरुषों से तुलने को जो हो उत्सुक
पलड़ा भारी अपना करने का जो हो इच्छुक
ना महापुरुषों मे गणना होगी उसकी
ना ही भार सह पाएगा
जो अपनी राह स्वयं बनाए
वो ही अतुल्य कहलाएगा
महापुरुष अपने काल मे कुछ
ऐसा ही कर जाते हैं
जिसकी तुलना काल के पलड़े
अनुमान ना लगा पाते हैं
भय हार का ना होता इनको
ना लालसा होती पुरूस्कार की
ना भारी होने का मान इनको
ना ज़रूरत आभार की
दर्शन इनका भिन्न सभी से
होता इनमे रहस्यमयी ज्ञान अमूल्य
तुलने तोलने को यह रहने देते
हरदम रहते यह अतुल्य

समाज की देन है "तुलना"
ईश का नही वरदान
ईश तो चाहे केवल हममे
उस जैसा प्रथिमिंब महान
तो ना तुलना कर तू मानुष से
ना लगा अपने जीवन का मूल्य
राह पकड़ तू अपनी ,और
बना स्वयं को तू अमूल्य
बना स्वयं को तू अमूल्य



Thursday, September 13, 2012

तुम तो वहाँ हो, तुम क्या समझोगे........नॉन रिलाइयबल इंडियन" Copyright©

पिछले दीनो, एक मित्र को फोन लगाया , और कुछ राजनैतिक गतिविधियों पे बातचीत चालू हुई, आधे घंटे चर्चा करने के उपरांत उन महाशय की एक टिप्पणी ने अकस्मात फोन काटने पे विवश कर दिया :

"तुम तो वहाँ हो, तुम क्या समझोगे... नॉन रिलाइयबल इंडियन "

"तुम तो वहाँ हो, तुम क्या समझोगे", यह वाक्य कई बार सुनने को मिलता है मुझे| हर बार जब ईंधन के दाम बढ़ते हैं या फिर करोड़ों के घोटाले के बाद प्रधान मंत्री कठपुतली कठपुतली खेलते हैं या सरकारी दामाद बने बैठे माननीय कसाब जी पाँच सितारा जेल मे रोटी तोड़ते हैं, और मैं कुछ सुझाव हूँ, तो यह ही वाक्य बोला जाता है | प्रवासी भारतीय भी भारतीय होता है महाशय! माँ को कष्ट होता है तो पुत्र ,चाहे जहाँ हो, उसे पीड़ा होती ही है| भौतिकवाद के इस मज़मे मे, जहाँ सब अपना उल्लू सीधा करने के अवसर ढूँढते हैं और अवसर ना मिले तो सरकार,आतंकवाद, भ्रष्टाचार और सामूहिक मतभेद को कोसते हैं, मैं भारत मे ना रहते हुए हिन्दी भाषा के प्रति प्रेम, भारत की ओर स्नेह और भारतीय लोगों के बीच में अपना काम कर रहा हूँ| मैं टिप्पणी करता हूँ, क्युंकि मैं भी देख रखा हूँ यह मजमा| आवाज़ उठा रहा हूँ, व्यक्तिगत विचारों की अभिव्यक्ति मेरा संवैधानिक अधिकार है, ठेस पहुचना नहीं| सभी की तरह, मेरी भी एक आवाज़ है जो कोसने से पहले मार्गदर्शन का कार्य करती है| सामाजिक , राजनैतिक, वैचारिक गतिविधियों पर व्यक्तिगत प्रतिक्रिया करने, और निवारण ढूँढने की इच्छा लिए, एक आवाज़|

कवि कौन है

अपनी कल्पनाओं की पतंग

को जो दूर गगन में

उड़ा दे

या समाज का प्रतिबिम्ब?

महकते फूलों के रंगों को

अपनी कलम से जो सजा दे

या फिर उस युग का दर्पण?

कलाकार या मुखौटा?

दर्शक या प्रश्न चिन्ह?

नए युग की ओर बढ़ते कदम का आघाज़

या फिर मूक हो गयी आत्मा की

आवाज़!


आवलोकन करने और

व्यक्त करने के बीच का सेतु

या फिर सोये हुए ज़मीर को जगाने

का धूमकेतु

इक आवाज़ जो हर प्रकार के मानव

को उसका चेहरा दिखा सके

और सुन्दरता या कालिक पुते चेहरे को

हर एक तक पंहुचा सके

प्रेम ग्रन्थ हो या दर्शन शास्त्र

की शैली

या फिर हसाते हसाते व्यक्त

कर दे वो जो है मैली

जिसे भय न हो पाठक का

न हो लज्जा तिरस्कार की

न हो ख्याति का लालच

न लालसा पुरूस्कार की

बस एक आवाज़ हो

जो भेद सके हर ह्रदय को

और पिरो दे एक सूत्र में

सारी भावनाएं, हार और विजय को।


आवाज़ को चाहे कोई दबाये

या फिर उसके कम्पन को कोई छुपाये

उस ओमकार की न छुप सकेगी ध्वनि

क्युंकि हर मानव में वो

थरथराता है

सोये हुए विवेक को वो ही जगाता है

और पत्भ्रष्ट हो गयी सभ्यता को

वो ही राह दिखता है

भंवर में फसे समाज की नय्या

वो ही पार लगाता है

वो ही पार लगाता है

वो ही पार लगाता है!

मैं एक भारतीय नागरिक हूँ, भारत में पला-बढ़ा, भारत की भूमि का उतना ही लाल हूँ जितने सब हैं, मेरे अमेरिका मे रहने, काम करने और माँ-पिताजी को पैसे भेजने को ~ भगोड़ा, अमेरिका के रंग मे रंगने, देश द्रोही करार देना सरासर अनुचित है|
भारतवर्ष की सभ्यता, उसकी जटिल संरचना का प्रतीक, प्रत्येक भारतीय है, देश-विदेश में इस सभ्यता को दर्शाता एक दीपक है| परंतु यदि उसके घर मे आग लगी हो तो सबसे पहले उस आग को बुझाने का कार्यभार भी उसका है| उसके तरीके पे ऐसी टिप्पणी करना अपने भाई को गाली देने समान है|

एक आधुनिक विचार यह भी है ,"बदलाव लाने के लिए आपको स्वयं बदलाव का हिस्सा होना पड़ता है,"एकदम सही, परंतु मैने एक दिन एक प्रयोग किया, एक पुस्तक को अपने चेहरे के निकट लाया और पढ़ने का प्रयास किया, नही पढ़ी गयी| कभी कभी सिस्टम के अंदर रहके आप उस सिस्टम के ज़ंग लगे पुरज़ो को नही देख पाते, रोग का निवारण करने का सबसे पहला कार्य है उसके मूल का पता लगाना, निवारण तभी सबसे अधिक लाभदायक होता है जब औषधि के लक्ष्य की पहचान हो| कई प्रवासी भारतीय उस मूल को बाहर से देख पाने का प्रयास कर रहे हैं.

इसी सिक्के का दूसरा पहलू है, कि अधिकतर प्रवासी भारतीय अपनी व्यक्तिगत परेशानी, सुनहरे सूरज की तलाश, या केवल अपना पेट, जो भारत मे नही भरा था, भरने, भारत से दूर अपना घरौंदा बसाते हैं| परंतु वो भी इन टिप्पणियों के पात्र नहीं | टिप्पणी उनपे करो जो अपने घर का सम्मान बचाने से पहले दूसरे के घर की लूटी आबरू पे उंगली उठाते हैं|

मुझे भारतीय होने पे गर्व है, परंतु मेरी माँ ने मुझे यह नही सिखाया कि मैं अपनी पड़ोसी को बुरा भला कहूँ. यदि मैं पड़ोसी के घर गया हूँ तो मैं अपनी माँ द्वारा दिए संस्कारों का पालन करूँगा, सम्मान दूँगा, प्रणाम करूँगा, तहज़ीब से खाना खाऊंगा, और इस तरह से अपने घर आने का न्योता दूँगा ना कि उनके घर जाके उनकी निंदा करूँगा, मेरी भारत माँ ने मुझे यह सीख नही दी है | मेरा घर मेरा है, और हरदम रहेगा, किसी के घर जाके उसी घर की निंदा करना, मेरे घर की इज़्ज़त नही बढ़ा रहा| अपने घर की परेशानी मैं बखूबी समझता हूँ, समय आने पे उसके निवारण का उपाय भी देता हूँ| तो रिलाइयबल या नॉन रिलाइयबल का ठप्पा, कृपया ना लगायें, अपना कार्य करें, तरकीब लगायें, औरों की उपलब्धि और अपनी जलन पर रिलयबिलिटी का चोगा ना पहनायें|

तो महोदय, मेरे प्रवासी भारतीय होने को आप, मेरी व्यक्तिगत इच्छा, मेरी भारत की तेज़ी से ना चल पाने की कमी या फिर विश्व देखने की लालसा कह सकते हैं, गद्दारी, देशद्रोह ,भारत की परेशानियों से दूर पलायन करता भगोड़ा नही!

हर प्रवासी भारतीय की ओर से ~

जय हिंद!



Monday, August 27, 2012

विजय गीत Copyright©




मेरा शक़ यकीन में बदला है
मेरा भाग्य, कीचड़ मे कमल सा चमका है
सोने का सही परंतु मेरे गले मे
अकेलेपन का तमका है

जब मैने अपनी राह तय की थी
और ठानी थी अग्रसर होने की
जब मुझे ग्यात था, कि
बात ज़रूर निकलेगी काँटों पे सोने की
और जब मैं फिर भी निकल पड़ा था सफ़र में
सोचते हुए कि राह पकडूँगा अकेला मगर
पीछे हो लेंगे हमसफ़र
मैं हाथों में दीप ले कर चलूँगा
और दूर होगा अंधकार
मेरे सपने लेंगे आकार
पीठ थपथपाएगा संसार
मगर ना मालूम था कि
जिनके आगे चल रहा था मैं
उनकी ओर मेरी पीठ थी
खंजर उनका था, और यह ही रीत थी
कि जो आगे होगा उसे जीत का सेहरा तब मिलता है
जब पीछे वालों से उसका आगे होना ना झिलता है
और वो ऐसे खंजर मारते हैं जिससे आगे वाला
पीछे मुड़कर देखे
और उसके इस बात पे पीछे वेल आँखें सेकें

तो जीता हूँ मैं, परंतु हूँ अकेला
जीत एक मानसिक स्थिति है, ना कि मेला
काँटों की शय्या है, ना कि फूलों के बेला
जीत कहिए तो तय्यार रह
झुंड मे नही, अकेला बह
अकेले पं के झांपड सह
पर चल, रुक मत,जीत
"मैं जीता हूँ, अकेला हूँ, पर जीता हूँ"
यह कह


Sunday, June 24, 2012

ऐंठ गया .. कि बैठ गया? Copyright©



जब काले मेघ छाए
और आकाश की छाती फटी
बिजली ने मचाया शोर
केवल अंधेरा ही था चारों ओर
तम के साए से था जीवन सराबोर
जकड़ा था मन को जब डर घनघोर
पथिक बता तूने क्या किया
ऐंठ गया कि बैठ गया?

जब सारे पुल चूर हुए
जब सपने तुझसे दूर हुए
जब नावें सारी डूब गयी
जब किस्मत तुझसे ऊब गयी
जब धारा तेरे विपरीत बही
जब अकेला था तू साथ नही
पथिक बता तूने क्या किया
ऐंठ गया कि बैठ गया

जो बैठ गया तू तो
सिंघासन कैसे पाएगा
कैसे तू जले बिना
जग को चमका पाएगा
ऐंठ किस्मत के आगे
ललकारेगा जब परिस्थितियों को
ऐंठ जब विपदा के आगे
तोड़ेगा जब मापदंडों को
तब उतरेगा ईश और बोलेगा तुझसे यह
मैने परखा है तुझको
और अब यह मैने जाना है
तू महापुरुषों की श्रेणी मे है
और महान तुझको माना है
तूने हार ना मानी
तूने छाती अपनी हरदम तानी
जब मैने काँटे रखे तो
समझा के तू अब बैठ गया
पर तूने कांटों से राह बनाई
तू किस्मत पे ऐंठ गया

तो पथिक ना घबरा और
ना सोच कि सब बैठ गया
जब चुनने का मौका आए
दिखला देना सबको कि तू
बैठा ना पर ऐंठ गया
तू बैठा ना पर ऐंठ गया
बैठा ना पर ऐंठ गया.

Monday, June 18, 2012

कैंची Copyright©


हवायें कैंची लेके उतरी हैं
तेरे पंख कुतरने
उड़ पाने की चाह से पहले ही
मंसूबे जकड़ने
घबरा ना ए परिंदे
आसमानों को चीरेंगे तेरे पंख
सातों आसमान है तुझे अभी पार करने

हवाओं को गुस्से से बवंडर होने दे
हवाओं को ईर्षा से साज़िश रचने दे
तेरे परों के फैलाव को ना जाकड़ पाएँगी यक़ीन रखना
हवाओं को ज़हरीले फंदे कसने दे

कैंचियाँ तो उड़ान रोकने के लिए ही होती हैं
तू उड़ान पे ध्यान दे
कैंची की धार तीखी है
पर तू आसमान पे ध्यान दे

अपनी निगाह ऊँची रखना हरदम
अपनी उड़ान सच्ची रखना हरदम
यह हवायें कुछ कर ना पाएँगी
तू अपनी नीयत अच्छी रखना हरदम

Monday, June 11, 2012

Friend Request Sent... Copyright©

Friend request sent.

With the declining physical social circles and burgeoning online social networking, it is very difficult to befriend someone these days. When I was young(er) and was beginning to “see” people, I would easily walk up to a person and start talking. Soon he would be an acquaintance, then a friend and then a close friend. That’s how things worked. I have many friends who I have befriended in trains, buses, bus stops, tea stalls and admittedly in public toilets. Times have changed. A simple “Hello” or “Namaste” which would otherwise bring a smile to a stranger’s face has conveniently transformed into a “dude stay away from me or I will ‘report abuse’”. Online social acceptance is readily available to beautiful faces, interesting female profiles and well known personalities. Ten years ago it would be easier to go talk to a stranger on a bus stop than approaching a celebrity. That scenario has reversed. I could probably catch a celebrity’s attention than the damsel’s who lives next door.

The statement “I don’t go for looks” is a farce. Today, people do judge the book by its cover, if the “cover” is not appealing, it’s not accepted. There have been many situations when I have “sent a friend request” for no other reason but because I like what the other person expresses or their interesting comments, but I feel insecure that maybe one day I would be subject to “report abuse” and my social networking profile page will be removed permanently. Fortunately or otherwise, I manage to display a picture which is blurred enough not to display the scars on my face or the color of my skin and have managed to be “accepted” by the small number of people I send friend requests to. I write, and admittedly, social networking sites have assisted in spreading my work to distant corners of the globe where I would otherwise not be able to present my work but nine out of ten times, I do consider sending a request and adding someone to my three thousand odd numbered friend list, I shiver. I shiver because I know that one person can report abuse and bring my writing career to an end. I am not a celebrity yet, this would not happen if I was one, I think. 

I am also skeptical in sending these requests to co-workers who I otherwise chit-chat and talk to daily. My apprehension comes from the fact that I could encroach someone’s privacy and people who just show that they are so affable on my face but are commenting on my dressing on these sites later, don’t want me to know about it.

On the flip side, due to some characters that abuse the comfortable provisions of these websites and make fake profiles, attach fake photos and trouble people, and like the physical world, the cyber world too is being filled with fear. Fear of being stalked, abused, or defamed. It could be argued that one must have the freedom to choose one’s online company, however it can also be argued that a person’s freedom to approach someone just out of curiosity should not be deemed “unacceptable”.

Accepting or rejecting a person based on the repugnance towards his or her profile picture has become the norm. It could almost be termed as apartheid against which our forefathers have fought many a battle. Sadly, it has again crept into our lives… our online lives.

I speak only through observation; I do not target any particular sex, community, creed, race or religion when I speak of this selection based on one’s profile picture. It is forcing people to display who they are not. Everyone is not born the same, they don’t look the same but let there be no distinction due to it: We are still humans, even though we are becoming more of cyber beings.

The basis of clicking Accept” must not be another discriminating act; we could see a whole new movement and discrimination could again explode, like in history.

Accept?

Sunday, June 10, 2012

गद्दारी Copyright©

तेरी चुप्पी को मैं तेरी सफाई मान बैठा
इस दूरी को मैं खुदा की खुदाई मान बैठा
तेरे लिए जो मेरे दिल मे मोहब्बत है
उसे मैं अपना खर्चा, तेरी कमाई मान बैठा

मेरी इश्क़ की मजबूरियों का कितना फायदा उठाया तूने
मैने आँसू बहाए तूने उन से भी गर्रारे कर लिए
मैने तो मोहब्बत का हल्का सा झोंका भेजा था तेरी ओर
तूने अपने मंसूबों के उस से गुब्बारे भर लिए

क्या खरीद फ़रोख़्त का ये सिलसिला तेरे बाज़ार मैं ऐसे ही चलता रहेगा?
मेरा नीलाम दिल क्या यूँ ही तेरे हाथों बिकता रहेगा?
मैने मोहब्बत की है तुझसे, तुझे यह यकीन दिला दूं
यह परवाना तेरे इश्क़ की शम्मा में हरदम जलता रहेगा

मैने काई तरह की नज़्म लिखीं, 
सोच के कि एक दिन यह मशहूर शायरी होगी
मगर जब तेरे इश्क़ की स्याही में कलम डुबोई तो एहसास हुआ
कि अब तेरे इश्क़ के अलावा कुछ और लिखूंगा तो उस इश्क़ से गद्दारी होगी


कि अब तेरे इश्क़ के अलावा कुछ और लिखूंगा तो उस इश्क़ से गद्दारी होगी

Friday, June 8, 2012

बेचैनी Copyright©



जब धरती सूखी हो तो बादल उसकी बेचैनी अपने आप समझता है
जब प्यासा मृग भटकता है तो पानी उसकी बेचैने अपने आप समझता है
मैने भी सोचा था की मेरे मन की बेचैनी तुम समझोगी अपने आप ही
मगर एक तड़पते दिल की बेचैनी , बस एक तड़पटा दिल ही समझता है

तुमसे दूर रहने की कसम को निभाने का हमे कोई गर्व नही
तिल तिल तड़पते रहने और आँसू बहाने का हमे कोई गर्व नही
तुम दूर होती हो तो मैं ईश से दूर होता हूँ
तुम्हे याद करने से ऊपर हमारे लिए और कोई पर्व नही

जब मिलोगी, कुछ कहना मत, बस सीने से लगा लेना
जब मिलोगी तो इस सूखी धरती को प्रेम वर्षा मे भिगा देना
मैं ऐसे ना जी पाता हूँ, ना मर पता हूँ
गले ना लगा पाओ, ना भिगो पाओ तो बस ज़हर पिला देना

जुदा रहने में इश्क़ की खुश्बू और तेज़ हो जाती है, कहते हैं
जुदा रहने में एक दूजे के लिए इज़्ज़त बढ़ जाती है, कहते हैं
हमे ना खुश्बू से प्यार है, ना इज़्ज़त का लालच
जुदा रहके प्रेम अमर होता है, प्रेमी मार जाते हैं, कहते हैं

तुम्हारे सीने की गरमी, तुम्हारे बालों की खुश्बू, तुम्हारी अदा का कायल
तुम्हारे काजल का रंग,तुम्हारे बोलने का ढंग,तुम्हारे पैरों की पायल
मुझे आशिक से शायर बना रही हैं, शायर जो कल्पना करता है
शायरी ले को, कल्पना ले लो, पर सीने से लगा लो, मेरा दिल है इतना घायल

अब कब आना होगा, कब मिलॉगी मुझे बता देना
मैं फिर कब जी पाऊंगा , मुझे बता देना
मेरा हृदय रोता है, मेरी आत्मा मुरझा रही
मेरे आंसू मोती कब बनेंगे तुम्हारे लिए, बता देना

Wednesday, June 6, 2012

टीस Copyright©

जब तक टीस ना उठे दिल मे तो प्रेम कैसा
जब तक धड़कनें ना रुकें तो प्रेम कैसा
दिल के एहसास का समंदर कोई देख नही पाता
पर गर 'वो' ना महसूस कर सकें तो प्रेम कैसा

मन रोया उनकी याद में पर हमने आँसू ना छलकाए
सुन्न होने का एहसास हम किसी को जाता भी ना पाए
उन्होने समझा या नही,हमे कभी मालूम ना होगा
उनके दर्द का अनुमान हम भी तो लगा ना पाए

कह देने से केवल मोहोब्बत जताई नही जाती
फूलों से भी उसकी सेज सजाई नही जाती
हमारा जीना प्रमाण है उनसे मोहोब्बत का
कितनी कोशिश की पर यह जान जाए नही जाती

शर्त रखी थी उन्होने- हमारी मोहोब्बत को नाम नही देंगे
उसे गुमनान रखेंगे, अंजाम नही देंगे
उनसे दूर रहने की कसम जो हमने खाई थी
कसम है -उस कसम को रखने की कोशिश को कभी आराम नही देंगे

Monday, June 4, 2012

मयूर नृत्य Copyright©

 
मन के गिद्धों ने मन के मयूरों को नोच डाला
सीने में पंजों के खंजर और पीठ पे चोंचों का भाला
तड़पत जाए मोर, पंख ना फैला पाए
सावन लहू लुहान, बरखा करे मन में तेज़ाबी छाला

मयूर मुस्कुराया, गिद्ध हुआ हैरान
पूछा , मृत्यु के घाट पे है तू निकल रहे तेरे प्राण
तू मुस्कुराए कैसे, कैसे है चेहरे पे मुस्कान
मयूर की लहू लुहान अंगड़ाई का आनंद उठाता गिद्ध भी घबरा गया
पीछ हट वो एकाएक शरमा गया

' जब मन मयूर हुआ था तो पंख फैले थे बिना सावन,
मन मयूर नृत्य सा सुंदर था, हुआ था निर्मल पावन
गिद्धों ने तो पहले भी हत्या का प्रयास किया था
गिद्ध केवल दशानन हो पाया, हो पाया केवल रावण
मैं तो राम हूँ, निरंतर बहुँगा
चाहे तू तीर मारे मैं सब सहूँगा
हे गिद्ध तुझे अपने लहू का रस पान इसलिए करवाया है
क्यूंकी चाहे तू हो रावण चाहे दशानन
तेरे भीतर भी 'श्री राम' समाया है
मेरा लहू पीकर तू भी मयूर हो जाएगा
मैं फिर सावन आते नाचूँगा
और तू मेरे संग पंख फैलाएगा!!"

Tuesday, May 8, 2012

राजधानी Copyright©



इस शहर से नाता जुड़ा है कई कई डॉरो का
यह है घर नेताओं का भी और है घर यह चोरों का
यह है घर खादी के उन उधड़े हुए छोरो का
इटली का बागीचा और पगड़ी वाले मोरों का

खरीद फ़रोख़्त का बाज़ार यह, है जागीर धंधे वालों की
है भारत की नस भी और है तासीर झंडे वालों की
सत्ता का मजमा लगाते रंगीन ठेकेदारों की
कुर्सी की चाहत में गला घोंट फंदे वालों की

यहाँ राष्ट्रा का संसद में सम्मान लूटा जाता है
फरक नही पड़ता किसी को, किसी के बाप का क्या जाता है
अपना काम बने तो हर अपमान यहाँ सहा जाता है
और धोती कुर्ता पहन हर चोर, सम्मान यहाँ पे पाता है

न्यायालय का गढ़ है यह, और क़ानून जैसा ही अँधा है
हर एक जेब में तरकीब यहाँ पे, हर में गोरखधंधा है
शर्म नही है, हया नही है, इस हमाम में सब नंगा है
हर गली मे बारूद बसा है, हर मोहल्ला एक दंगा है

जब शपथ ली थी देश के हुक्मरानों ने
इसे राजधानी की दर्ज़ा दिया था, काई शहीद जानों ने
ना जाने कहाँ वो क़ुर्बानी चली गयी इतिहास की खानो में
अब केवल चीखें ही गूँजती हैं बस कानो में

दिल्ली दिल है भारत का, महफ़िल है शहेंशाहों की
आभूषण है कमर का, बाज़ूबंद है बाहों की
इसे महबूबा रहने दो, ना बनाओ इसे धंधे वालों की
गले लगाओ इसे, और बनाओ इसे दिलवालों की

Tuesday, May 1, 2012

जुर्रत Copyright©




जो दबते रहे उन्हे दबाया गया
जो रोते रहे उन्हे रुलाया गया
हुक्मरानो के चाबुक के डर से दुबके
वो डरते रहे जिन्हे डराया गया

जिसने ना दबने की जुर्रत की, उन्हे भी दबाया गया
जिनका सर अब ना झुकता था, उनका सर कलम करवाया गया
जिनके आँसू अब खून होने लगे,
उनका जीवन उसी खून मे डुबॉया गया

पर जो जुर्रत करते हैं
वो तख्त पलटते हैं
जो जुर्रत करते हैं
वो हवा का रुख़ बदलते हैं
सहनशीलता अलग मार्ग है
पर जो जुर्रत करते हैं वो ही
बुद्ध बनते हैं

कर तूफान के मूह पे दहाड़ने की जुर्रत
कर बवंडर को उधेड़ने की जुर्रत
कर बादशाहों को ललकारने की जुर्रत
कर भाग्या को भयभीत करने की जुर्रत
कर नये रास्ते अपनाने की जुर्रत
कर समय को ढालने की जुर्रत
कर आकाश मे कील ठोकने की जुर्रत
कर हवा के महल बनाने की जुर्रत
कर सागर को चीरने की जुर्रत
कर आग से नहाने की जुर्रत
कर नियम तोड़ने की जुर्रत
नये नियम बनाने की जुर्रत
कर जुर्रत

तेरी जुर्रत किसी और का मार्ग बनेगा इक दिन
तेरी जुर्रत इतिहास रचेगा एक दिन
जुर्रत नही की तो तू भी
गुमनामी से नही बचेगा एक दिन.

तो कर जुर्रत
कर जुर्रत
कर जुर्रत.

Thursday, April 19, 2012

अनुराग कश्यप तक कैसे पहुंचाऊं ? Copyright©




अनु बाबु, हम भी लिखते हैं
हमारे भी सपने कौड़ियों के दाम बिकते हैं
सपने साकार करने का यह जो भ्रम है
सत्य यह ही है
अक्षर ही ब्रह्म है







सोचा आप को लिख के देखता हूँ
कविता के माध्यम से ही सही
थोड़े विचार फेंकता हूँ
मेरे शब्दों पे आपकी नज़र दौड़े
उस गर्मी से अपने सपनो के चने सेकता हूँ

मांगने से ब्रह्म मिलता है
मैं तो केवल ध्यान मांग रहा
आपकी नज़र पड़ने का
वरदान मांग रहा
आखर आखर मेरा बोले
सुन लो मेरी भी गाथा
इतने शब्द ईश पे लिखता
तो वरदान ही दे देता विधाता.

कश्यप गोत्र तो मेरा भी है
ब्रह्म के ब्रह्माण्ड का मैं भी ब्राह्मण
पर आखर मेरे सत्य ही बोलें
चाहे हो जो, श्रेणी, जो मेरा गण

कीचड में मैं बसा नहीं हूँ
पर हूँ कमल मैं भी स्वयं
अहम् ब्रह्मास्मि का नारा लगाता
पर करता आपको नमन

दो मुझे भी एक अवसर
प्रयास करने को हूँ अग्रसर
एक इशारा कर देना बस
मोती होंगे मेरे अक्षर
शब्द वीणा बन जायेंगे
और विचार होंगे मेरे अमर.

Tuesday, April 17, 2012

मौका परस्त! Copyright©


हर मोड़ पे है मौका
हर राह में है मौका
हर जीत , हर हार में है मौका
और मैं मौका परस्त हूँ





हार में है जीत का मौका
जीत में है त्याग का मौका
त्याग में है मोक्ष का मौका
और मैं मौका परस्त हूँ

अतीत में है अनुभव से सीखने का मौका
वर्तमान में है सपने देखने का मौका
भविष्य में सपने साकार करने का मौका
और मैं मौका परस्त हूँ

कौन कहता है मौका परस्ती एक दोष है
जिन्हें मौके मिलते हैं वह उन्हें बहा देते हैं
जीने नहीं मिलते वह भाग्य को ललकार देते हैं
पर मौका परस्ती में जो स्वाद है
वह शतरंज की छाओं में भी नहीं
जीत की मशालों में भी नहीं

मौका न मिले तुझे तो छीन ले मौका
जो तेरे मौके छुपा के रखते हैं
उन्हें तू त्याग दे,
अपने मौकों को खुद आकर दे
मौका परस्त न होगा तो
जीवन बिना ध्वज लहराए मुरझा जाएगा
तेरे नाम का दीप जले बिना ही इतिहास चला जाएगा

Monday, April 2, 2012

क्षमा दान की सुगंध ! Copyright©


भक्ति मार्ग में चलने को हूँ मैं अब अग्रसर
पग बढाने को आतुर हूँ, झुका हुआ है मेरा सर
अंतिम पग क्या होगा, यह तो वह ही जानेगा
प्रथम पग क्या होगा, मेरा ह्रदय कैसे मानेगा






भक्ति मार्ग का पहला पग होगा माया का त्याग
मोह से मुक्ती होगी , इन्द्रियों के जाल से निकाल होगा ,त्रुटियों का परित्याग
दान से आसान त्याग की परिभाषा मुझे नहीं अभी ज्ञात
पहले नेहलाऊंगा मन को भक्ति में, ठंडी करूँगा थोड़ी अन्दर की आग


दान करूँ तो क्या करूँ , पहले किसको दान करूँ
किसकी भक्ति में सर झुकाऊं, किसका पहले ध्यान करूँ
यह प्रश्न था मन में मेरे, और उत्तर मिला नहीं
एक बगीचे में बैठ गया मैं, सोचा प्रकृति से आरम्भ करूँ


क्यारियों में फूल थे और, हरियाली थी चरों ओर
तितलियाँ मदमस्त उडती उडती, शांत करती सारा शोर
मन में मेरे टीस उठी, कि कैसे समझूंगा दान का अर्थ
कैसे अहम् की मृत्यु होगी, कैसे होगी आत्मा की भोर


फिर चला मैं आगे तो बिन चाहे एक फूल को रौंध दिया
शूल उठा मन में मेरे तो उसका हाथों में गोंद लिए
पुछा मैंने उस से, कि कैसे मैं दान करूँ
बोला वह कि बैठ भक्त, तुझमे मैं दान करने का भाव भरूँ


सूंघ अपने जूते की एढी, जिसने मुझको रौंदा था
जहाँ मेरा स्थान था , जहाँ मेरा घरौंदा था
मेरी मसले जानी की सुगंध अभी भी ढी में है तेरी
यह ही क्षमा दान का पहला सबक, यह ही है तेरी सीढ़ी


जिसने तुझको रौंद दिया हो, तेरा जीवन उधेड़ दिया
तू उसे क्षमा अपना प्रदान कर
वह तुझे चाहे मार गिराए
तू उसे गले लगाके, क्षमा दान कर


क्षमा दान ही ब्रह्म दान है
क्षमा से ही खुलते द्वार , जो अब तक थे बंद
उसमे ही सार छुपा है
उसमे ही ईश की सुगंध


सुगन्धित कर जीवन उन सबका जिसने तुझपे घात किया
जिसने तुझे ठेस पहुंचायी, जिसने प्रतिघात किया
ईश क्षमा में बसा हुआ है, उसी की सुगंध है
उसकी भक्ति करनी है तो , मन तेरा क्षमा को प्रतिबद्ध है

Thursday, March 8, 2012

बहनजी , ज़रा सूंड बचा के! Copyright©















अरे पूंछ दबा के हाथी भागे
माया के अब टूटे धागे
कुर्सी कुर्सी करती माया
साइकिल हो गयी तुझसे आगे
फव्वारे अब जा लगाले
मूरत पे लड्डू चढ़ाले
बॉल नही अब नाक कटा ले
अब हॅपी बड्डे मनाले
बहु-जन में अब बहु कहाँ हैं
बहनजी ही बस अब जवां है
डूबी नय्या तू बचा ले
कांसी की मूरत बनवाई
उसपे माला भी चढ़वाई
दल दल दलित का नारा लगाया
ग्वाले ले गये पर मलाई
गठबंधन अब कैसे होगा
बिना छुरी, बिना हथगोला
सारी सीटें चली गयी हैं
तेरी कुर्सी की अब बारी
कांसी जी तो बंसी बजा के
खर्च हो गये बीन बजा के
मूरत उनकी तूने लगवाई
साथ अपनी भी बनवाई
सपा मार गयी बाज़ी और
अब कैसे होगी भरपाई
अब चुनाव मे आना बहना
हाथी को पहना के गहना
मिनिस्टर होंगे अब अखिल भैया
पापा मुलायम के अब नखरे सहना!

Tuesday, March 6, 2012

चौंसठ घर ! Copyright©


चौंसठ खानों में देखो तो
कैसे बिसात बिछी है
हर एक मोहरे की अपनी किस्मत
कैसी रेखा खिंची है


पैदल सीधा चलता
सीधा ही चल पायेगा
कभी दुश्मन रोकेगा तो
कभी न्योछावर हो जाएगा




बलशाली हाथी भी सीधा ही
चल पाता है पर कितना
जतन कर ले कोई
दुश्मन मार गिराता है
सीधा सीधा चल चल के
कई खाने पार किये
कभी बलि चढ़ाया गया
कभी दुश्मन के
खाने सारे चार किये


मदमस्त ऊँट की चाल यहाँ पे
टेढ़ी टेढ़ी चलती है
तीरंदाज़ सा लगता कभी
कभी काया ढाल जैसी लगती है
टेढ़ा टेढ़ा चल चल ऊँट
कई जंगों में कुर्बान हुआ
परचम लहरा पाया कभी
कभी यूँ ही बेहाल हुआ


घोडा ढाई घर चलता है
और ढाई से मात दे पाता है
फुदक फुदक के घोडा
शत्रु के सर पे चढ़ जाता है
भागे इधर उधर
मचाये उछल कूद
कभी शांति का झंडा पकडे
कभी जेब में होता बारूद


अब वजीर शक्ति शाली
किसी भी ओर बढ़ पाए
किसी को भी रौंद दे
किसी पे भी चढ़ जाए
वजीर-इ-आज़म के अंदाज़
निराले , चाल निराली भई वाह
जिस ओर बढ़ा लो बढ़ जाए
बिना किये किसी की परवाह


यह सारे मोहरे हैं बिसात में
केवल एक कारन वश
विलासी बादशाह को बचा लें
और खा जाएं दुश्मन का सर
पर सोचो ऐसा बादशाह में होगा क्या
जो सब मर मिटने को हैं तैयार
चाहे गिर जाएँ खुद लेकिन
लगायें बादशाह की नय्या पार


मेरी मानो बनो बादशाह
पहनो जीवन में शाही ताज
सिपाही तो गिरने के लिए ही पैदा होते
तुम बदलो अपना आज
शहंशाह के जैसे जीवन जीलो आज
नतमस्तक हो दुनिया
पहनाये तुझे हरदम ताज
इसमें ही सार छुपा है ,
इसीलिए शाही जीवन मैंने पाना है
नहीं तो खेल ख़त्म हो जाए जब
सब मोहरों को एक डब्बे में ही जाना है
सब मोहरों को एक डब्बे में ही जाना है
सब मोहरों को एक डब्बे में ही जाना है!

Monday, March 5, 2012

नया करो रे, नया करो...! Copyr​ight©


कुछ नया तो करो
कल को आज पे मत धरो
कल को आज से मत मढो
अरे कुछ नया तो करो


कुछ नया करने के पैसे नहीं लगते
खर्चा केवल कल्पना का है
उसे खर्चने में भला क्या रोक
उसके प्रयोग से ही बस तुम डरते



नया करो निर्माण, पुराना सब बेकार
बन जाओ आज के तुम रचनाकार
रंगों से भरो नयी कूची
और दे दो एक नए आज को आकार

नया करो रे, नया करो
थोडा खुद पे बोझ धरो
पोथी पढ़ पढ़ कुछ न हो
अब आखर तुम नया गढ़ो


कल रोये थे तो आज हसो
कल बिखरे थे तो आज बसों
रुके थे तो आज चलो
नया करो रे , नया करो


मौलिकता हो लाठी तेरी
गगन में हो टिकी आखें
कल के पीछे न आज लड़ो
नया करो रे नया करो


क्यूँ है सबके नाम अंकित
इतिहास के पन्नो में?
जागीरें किसी के हाथो
किसी का जीवन घुटनो में?
जो विपरीत बहा है वह ही तो
अनुपम है
जिसने रिवाजों को तोडा वह ही तो
प्रथम है
चाहे गिर जाओ , पर चला करो
नया करो रे , नया करो


जो सच्चे मन से इच्छा हो
कुछ नया करने की
ब्रह्मा सामने मिटटी रख देंगे
जो दुस्साहस करने की बात करो तो
कृष्ण सारथी बन लेंगे
बूढी सोच को पहले जवान करो
नया करो रे , नया करो
नया करो रे, नया करो
नया करो रे , नया करो

Wednesday, February 22, 2012

पंद्रह आने सच ! Copyright ©


सोलह आने का सच किताबों में बस होता
एक आने का सच हरदम है कहीं खोता
सत्य का पलड़ा भारी होता होगा तराज़ू में
पर एक आना तो दबा ही लेती जनता अपनी बाज़ू में
इस एक आने का ही खेल है प्यारे
इसपे ही इतिहास टिका है
जीतने वाले के पास पंद्रह
हारने वाले को एक आना मिला है
यदि यह आना दिख जाए तो
जाने क्या हो जाएगा
शायद खेमू चिनवाया जाएगा
और अनारकली जीवन भर रोएगी
मदिरा की नदियाँ बहेंगी और
संस्कृति सारी उसमे खोएगी


मैं यह आना ढूंढ ढूंढ
बिना बात परेशान हुआ
यह सच तो अनलिखे पन्नो की
केवल शान हुआ
पर कहीं तो यह एक आने की गठरी दबी होगी
कहीं तो इसका होगा खज़ाना
इन टुकड़ों में इतिहास बदलने
की चमक होगी
अब तो केवल पंद्रह को सच में सोलह करना है
चाहे इतिहास के ठेकेदारों से ही क्यूँ न लड़ना है
इस एक आने का सत्य ही मानवता को पार लगाएगा
नहीं तो मानवता का ऐसे ही गला घोंटा जाएगा


यह सच को पहचानना हम सबका अब धर्म है
एक आने पे ही टिका अब हमारा कर्म है
तो,जाग मानुष, देख पंद्रह के पार
सोलह आने की खोज से कर खुदका उद्धार
आओ मिलके भविष्य के सपने करें साकार
राम राज्य की कल्पना नहीं, धरे अब उसका आकार
इतिहास अब नहीं पायेगा बच
मानव जब निकलेगा दृढ़ता से करने
पंद्रह को सोलह आने सच!

Tuesday, February 21, 2012

फिर आया हूँ ! Copyright ©


चला गया था लहरों के संग
सीखने इस दुनिया के ढंग
करतब सारे, सारे रंग
पर मेरा तो भाग्य लिखा है
धारा के विपरीत तैरने का
लहरों को चीरने का
न कि ठहरने का
तो जब लगा तुम्हे कि मैं गायब हूँ
और खो गया मैं रीति रिवाजों में
जब लगा तुम्हे कि विलुप्त हो गयी मेरी काया
और बंद हो गया दरवाजों में
फिर वापिस आया हूँ मैं
फिर से ज्योत जलाने को
आओ मेरे पीछे हो जाओ
मैं आया पुनः राह दिखाने को


क्या बताऊँ कैसे कैसे मंज़र मैंने देखे
कितनी पगडंडियों पे चला हूँ
कितने सूरज मैंने सके
कितनी जंगों में मैंने लहू बहाया
और कितने माओं के आँचल को सवारा
कितने मीठे स्वाद चखे हैं
कितने शव मैंने ढके हैं
इन सब के बाद मैं आया हूँ
फिर से ज्योत जलने
अपने जीवन को सब की लाठी
सोये मन को फिर जगाने


आओ मेरे पीछे तुम भी
घबराओ मत क्या मंजिल होगी
काँटों की शय्या शायद
शायद मखमल की कम्बल होगी
फिर आया हूँ तुम्हारे लिए मैं
भटक न जाये ताकि कोई
यह बतलाने फिर से सबको
शक्ति है तुम्हारे अन्दर सोयी


खून बहे तो गम मत करना
आग दिखे तो तुम मत डरना
मन मंदिर के अन्दर विश्वास जगा के
फिर अमृत के ही घूँट भरना
जब जब तुम मुर्झाओगे मैं
माली बन बन सीचुंगा
जब जब तुम घबराओगे मैं
लक्ष्मण रेखा खीचूँगा
पर गिरने का डर न हो तुमको
यह मैं सिखला जाऊंगा
जब जब मन में कौतुहल होगा
मन मंदिर में समां जाऊंगा
फिर आया हूँ तुमको मैं
नयी राह दिखाने को
फिर आया हूँ मैं तुमको
एक बार फिर जगाने को


फिर आया हूँ
फिर आऊंगा
युगों युगों में
समां जाऊंगा
मैं तुम्हारे अन्दर का
विवेक हूँ
सुनो मेरी , नहीं तो
मैं फिर चिल्लाऊंगा
फिर आया हूँ
फिर आऊंगा
युगों युगों में
समां जाऊंगा!

Thursday, February 16, 2012

Arranged! Copyright ©

Could it be true? Could it be true that love could be arranged?

“When are you coming? It’s been 4 long years, tujhe man nahi karta maa se milne ka?”

Sometimes the heart pounds inside your chest cavity as if it did not care about whether you live or die. It tells you “dude, do something! Or, I’ll explode”. I felt the same when incessant phone calls rang just one ring tone “come home” and every possible friend and relative assumed that I had not been to my home country because I was busy earning dollars, drinking beer and dating goris. I didn’t want to explain that it was almost like an exile and I was NOT having any fun. I was battling life, just was doing it alone. And that I missed home, missed parents and doting sister and friends and everything which made me,me.

“Your visa has been approved!”

United States of America, the land of opportunity, sometimes has strange ways of expressing it’s gratitude to immigrants. Well, we know its gratitude even though they make it seem as if its attitude. But those words were like honey to my ears. A long wait of four years had just ended and I could board a plane back to my home and live it all over again.

“Kripya apni kamar ki peti baandh lein, vimaan Boeing 747, Nayi Dilli airport pe utarne ko tayyar hai”.

The voice of the air hostess sounded like the sweetest music to my ears. I was going home finally. Many emotions, which had been pent up over the years, got a vent, my sister and cousin were waiting in the crowd at my arrival and my yearning eyes were frantically looking for a familiar face. And then I was hugged by two people at the same time. Oh the warmth was warmer than the California sun. The warmth was enough to protect me from dilli ki sardi, and it did!


Happy budday to you!

My cousin was pleasantly shocked to find me standing at her door step. She was jumping with joy. The next seven days were insane. Immigration, chaat, rikshawaalas, familiar incense smell, chai, “bargaining”, traffic and many such “experiences” were re-lived. Friends, relatives, cousins, aunts and uncles, it was just a full blown fanfare.

Then something strange happened.



“Yaar yeh to peeche peeche hi aa rahe hain” said my sister.

A man, woman and a girl followed us for a good half a kilometre, turned where we turned, keeping a distance. We climbed the stairs to our apartment and so did they, we went in. They followed. Dumbfounded, my sister, my cousin and I quickly went into another room and my second cousin greeted the three followers. They were relatives to the cousin. Not knowing them, and not wanting to know them, made us curl into our own little cosy corner while the other cousin entertained these guests. I had no clue where this would lead. But it seemed strange. The day ended and we were to go to our hometown to meet my parents. We headed for the train station.

“Nayi dilli se Dehradun ki or jaane waali gaadi, platform kramaank ek pe aayegi”, announced the recorded voice of a seemingly tired lady. The train journey would be boring, I thought. It wasn’t. Winter breeze greeted us and feelings of yester years came rushing in. It was magical. But like every journey, it ended soon.

There is nothing like touching your father’s feet and getting an aashirvad in return when he touches your head and says “jeete raho”.

Pitaji had been waiting for four years to see his son grow into a man. His haggard looks, his lean body and his greying hair, said it all. The emptiness in his eyes was filled with pride, affection and was lit again like a new light bulb, when he saw me. It was amazing. All four of us would be united under the same roof after a long wait. My heart was pounding, I still had to meet my mother whose faith and hope had made me go on and take on life.

My father drove like Michael Schumacher.

I think he, of all, wanted all of us to be together soon.

The graceful lady, I had left four years ago, was thinner, but oh my god, her eyes were the same. We hugged each other for eternity and she wept. So did I. Those tears washed away all the tiredness I had been carrying for years. I was home. Finally cold brick walls felt like a warm blanket. I guess that’s what family is. Home is where they understand you. You are so comforted by togetherness that even the most silent moments make you feel that that was the best conversation you ever had. I was blessed.

Then, came the dollops of ghee, floating in aloo paranthas, tadka daals, and ghar ki roti. I would become as big as a house, I promised myself.

The world knows that India is the land of awakening.

I was about to get a lesson, which would remain with me forever.

“They said that they liked the guy!” said my mother winking at me.

“What?? Who?”

“Oh those people who came to visit at Daksha’s apartment” she said, casually.

“Oh My God, what are you saying?” I replied shockingly, feeling like a product being marketed.

“They would like to meet you in person”

“No way.. Maa!”

“Tomorrow !”

“WHATTTTT?”

“No one is forcing you, just talk to them”, said my mom sternly.

Even though I thought I was being trapped into a never ending “selection cycle” of Hindu matrimonial services, primarily run by the ladies of the family, I knew that they wanted a bahu, for their son and wanted him to be happy. But I was not ready.

“Maa, I’m not going to be doing this, I can sit there, but I am not going to say a word”. I rebelled.

“You just come along, there is no harm in being there”, comforted my mother.

Dear world, you would never understand that the pleasure it gives us Indians to worship our parents and listening to their small little wants, to make them happy, is not loosing our individuality. It makes them happy, seeing them happy, makes us happy. A happiness that is elusive everywhere else. It may sound as if I conceded to my parents’ want to meet a family for nuptial consideration, but I did it for their pleasure. So that they don’t feel that I have betrayed them in any sense. That my upbringing had not been wasted. Their children still listened to them. I was still a Bharateey.

I Agreed.


The pounding of my heart began again. What lay ahead? What would happen? How is it going to be? Endless other things were crossing my mind.

Tomorrow came!


“Hi”

“Hi”

“So?”

“So?”

The silence was deafening, so we broke the ice by doing the regular questionnaire of “Where do you work? What do you do in your free time? What are your hobbies? etc.”

I had just one question floating in my mind which I had to ask, and ask I did

“So how come you are all ready for arranged marriage?”

She was confidant and her poise said it all. I don’t know if she was taken aback by my boldness, but she replied.

“What’s wrong with that?” she asked.

“I mean, how can you arrange togetherness, it is 2012 man!” I retorted.

“I don’t know about others, but I have come to this peace with my self that my Man is out there, I will love my husband and be dedicated to him and be the best wife there can be. My parents know what is best for me. Even though I am letting them chose the family, I will chose the man. It does not matter what route I take, I believe that He is out there for me, and I will get him this way or that, so I am choosing this path.”

“Hmmm” is all I said.

I was not ready for nuptial alliance, and especially not this way. So I
made it clear that I was not going to marry her unless I feel it.

I felt something which I had never felt before.

If that person is out there, and it is destined that I would find her,
it’s already “Arranged”, I just have to go look for it.

Love was Loss of Valuable Energy for me. The doors had been closed due
to some past bitterness.

Now it is open, I will find my soul mate. I know she is there.

Thank you, young lady. I hope you find your Knight in Arms. I know you
will. Accept my apologies that I am not that person for you.

Let, God show his Arrangement to me. His Arranged Togetherness!

Thursday, January 12, 2012

तथास्तु ! Copyright ©









स्वप्न पूरे करने को अग्रसर हो तुम तो
कठिन राहों पे चलने को हो उत्सुक
हो शिखर पे स्व-ध्वज लहराने की इच्छा
तो रोकेगा कौनसा मानुष कौन सी वस्तु
यह इच्छा है तो
ब्रह्माण्ड बोलेगा : तथास्तु, तथास्तु !


जो शिखर पे नहीं पहुँचता,
जो सागर पार नहीं कर पाता
जो स्व के उत्थान को नहीं है आतुर
वो इसलिए नहीं क्युंकि उसे सही परिस्थिति न मिली
वो इसलिए नहीं क्युंकि उसे मार्गदर्शन न मिला
वो केवल इसीलिए क्युंकि उसने स्वप्न न देखे
वो केवल इसलिए क्युंकि उसने जोड़ा हर राह में "किन्तु"
अगर इच्छा होती तो
ब्रह्माण्ड बोलता : तथास्तु, तथास्तु !


ब्रह्माण्ड खुली बाहों से आलिंगन करने को तैयार है
क्या तुम्हारे पास इच्छाओं और एकाग्र की तलवार है?
ब्रह्माण्ड स्वप्न साकार करने का वरदान देना चाहता है
क्या तुम्हारे पास स्वप्न देखने की धार है?
यदि है और है ऊंची उड़ान भरने की इच्छा
तो पंख नहीं , हौसला हो स्वेच्छा
और हो जाओ तुम भी इस अथाह आकाश के स्वामि
इस जल के बादशाह
न कोई मित्र, न शत्रु
केवल मांगो ब्रह्माण्ड से
वो बोलेगा....
तथास्तु !
तथास्तु !
तथास्तु !

Monday, January 9, 2012

आज के लिए ! Copyright ©


जब पुरूस्कार उठाता हूँ तो हाथ कांपते हैं
जब मुकुट पहनता हूँ तो भ्रिकुटी तन जाती है
जब सिंघासन पे होता विराजमान तो काया घबराती है
पर क्या करूँ, इंतज़ार के बाद फल मिले तो ऐसा ही होता है

जब सूखे होंट,पानी पाते हैं, तो कांपते हैं
जब घाव मरहम से लीपे जाते हैं तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं
जब पीड़ा हरता ईश, तो मन ख़ुशी से रोता है
पर क्या करूँ, ढेरों साल की प्यास जब बुझती है तो ऐसा ही होता है




जब एकदम उजाला हो जाता है,घनघोर अँधेरे के बाद
तो आँखें चौंधिया जाती हैं
जब सूखी धरती पे बरखा की बूँद गिरती है तो
धरती फिर भी तिलमिलाती है
पर क्या करे, प्रतीक्षा का फल ऐसा ही मीठा होता है


तो तेरे हाथ यदि कम्प्कपाएं, तेरे होंट यदि थर्राएं
तेरे घावों पे मरहम लग जाए, तेरी सूखी काया भीग जाए
तो याद रखना, तू जीता है
तो याद रखना ,तू विजयता है
जितने पहाड़ तूने चढ़े
वो सब तेरे कदमो के नीचे हैं
जितने सागर तूने पार किये
वो सब अब फीके हैं


मत घबरा , यदि तुझे अन्धकार में कुछ दीखता नहीं
मत शरमा, यदि तुझे नग्न होना पड़ा
मत कर सर नीचा यदि पग दो पग डगमगाया
इस से ही तो तेरा भाग्य है जगमगाया


तू सूखी शाख था कभी, पर केवल अमृत के लिए
तू टूटी डाल था कभी, पर केवल बरगद होने के लिए
तू घायल था कभी, एक दिन पूरे चैन से सोने के लिए
तू डरा हुआ था, केवल भय को जीतने के लिए
तो चला था कठिन रास्तों से, केवल मंजिल के लिए


तो चल,
तो हो घायल,
तो हो भयभीत
तो हार
तो बढा कदम
जीतने के लिए
तख़्त के लिए
ताज के लिए
शिखर की छोटी के लिए
आज के लिए

Wednesday, January 4, 2012

इस बरस Copyright ©


इस बरस नया गांडीव उठा चुका है समय
इस बरस नए तीर हैं कमान में
इस बरस उमीदें, रूप लेंगी
इस बरस केवल विजय है जुबां पे




इस बरस आकर लेंगी इच्छाएं
इस बरस निराकार होंगी हार
इस बरस तम भी जगमगायेगा
इस बरस चौगुनी होगी किरणों की धार


इस बरस चढ़ाव होंगे अधिक , उतार की अपेक्षा
इस बरस मूरत बनेगी स्वेच्छा
इस बरस शब्द पत्थर बनेंगे
इस बरस सोच होगी दीक्षा


आलिंगन का हार डालें , गले लगायें नए साल को
बाहें फैलाए, उत्तर दें हर सवाल को
भ्रिकुटी तानें और सीने में स्पंदन करें उजागर
और भर दें भविष्य का सागर


भर दें झोली उनकी जिन्हें केवल माँगना आता है
पीठ थपथपाएं उनकी जिन्हें केवल जीतना आता है
सीना ठोकें उन वीरों का जो निडर हैं
शाबाशी दें उनको जिन्हें जीना आता है


निर्माण हो नवीन पुलों का
युवा और वृद्धों का
नारी और पुरुष का
नव युवक और युग पुरुष का


चमकदार हो जिव्हा से निकला हर शब्द
हर वाक्य में ज्ञान का सागर हो
हर पुकार ईश की ओर नमन हो
हर कर्म मौलिकता का चरम हो


तो आओ इस बरस भरें सब में उम्मीद
हो जायें पांडवों का नीढ़
कम हों पर हों सशक्त
हो जाएँ केवल समय के भक्त
हो जाएँ केवल समय के भक्त