स्थिर और स्थाई में अंतर है
एक बहना नहीं जानता
एक बहा पहले निरंतर है
स्थिर और स्थाई में अंतर है
स्थिर, थिरका करता था कभी
अब पद्मासन में विलीन है
अनुभव की धारा में
बह बह के थिरकन थमी है
जिसमे आत्म्बोध की
सुनहरी परत जमी है
जिसने सूर्य की सलामी ली है
मदिरा सी जवानी जी है
जिसने भाग्य को ललकारा है
भय को जिसने डकारा है
जो आदि से है, अनंत तक
और चेतना से, अमर है
वो स्थिर है
स्थाई लंबायमन है
ना गौरव है ना शान है
जिसमे भय को ललकारने की
गर्मी नहीं है
और इस बात से पानी हो जाने की
बेशर्मी नहीं है
जो जीना नहीं जानता
जो अमरता नहीं मानता
जो मर कर भी
उस पार नहीं फांदता
जो ना बांझ है
ना उपजाऊ है
ना भाला है किसी के हाथ का
किसी के पैर का ना है खड़ाऊ
जिसने विजय का प्याला नही चखा
ना ही मूह की कभी खाई है
वो स्थाई है
स्थिर और स्थाई में अंतर है
एक बहना नहीं जानता
एक बहा पहले निरंतर है
स्थिर और स्थाई में अंतर है
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