Dreams

Friday, September 30, 2011

तेवर !! Copyright ©


जैसे भूचाल की चाल थर्राए धरा
जैसे उमड़ता सागर चिल्लाये ज़रा
जैसे तूफानों का वेग मचाये तांडव
वैसे मेरे अन्दर भी है एक स्पंदन
मेरा सुसज्जित मन, मेरा आभूषण, मेरा जेवर
हैं ऐसे मेरे तेवर




जैसे माँ करवाए स्तन पान शिशु को
जैसे दान दिया जाए घर आये भिक्षु को
जैसे प्रेमी सहलाए प्रेमिका के चक्षु को
जैसे मन हो मंदिर, और हो किसी साधू का सा घर
हैं ऐसे मेरे तेवर


जैसे सरहद पे खड़ा सिपाही अपने प्राण देने को हो आतुर
अपना जीवन दाव पे लगाये जैसे वो बहादुर
जैसे स्पर्धा भागते घोड़े के दौडें हैं खुर
जैसे मन से , तन से, काया से निकाले है कोई डर
हैं ऐसे मेरे तेवर


सिंह दहाड़े जब शिकार दबोचे हो वो
बगुले की सी स्थिरता जब एकाग्र संजोये हो वो
कौए के प्रयास जब एक एक कंकड़ चुनता हो वो
जैसे कछुए की धीमी चाल उठाये उसका स्तर
हैं ऐसे मेरे तेवर


जैसे एक सोच और धोती ने एक देश को आज़ाद किया
जैसे मोह को त्यागते ही सिद्धार्थ , बुद्ध हुआ
जैसे पीड़ा हरती एक बुधिया ने सद्भावना का प्रमाण दिया
जैसे एक यात्री का कभी न होता ख़त्म है सफ़र
हैं ऐसे मेरे तेवर


तो जो घबराए , शर्माए, डरके दुबक जाए
मात्र प्रेम , भिक्षा दान और अहिंसा से दूर जाए
वो इस तेवर को न समझेगा
वो इस जेवर को न समझेगा
मेरे तेवर समझोगे तो समझोगे
जीवन कितना बड़ा वरदान है
उसे एक तेवर से जीना ही
विधि का एकमात्र विधान है!


बादशाहों से तेवर
शेरों से तेवर
विजेताओं से तेवर

Monday, September 26, 2011

नशा ! Copyright ©


कोई जाए मयखाने में
कोई धुंए में उड़ा दे ज़िंदगी
नशा शराब का चखा किसी ने
किसी ने धुंए से तकदीर लिख दी
किसी को नशा हुआ ताक़त का
किसी ने भक्ती कर ली
सारे नशे चढ़े ऐसे जैसे
चढ़ती है जवानी
और ऐसे उतर गए भी जैसे
ख़त्म होती कहानी
मुझे तो ऐसे नशे की तलाश है
जिस से शरमा जाए जवानी
खाली बोतल ना हो जिसकी
कभी न उतरे जिसकी रवानी
ऐसे नशे में चूर रहके मैं
हरदम गिरा रहूँ..
हरदम साकी, पिलाये मुझे और मैं
उस नशे में मिला रहूँ



वह नशा क्या, जो ढलती शाम सा क्षितिज में मिल जाए
वह नशा क्या, जो साकी के जाते साथ ही घुल जाए
जो चढ़े सुरूर सा, फिर जकड़े सर को फिर उतर जाये
मादकता का पूर्ण रस जो ना पिला पाए
सोचा प्रेम में ऐसा नशा होगा,
वह लहराते बालों से आएगी, कमर की लचक पे
जाम भरके आएगी
और अपनी मदमस्त निगाहों से नशे में चूर कर जायेगी
वह नशा भी , जल्दी उतरा
और उतरते ही सर जकड़ा,
जैसे धीरे धीरे वह चढ़ा था, वह सुरूर कहाँ रुका था


फिर सोचा क़ि क्यूँ न ताक़त का नशा आजमाया जाए
जाम भरे जाएँ और उसे ठुमरी समझ के गाया जाए
जैसे मुकुट धरा गया सर पे, वह नशा भी उतर गया
इतनी कालिख देखि वहां पे कि सारा नशा बिखर गया


पर अब उस नशे की बूँद मेरी जिव्हा पर पड़ी है
ऐसा सुरूर , कि बस जैसे सामने अप्सरा कड़ी है
नशा सौ बोतल का इसमें , और सौ जन्मो का इसका साथ
फीके पद गए तख़्त और फीकी पद गयी हर बिसात
ऐसे सपने मन बुन रहा जैसे, चाँद साकी बनके धरती पे आया हो
और अपनी शीतलता के जाम साथ भर लाया हो
कभी न उतरने वाले इस नशे में मैं चूर हूँ
तुम सबके जाम ख़त्म हो जायेंगे..सुरूर धुल जाएगा
और मेरा साकी हरदम मुझे ऐसे ही बैठा के पिलाएगा
जाम-इ-ज़िंदगी , शाम-इ-ज़िंदगी, मेरा मदिरालय गायेगा


चढ़ाव तुम भी ज़िन्दगी का नशा
हो जाओ चूर मेरे संग
उतरेगा न सुरूर वादा रहा
जीलो मेरे संग!

शटल कॉक !! Copyright ©



कभी इस गली कभी उस डगर
कभी कभी तो नया शहर
कभी तारों से बातें
तो कभी भीगते छाते
कभी इसपे लिपट कभी उसपे भौंक
ज़िंदगी बन गयी है शटल कॉक




कभी भूके पेट तो कभी मदिरा की नदियाँ
कभी पकी फसल तो कभी कच्ची कलियाँ
कभी प्रेमिका की ज़ूलफें,
तो कभी माँ के पीठ की पीड़ा
कभी इस मुहल्ले तो कभी वो चौक
ज़िंदगी बन गयी है शटल कॉक


कभी भूक हड़ताल तो कभी सिंवैइयाँ
कभी रुदाली गान तो कभी बने गवैया
कभी शतरंज की बिसात
तो कभी मस्त साटोलिया
कभी वीराने मंज़र तो कभी नवाबी शौक
ज़िंदगी बन गयी है शटल कॉक

कभी ब्रह्म कमाल तो कभी काँटे
कभी कभी तो केवल सन्नाटे
कभी खून की होली कभी माथे की रोली
कभी जन गण मन
तो कभी क्रिकेट की हार का शोक
ज़िंदगी बन गयी है शटल कॉक


कभी इसनी मारा, कभी उसने पीटा
कभी इस ओर, कभी उस ओर घसीटा
मेरे दिल को भी कभी तो सस्ते मे बेचा
कभी दिल से दुआयें कभी दिया धोक
ज़िंदगी बन गयी है शटल कॉक


हर बार ऐसे इधर उधर फिरता रहूँगा
पर गगन में तो उड़ता रहूँगा
जब धरा पे आने का बहाना मिलेगा
किसी ना किसी से भिड़ता रहूँगा
'चिड़िया' तो हूँ मैं , गगन मे भी उड़ता
चलो तुम भी कर लो पूरे अपने शौक
क्यूंकी मैं हूँ शटल कॉक,
मैं हूँ शटल कॉक
मैं हूँ शटल कॉक!

Wednesday, September 21, 2011

वो ऐसे ! Copyright ©
















वो ऐसे मुस्कुरा उठी मेरी मौत की खबर सुनके
जैसे तड़पते दिल को बुझा देता है पानी
मेरे जनाज़े का मंज़र उसके आने से जगमगा उठा
जैसे पूरी हो गयी हो अधूरी कहानी
मैने तो इश्क़ ही किया था, दिल ही दिया था
उसने जान देने का वादा ले लिया मुझसे, मेरी ही ज़ुबानी


साहिल जैसा सूखा था मन, रेत सा था प्यासा
और वो निकली सागर का सा खारा पानी
वो तूफान सा मेरे सपनो का महल ढहा गयी
और मैने उसे गले लगाया था समझ के मौजों की रवानी
बर्फ अपने मुक़द्दर समान , अपने ही पानी में मिल है जाती
मेरे तो हिस्से ना आया वो भी पानी


अब तो तस्वीर बनके लटका हूँ कहीं किसी पुरानी दीवारों पे
इश्क के समंदर में बह गयी मेरी जवानी
वो ऐसे मुझे निहारे जा रही है अब तो जैसे
मैं हूँ उसकी बुनी हुई कहानी
अंजाम चाहे मेरा , हुआ हो ऐसा , चाहे मौत ने गले लगाया मुझे
वो ऐसे ही मुस्कुराए और गुनगुनाए दास्तान-ए-इश्क़ अनुपम ध्यानी

Tuesday, September 20, 2011

हो जाए! Copyright ©


इंद्रधनुष के रंगो सा जीवन मेरा हो जाए
चाहे छोर मिले ना उसका , बस गीला सवेरा हो जाए
क्षण क्षण में जी लूँ मैं और पल पल को करूँ प्रणाम
हृदय मे मेरे बस ईश का बसेरा हो जाए






बिन बरखा ही मेरा मन मयूर नृत्य सा पगला हो जाए
सारी थकान, सारी चिंता, जीवन रस में खो जाए
भोर में मेरी कूची दौड़े नये रंगों की ओर
शाम होते ही मेरा जीवन , फिर कोरा काग़ज़ हो जाए

कल कल बहते पानी सा जीवन अमृत धारा हो जाए
हाथ बढ़ें देने को और नयी पौध मेरे हस्त बो जाए
फसल पकने का हो धैर्य और साहस हो उसे काटने का
दाना दाना खिल उठे, खुशी से मन मेरा रो आए

भौतिक सुख से ऊपर उठके , जीवन मेरा मोह रहित हो जाए
प्रेम निकले रग रग से मेरे, आँसू मन धो जायें
छलकते जाम हो हर ओर, मादकता जीवन में रहे हरदम
सारे पल समेट पाऊँ मैं, हृदय जीवन रस में खो जाए

फैले पंखों से उड़ान भरूं, जीवन अथाह आकाश हो जाए
बूँद बूँद से सागर बनता, वो बूँद प्रशांत हो जाए
हर कण का स्वाद चखूं मैं, हर स्वाद में अमृत हो
मेरे जीवन का हर पल, स्वयं में एक वृतांत हो जाए

हो जाए, हो जाए, बस ऐसा हो जाए!

Monday, September 19, 2011

फुसफुसाती पंखुड़ियां Copyright ©


बरसात ख़त्म होने आई है और भीगी धरा नहाई है
ऐसे मे हरी पत्तियाँ और फुसफुसाती पंखुड़ियाँ गाईं है
सारे राग जो पंखुड़ियों ने छुपा के रखे थे
आज मेघ मल्हार सा वो भी गुदगुदाइं है




क्या राज़ छुपा है इनके भीतर, फुसफुसते हुए यह क्या कहती हैं
क्या है इनके भीतर जो यह हरदम दबा के रहती हैं
प्रेम रस से ओताः प्रोत यह पंखुड़ियाँ तो कान्हा के चरनो की दासी हैं
राधा जैसी यह भी कनहिया के मन मे यह वसुधारा सी बहती हैं


मुझे इन पंखुड़ियों की फुसफुसाहट में वेदों सा स्वर मिल जाता है
इनके गुदगुदाने से जीवन का भार मिट जाता है
गुलाबी, पीले, नीली और सुर्ख लाल इनके रंगो का इंद्रधनुष ही अब तो
मेरे मन को भाता है


पंखुड़ियों, अपनी सादगी ज़रा मुझे भी दे दो , मैं भी युगों युगों से प्यासा हूँ
तर बतर होने को आतुर हूँ, मैं भी बेरंग ,नीरस, सा हो जाता हूँ
फुसफुसाओ मेरे कानों में और , आत्मा को वरदान दो
मेरे जीवन को भी ऐसी ही सादगी, ऐसे ही महक प्रदान करो

Tuesday, September 13, 2011

अंततः Copyright ©








निर्जीव आँखें भोर होते ही जगमगा उठीं
धुंधलेपन को चीरती निगाहें चिल्ला उठीं
मार्गदर्शक ना मिला पर हुईं यात्रा पर अग्रसर
अंततः जाके वो भी अंधकार में समा गयीं

भूमंडल में भ्रमण करती चीखें सत्य का प्रमाण हैं
कोलहाल मंडराता चहुँ ओर एक बहुत बड़ा सवाल है
ग्रीष्म की ठंडी शाखों सा मन कंपकपाता है
पर अंततः तो वो भी चिता मे स्वाहा हो जाता है

यदि अंततः सब राख ही हो जाना है
तो फिर यह जीवन तो उस अंतिम सत्य की ओर अग्रसर एक बहाना है
अंततः जब अनसुने अनकहे विचार माटी मे ही मिल जाने हैं
तो प्रासफुटित अंकुर तो आरंभ से ही मारा हुआ दाना है

अंततः क्या? अंततः क्यूँ? अंततः कैसे?
इनका उत्तर तो अंततः ही आना है..

Thursday, September 8, 2011

निर्भीक Copyright ©


बहुत दीनो से मन में ऐसे तूफ़ानों का उबाल था
जैसे पूरा जीवन एक बहुत बड़ा सवाल था
शब्द से नग्न था मन , चित्त भी बेहाल था
पर शून्य से राह ढूँढने का ही तो कमाल था
उठ खड़े हुए रोंगटे, रीड की हड्डी चिलमिला गयी
जब निगाहों के आगे बिखरे रेत के महल देखे
पर यह सपनो के ढाँचे ही तो मेरे हृदय का हाल था


तो उड़ती पतंग के मांजे सा किया मन मजबूत
कमर कस के तीखी निगाहों ने किया इरादे को प्रत्याभूत
मन ही मंदिर मन ही विषम परिस्थितियों से बचाता ढाल था
कुछ तो है इरादों में जो जान फूँक देते है हर गिरते पत्ते पर
कुछ तो है साँसों में जो प्राण फेर देते है सूखी शाखों पर
मेरी टूटी काया को ऐसा अमृत पान कराया इन्होने
कुछ तो है जो हर बार गिरके संभालने का साहस प्रदान करता हर
मुरझाए पत्ते कब हरा कवच फिर से पहें लेते, पता नही
सूखे शब्द भी ना जाने कैसे किसी को जीवन प्रदान कर देते, पता नही
पर जैसे ही यह अभ्युधयान हो जाता, जीवट से भरती गागर
जैसे ज्वार भाटा सा मन हो और हो मन अथाह सागर


तो हे सूखे पत्ते , हे सूखी डाल
इरादों को ना छोड़ कभी, ना कर विश्वास पे सवाल
साँस जो तेरे अंदर है बाकी तो भर ले उसे और बढ़ आगे
परिस्थितियाँ तो बहुत आएँगी , पर तू उभरेगा , हराएगा यह काल
बगुले सा एकाग्र धर और , काक सा हो तेरा प्रयास
मन में कर मंथन और निकाल उस से विश्वास
इरादों को फौलाद कर तू , चट्टान सा उन्हे खड़ा कर
फिर अपने सपनो के महल बना और सज़ा के रख अपने पास


अंधकार तो आने वाले उजाले का प्रतीक है
यदि यह विश्वास है तो तेरा निशाना एकदम सटीक है...
जीवट है तो तू सूखा पत्ता नही.. तू निर्भीक है
इन शब्दों की यह ही बात, यह ही इनकी सीख है!