जो कहते हैं, मेरी कविता
भारी भरकम शब्दों से लैस होती है
उसमे मिठास कम होती है
उन्हे नहीं पता
मेरी कविता किस किस का भार ढोती है
जब घर लौटे सैनिक के ताबूत पर
माँ रोती है
उन आँसुओं का भार
मेरी कविता ढोती है
जब राष्ट्रा निर्माण के लिए
एक सिंग खड़ा अकेला
और बाकी सब की आवाज़
उसके खिलाफ एक हथियार होती है
मेरी कविता उस सिंग
की दहाड़ होती है
जब पिता के कंधे
झुका दें बेटे के कर्म
पाप से रंगे उसके दुष्कर्म
उसे हर बार मुआफ़ करने की
शक्ति नही होती है
उसे क्षमा करने का भार
मेरी कविता ढोती है
जब चट्टानें खड़ी हों
हर मोड़ पर
जब प्रश्न चिन्ह लग जाए
तुम्हारे ज़ोर पर
जब धराशाही हर
उम्मीद होती है
तब कविया मेरी
उन चट्टानो को चीरती
धार होती है
जब प्रशंसा दुर्लभ हो
और निंदा हर बार होती है
श्रम का फल ना मिलने पर भी
कर्मठता तेरी अपार होती है
उस जुझारू तेरी लगन को
मेरी कविता दंडवत हो,
उसे प्रणाम करती
एक ललकार होती होती है
दयनीय, दंडनीय
घृणित, निंदनीय
जब संसार से ही
मानवता खोती है
उस पतन का भार
मेरी कविता ढोती है
तो भारी हो या भरकम हो
उन मानवता के शवों को
लयबद्ध करने की ज़िम्मेदारी
मेरी कविता की होती है
कड़वाहट से नहा के
पंक्तियों में मेरी मिठास कम होती है
क्यूँकि मेरे शब्द, पंक्तियाँ, मुक्तक, कविता
कई कई भार ढोती है
कई कई भार ढोती है
~ © अनुपम ध्यानी
1 comment:
बहुत ही उम्दा लिखा है आपने | आज कि स्थिति को बखूबी उकेरा है लफ़्जों में
Post a Comment