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निर्जीव आँखें भोर होते ही जगमगा उठीं
धुंधलेपन को चीरती निगाहें चिल्ला उठीं
मार्गदर्शक ना मिला पर हुईं यात्रा पर अग्रसर
अंततः जाके वो भी अंधकार में समा गयीं
भूमंडल में भ्रमण करती चीखें सत्य का प्रमाण हैं
कोलहाल मंडराता चहुँ ओर एक बहुत बड़ा सवाल है
ग्रीष्म की ठंडी शाखों सा मन कंपकपाता है
पर अंततः तो वो भी चिता मे स्वाहा हो जाता है
यदि अंततः सब राख ही हो जाना है
तो फिर यह जीवन तो उस अंतिम सत्य की ओर अग्रसर एक बहाना है
अंततः जब अनसुने अनकहे विचार माटी मे ही मिल जाने हैं
तो प्रासफुटित अंकुर तो आरंभ से ही मारा हुआ दाना है
अंततः क्या? अंततः क्यूँ? अंततः कैसे?
इनका उत्तर तो अंततः ही आना है..
1 comment:
वैचारिक उथल-पुथल का सटीक चित्रण!
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