आदर्शवाद की परछाई में
अपना मौलिक स्वाद ना खो
सामाजिक हल्ले में तू
मन से अपने संवाद ना खो
प्रवीणता की दिशा में चलते
दोषों से अपने वाद-विवाद ना खो
हरियाली बोते बोते प्यारे
प्राण देती खाद ना खो
मृत्यु के भयावह चेहरे को तक्ते तक्ते
पल पल में जीवन का आशीर्वाद ना खो
विजय की प्रचंड ध्वनि में
हार का हल्का हल्का नीनाद ना खो
आदर्शवाद की परछाई में
अपना मौलिक स्वाद ना खो
3 comments:
सुन्दर कविता!
बनी रहे मौलिकता...!
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, मैं रश्मि प्रभा ठान लेती हूँ कि प्राणप्रतिष्ठा होगी तो होगी , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बहुत सुंदर ।
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