Dreams

Monday, November 23, 2015

हवा ही बदनाम है (C) Copyright



हवा ही बदनाम है
इतिहास बदल जाते है
ख़ूँख़ार इरादों से
सियासतें ढह जाती हैं
अधूरे वादों से
तलवार की धार पे लगा लहू
गवाही देता रहे प्यास की
गद्दी के नशे की, तख्त की आस की
इतिहास जानता है
यह इंसानों का ही काम है
पर इसके लिए भी , बस
हवा ही बदनाम है

शीश कट गये, 
तख्त पलट गये
कई कई गुनाह
यूँ ही घट गये
पर इल्ज़ाम लगाए
जब जब इतिहास ने
तो उम्मीदवार 
किसी पन्ने में छाँट गये
रक्त ही इतिहास के पन्नो
की स्याही, लहू ही उसका दाम है
पर इसके लिए भी, बस
हवा ही बदनाम है

पूर्वाई बन बन हवा
प्रेमिका की लट उलझाए
तूफान बनकर अश्वों
पर वीरों को सवारी करवाए
रेगिस्तान की रेत भी
इसी हवा की गुलाम है
पवन रूप मे सदियों 
से जो परिंदों को झुलाए
मौत का संदेश लाते ही
वो बदनाम हो जाए
पूर्वाई से फूँक बनी
तो सब का इसपर इल्ज़ाम है
सब के लिए , बस
हवा ही बदनाम है 

Thursday, November 19, 2015

मुझे मशालें रास आती हैं (c) Copyright



मैं नहीं मानता दियों में
मुझे मशालें रास आती हैं
लट्ठ के छोर पर एक पवित्र ज्वाला
अराजकता के तांडव का ध्वज
दिए की भयभीत लौ का उत्तर
मैं नहीं मानता कमज़ोरियों में
मुझे उछालें रास आती हैं
मैं नहीं मानता दियों में
मुझे मशालें रास आती हैं

प्रतीक दिया है यदि शांति का
मशाल चिह्न हैं धधकति क्रांति का
दीप यदि आशा की बांग है
मशाल आशा से परे, एक छलाँग है
मुरझाई दिए की बाती 
पवन का वेग नहीं सहन कर पाती
मशाल हवा के संग 
एक अनूठा नृत्या-निर्वाण है
चुप्पी साधा दिया,
कमान में फँसा हुआ
जैसे एक बान हैं
मशाल अंधेरे की ओर बढ़ती लपट
के प्राण हैं
मैं नहीं मानता ढालों में
मुझे भाले की गूँज रास आती हैं
मैं नहीं मानता दियों में
मुझे मशालें रास आती हैं

जो लौ जले और अंधकार पर ना दे धावा
बस करे आमरण अनशन
ऐसी लौ भयभीत है
जो लौ क्रांति लाए 
वो ही विजय गीत है
मशालें अंधेरों से सवाल नहीं करती
केवल जवाब देती है
दिया प्रश्नचिह्न सा मुरझाता है
फिर भी ऐतिहासिक कहलाता है
मैं नहीं मानता सवालों में
मुझे उत्तर की झनक रास आती हैं
मैं नहीं मानता दियों में
मुझे मशालें रास आती हैं . 

Monday, August 24, 2015

गुलाबी (c) Copyright

 
 
 
 
कर्तव्य और धर्म
प्रेम और कर्म
के मध्य एक
गुलाबी और नर्म
हिस्सा है
जिसका यह किस्सा है
जिसकी काया नहीं
जिसकी छाया भी नहीं
जो मूलाधार और सहस्रार
के बीच कहीं खो जाता है
जिसे कोई छू नहीं पाता है
जो तुम्हारे अस्तित्व का
निचोड़ है
तुम्हारी हँसी भी है
पीड़ा की मरोड़ है
जो कर्म और धर्म के
बोझ से परे है
जो ना सुन्न होता है
ना मृत्यु से डरे है
जो मर्यादा नहीं जानता
शाही चाल चलता है
जो प्यादा नहीं जानता
वो गुलाबी पंखुड़ी
हृदय नहीं है
सूर्योदय नही है
ना घनी रात है
ना कायनात है
वो बस है.
वो गुलाबी धधकता अंगारा
ज्वाला है
जिसे प्रत्येक प्राणी ने भीतर
संभाला है
वो विवेक नहीं है
विजयी अभिषेक नहीं है
वो प्राण है
और वो प्राण
तुम्हारे लिए जीवित है
आ जाओ.. मिल जायें
संग खिल जाएं

Thursday, August 13, 2015

प्रतिष्ठावान सावधान (c) Copyright

 
 
 
प्रतिष्ठावान सावधान
श्रमिक खड़े हैं
चुनौती देने
झूठी प्रतिष्ठा के सवारों को
धर्म के स्वघोषित ठेकेदारी
और सामाजिक काठ कबाड़ों को
भस्म करने आए हैं
श्रमिक के लहू से बनी
इन समृद्धि की नकली दीवारों को
मेरी पंक्तियाँ चिंगारी देंगी
इन गुस्सैल सुर्ख अंगारों को
गीत बनेंगी मेरी पंक्ति
श्रम बनेगा राष्ट्र गान
श्रापित श्रमिक को मिल
जाएगा फिर से जीवन दान
प्रतिष्ठावान सावधान
 

फिर गर्जेंगे सब्बल,
फावड़े, तसले और कुदाल
जिस पसीने ने नीव धरी
प्रतिष्ठा की
उसकी चोट के वार को
ज़रा संभाल
झूठे मान पे टिकी
सत्ताएं हिल जाएँगी
जो श्रम के पसीने से
ना सिंची हों वो
व्यवस्थाएँ मिट्टी में
मिल जाएँगी
हाथ ना मैले करे जो
और बन जाए यूँ ही प्रधान
ऐसी पगड़ी को ठोकर, कह दो
प्रतिष्ठावान सावधान
 

युगों योगों तक राज किया है
ऐसे नकली समृद्धों ने
हंसों को ही धर दबोचा
इन लहू चूसते गिद्धों ने
पर सिखाया हमे ही झुकना
दादा, परदादा, हमारे ही वृद्धों नें
और नीति, न्याय के पोतों में
अंकित किया ये भेद
खरीदे हुए ही सिद्धों नें
जो श्रम करे वो ही अब
मान पाए
जो विलासी अलसाए ठूंठ बने हैं
पशु ही अब कहलाएँ
परिश्रम ही प्रगति
श्रम ही अब धाम
महनती ही पुजारी
मेहनत ही भगवान
प्रतिष्ठावान
सावधान
प्रतिष्ठावान
सावधान

Tuesday, July 28, 2015

राख बनूँ, धूल नहीं ! (c) Copyright




राख बनूँ,
धूल नहीं
लंगर की डोर बनूँ,
फंदे की झूल नहीं
विपरीत बहुँ,
अनुकूल नहीं
राख बनूँ,
धूल नहीं

तीखा जीवित काँटा बनूँ
शवों पर निर्जीव फूल नहीं
कोरा पन्ना बनूँ
इतिहास की भूल नहीं
इंक़लाब बनूँ
मक़बूल नहीं
राख बनूँ
धूल नहीं

वीरगति का लहु बनूँ
कायरता का त्रिशूल नहीं
चुनाव का इनकार बनूँ
दबाव का क़ुबूल नहीं
चेतना का बीज बनूँ
विवेकहीन मूल नहीं
राख बनूँ मैं
धूल नहीं
राख बनूँ मैं
धूल नहीं

Monday, July 20, 2015

रेत पे अंकित पदचिन्हों की .. ! (c) Copyright

 
 
 
बात नहीं है जूतों की
बात तो है बस कदमों की
रेत पे अंकित पदचिन्हों की
समय के साथ मुक़दमों की
 

कीचड़ में भी
साख जमाएं देखो
कमल कैसे मुस्काये
छीटें उसे भिगाना चाहें
पर वो गीला भी ना हो पाए
पुष्पराज की स्थिरता उसकी शोभा
शबनम की बूँदें केवल अलंकार
ना बदले उसकी काया
ना बदले उसका आकार
बात नहीं है शबनम की
बात तो है बस पदमों की
रेत पे अंकित पदचिन्हों की
समय के साथ मुक़दमों की
 

तूफ़ानों से लड़ती कश्ति
डगमग डगमग थर्राये
माझी संकल्पी हो तो
सागर का सीना भी चिर जाए
सागर अपनी लहरों से
भले उसे डरा जाए
पर जिस नाव का चप्पू
विश्वास भरा हो
लहरे वो हरा जाए
बात नहीं है
तूफ़ानों से मिलते इन सदमों की
केवल रेत पे अंकित पदचिन्हों की
समय के साथ मुक़दमों की

Monday, July 13, 2015

बीज थे ~ © copyright





उन्होने हमे दफ़नाना चाहा
पर हम तो बीज थे
दफ़्न होके भी उग जाते
वो उगते ही काट डालते
हम कटके भी उग जाते
उन सबको हमारी छाया
से डर लगता था शायद
तने तने को हमारे
वो झुकाया करते
हम फिर तन तनाके तन जाते
उनके दिल बार बार काट काट के
भी ना पसीजते
उन्हे कुछ और सोचना था
पर उन्होने हमे दफ़ना दिया
और हम ~ बीज थे
उन्होने हमे दफ़नाना चाहा
पर हम तो बीज थे.

 




Wednesday, July 8, 2015

जाना है अभी ... Copyright



आसमान गिर रहे हैं जो
उनका भार उठाना है अभी
धसती मानवता को तुझे
धरातल तक फिर से लाना है अभी
बवंडर बनते हवाओं के वेग को
वश में कर जाना है अभी
धाराओं को मोड़ना है तुझे
पानी हो अपनी गति से बहाना है अभी
भस्म करते ज्वालामुखी के मूह पर
शीतल गंगाजल गिराना है अभी
थकना विकल्प नहीं है तेरे लिए
तुझे बहुत दूर जाना है अभी
 
 
बहुत मुस्कानें बिखेरनी है तुझे
बहुतों को गले लगाना है अभी
शोर है जो इतना उस से ही धुन छेड़नी है तुझे
हर एक स्पंदन को एक सुर में लाना है अभी
बुझना धर्म नही है तेरा
तुझे जग को चमकाना है अभी
इस धरती, इस आकाश इस समंदर को ही नहीं
पूरे ब्रह्मांड में अपना रंग चढ़ाना है अभी
थकना विकल्प नहीं है तेरे लिए
तुझे बहुत दूर जाना है अभी
 
 
जो रूठ गये हैं तुमसे
तुझे उन्हे मानना है अभी
जो ना उम्मीद से निरुत्तर हैं
उन्हे उम्मीद का उत्तर पहुँचना है अभी
सोए हुए विवेक को सबमें
फिर से जगाना है अभी
इंद्रधनुष के छोर जो बिछड़े हुए हैं
तुझे उन्हे फिर से मिलवाना है अभी
हार गया है कोई जो
उसे फिर से उम्मीद दिखलाना है अभी
थकना विकल्प नहीं है तेरे लिए
तुझे बहुत दूर जाना है अभी
 
 
पतझड़ के पत्तों में रंग भरके
फिरसे  बसंत बनाना है अभी
घनघोर भयावह रातों को
अपने तेज से चमकाना है अभी
निष्प्रेम हृदय में पीड़ा हटा
प्रेम के पुष्प उगाना है अभी
भाई, पति, बेटे, यार दोस्त का
धर्म तुझे निभाना है अभी
बेरंग महफिलें फीकी पड़ी हैं देख
उसे अपनी कूची से रंगाना है अभी
थकना विकल्प नहीं है तेरे लिए
तुझे बहुत दूर जाना है अभी
थकना विकल्प नहीं है तेरे लिए
तुझे बहुत दूर जाना है अभी


Monday, May 18, 2015

इरादे गगनचुंभी....और मंसूबे गोताखोर (C) Copyright



इरादे गगनचुंभी अपने
और मंसूबे गोताखोर
 
चाहे तूफ़ानों के साए हों
चाहे बादल हों घनघोर
चाहे काँटों की शय्या हो
या फिर मौत का बहरा कर देने वाला शोर
अपने इरादे हैं गगनचुंभी
और मंसूबे गोताखोर
 
अलसाए भाग्य की पतंगे हों
चाहे टूटते रिश्तों की हो डोर
या फिर मुश्किलों की धुन्ध से
हो जीवन पूरा सराबोर
चाहे प्रश्न चिह्न सी निगाहें हों
या उत्तर देती बाहें हों हर ओर
सूर्योदय का अखंड प्रकाश
या फिर रात का कालापन हो हर ओर
हम ना रुकने वाले
जितना लगा ले सब ज़ोर
अपने इरादे हैं गगनचुंभी
और मंसूबे गोताखोर
 
मंडराते गिद्धों की छाया हो
या हो सावन के मदमस्त मोर
चाहे मखमल की कंबल हो
या हो पत्थर की शय्या कठोर
स्थिर चित्त का सन्नाटा
या प्रफुल्लित मन की हो हिलोर
लहरों से ना टूटे विश्वास
जबतक पहुँच ना जाए छोर
तेरे
इरादे गगनचुंभी हों तब तक
और मंसूबे गोताखोर
इरादे गगनचुंभी
और मंसूबे गोताखोर


Tuesday, May 5, 2015

ना खो ~(c) Copyright



आदर्शवाद की परछाई में
अपना मौलिक स्वाद ना खो

सामाजिक हल्ले में तू
मन से अपने संवाद ना खो

प्रवीणता की दिशा में चलते
दोषों से अपने वाद-विवाद ना खो

हरियाली बोते बोते प्यारे
प्राण देती खाद ना खो

मृत्यु के भयावह चेहरे को तक्ते तक्ते
पल पल में जीवन का आशीर्वाद ना खो

विजय की प्रचंड ध्वनि में
हार का हल्का हल्का नीनाद ना खो

आदर्शवाद की परछाई में
अपना मौलिक स्वाद ना खो

Wednesday, April 29, 2015

कोरे पन्ने पे स्याही के धब्बे .... (c) Copyright


कोरे पन्ने पे स्याही के धब्बे
कुछ सीधे हाथ का लेखन
कुछ खबबे
कुछ खट्टे अचारी रस
कुछ मीठे मुरब्बे
कुछ कोलाहल के गूंजते मृदंग
कुछ छटपटाहट मे भीगती तरंग
कुछ मासूमियत के खिलते रंग
कुछ प्रेम की नशीली भंग
कुछ हार के आँसू
कुछ जीत के शाही ढंग
कुछ पीरों की वाणी
कुछ अधीरों का रोना
कभी कड़वाहट के रुदन
को शहद में भिगोना
कुछ माटी की खुश्बू
मे कूची डुबोना
कुछ शंखों की गूँज
से सन्नाटे को धोना
बचपन की यादें
कुछ जवानी के वादे
कुछ कर गुज़रने के
पहाड़ों से इरादे
कुछ पहाड़ों की चट्टानों
से रिस्ती धारा
कभी कल्कल अमृत सा गंगा का पानी
कभी अथाह महासागरों सा खारा
कभी गुस्से की चीखें
कभी माफी की भीखें
कभी ये साँसें भी
सुन्न होना सीखें

और ये सब
कोरे पन्ने पे स्याही के धब्बे
या एक दिन मिट जाएँगे सब
या फिर इनसे झुक जाएगा रब

ये कोरे पन्ने पे स्याही के धब्बे

Tuesday, April 21, 2015

स्थिर और स्थाई (c) Copyright



स्थिर और स्थाई में अंतर है
एक बहना नहीं जानता
एक बहा पहले निरंतर है
स्थिर और स्थाई में अंतर है

स्थिर, थिरका करता था कभी
अब पद्मासन में विलीन है
अनुभव की धारा में
बह बह के थिरकन थमी है
जिसमे आत्म्बोध की
सुनहरी परत जमी है
जिसने सूर्य की सलामी ली है
मदिरा सी जवानी जी है
जिसने भाग्य को ललकारा है
भय को जिसने डकारा है
जो आदि से है, अनंत तक
और चेतना से, अमर है
वो स्थिर है

स्थाई लंबायमन है
ना गौरव है ना शान है
जिसमे भय को ललकारने की
गर्मी नहीं है
और इस बात से पानी हो जाने की
बेशर्मी नहीं है
जो जीना नहीं जानता
जो अमरता नहीं मानता
जो मर कर भी
उस पार नहीं फांदता
जो ना बांझ है
ना उपजाऊ है
ना भाला है किसी के हाथ का
किसी के पैर का ना है खड़ाऊ
जिसने विजय का प्याला नही चखा
ना ही मूह की कभी खाई है
वो स्थाई है
 
स्थिर और स्थाई में अंतर है
एक बहना नहीं जानता
एक बहा पहले निरंतर है
स्थिर और स्थाई में अंतर है


Tuesday, April 14, 2015

बना लो (c) Copyright




प्रेम के मुरझाए पुष्प
सुगंध वही देते हैं
बस अश्कों मे डुबो लो
और इत्र बना लो
पुरानी कूची से
नये चित्र बना लो
यदि इतने कलात्मक नहीं हो
तो मय से यारी कर लो
और पीड़ा को मित्र बना लो
यदि मय की धारा में
ना बहना हो
तो हृदय को
कठोर करो और
पत्थर सा
चरित्र बना लो


Monday, April 13, 2015

हो जाए तो? (c) Copyright



यदि ईर्ष्यालु की धार बंद हो जाए तो?
यदि कामुक का ‘व्यापार’ बंद हो जाए तो?
यदि लोभी का उधार बंद हो जाए तो?
यदि मोहि का प्यार बंद हो जाए तो?

गोते खाती नय्या पार हो जाए
ये नर्क पुनः संसार हो जाए


Thursday, April 9, 2015

इशारे © Copyright




इतनी किताबें, इतने ग्रंथ,
पोथे इतने सारे हैं
कुछ कल्पनाओं की पतंगें हैं
कुछ इच्छाओं के गुब्बारे हैं
कुछ द्रवल मन की धाराएँ
कुछ स्थिर तालाबों के किनारे हैं
इन सब को पढ़ने से
क्या ज्ञान चक्षु खुल जाएँगे?
क्या ग्रंथों के उच्चारण से
पाप सारे धुल जाएँगे?
अचेत को मिलेगी क्या चेतना?
अस्थिर को क्या मिलेगी संवेदना?
क्या पढ़के इन सब को
आ जाएगा अभेद को भेदना?
जो सब पढ़ता है
क्या वो विद्वान है?
जो पढ़ के उगलता है
क्या वो महान है?

जैसे चंद्रमा
सूर्य की रौशनी को
प्रतिबिंबित करता है
उसकी उपस्थिति को
अंकित करता है
सूर्या है तो
चन्द्र का प्रकाश है
पर चंद्रमा की
सुंदरता ही प्रख्यात है
वैसे यह पोथे, ये किताबें
ये ग्रंथ जो इतने सारे हैं
ज्ञान नहीं हैं
केवल ज्ञान की ओर
बस इशारे हैं
बस इशारे हैं
बस इशारे हैं


Tuesday, April 7, 2015

म्यान है तो अभियान है ! (c) Copyright



तलवारें तो युगों युगों से ऐसी ही प्यासी हैं
बिना ध्येय के गुर्राहट भी बस एक उबासी हैं

पर ज्ञान  है, तो म्यान है
म्यान है तो अभियान है
अभियान है तो जग अपना है
करुणा पर ही ध्यान है

तलवारों को म्यान दिखाओ
दिशाहीन को अभियान दिखाओ
शांति पाठ का ज्ञान  दिखाओ
चक्रवर्ती को दान दिखाओ

नहीं तो तलवारें तो अपनी प्यास बुझाएँगी
कई युगों तक  संतानों को ऐसे ही खाएँगी
करुणा है तो विजय है, विजय है तो मान है
म्यान है तो अभियान है
म्यान है तो अभियान है