भविष्य मे भूत की कामना करता मन
बुझती लौ की धधक, मशालों का उद्द्वेलन
इतिहास मे नाम अंकित करने की कामना करने की जलन
भस्म हुआ जा रहा है मेरा आज, मेरा चिंतन
कुछ कर जाऊं गांडीव -धारी पार्थ सा,
धर्मयोगी,धर्मराज के धर्मार्थ सा
जनक की सभा में अष्टवक्र के शास्त्रार्थ सा
त्यागधर्मी महापुरुषों के पुरुषार्थ सा
परंतु इच्छाओं की सीमा लाँघ नहीं पाता
कर्मठता का सेतु बाँध नहीं पाता
स्पंदन होता है हृदय में परंतु
आलस्य से बँधे पैरों से
सोच से अवतरण के बीच की खाई को
लाँघ नहीं पाता
काल्पनिक सभायें बनाता हूँ
उनमे स्वयं प्रतिष्ता पाता हूँ
पारतो शिक की घोषणा भी स्वयं ही करता
हर सम्मान, हर उपाधी को सीने से लगाता हूँ
जब सभा समाप्त होती
तो स्वयं को पुनः
दारिद्रय का चोगा पहनाता हूँ
यदि ऐसे सागर मे तुम भी प्रतिदिन सामाते हो
काल्पनिक सभायें, स्वप्न मंदिर बनाते हो
इच्छाओं के कमरे बना बना,फिर दीवारें गिराते हो
कर्म करने से घबराते हो परंतु
अपनी धुंधली परिस्थिति से
औरों को दृष्टि दिलाते हो
तुम कवि हो.....
तुम लोगों को दर्पण दिखाते हो
आंतरिक तांत्रिक को तुम जगाते हो
वशी भूत करने की क्षमता
है तुम में,
तुम अनजाने में उसका सदुपयोग कर जाते हो
परंतु तुम ना होगे तो
विश्व, सुनेहरा दिखेगा हरदम
कड़वाहट को तुम प्रत्यक्ष कर जाते हो
फिर उस विष को धारण कर, नीलकंठ हो जाते हो
और डमरू के स्वर सा, उसे छंदबद्ध कर जाते हो
और एक दिन भविष्य की और मार्गदर्शन करते करते
तुम किसी पन्ने मे लुप्त हो जाते हो
भुला दिए जाते हो,
फिर जब कोई मार्ग से भटकता है,
तुम्हारे शब्दों को झटकता है
तुम ऊर्जा, तुम स्पंदन,
परमात्मा का आभास बन जाते हो
महाकवि कहलाते हो
ऐतिहासिक स्वर्ण अक्षर
हो जाते हो