जीवन का वेग
मुझे निचोड़ रहा है
मेरे हाथ काँप रहे हैं
स्पर्धा में पीछे आने का भय
मुझे कचोट रहा है
मैं तो विफलता का ध्वज भी
अट्टहास के साथ लहराता था
पर अब वो ध्वज भी
मुझे फंदे जैसा घोट रहा है
एकांत में जा के मैने
कुछ बातें बचपन की याद की
जब पहली बार पिताजी
गुब्बारा लाए थे
और कहा था
"साँस भरो बेटा...लंबी साँस
इस क्रिया में हर क्षण का करो आभास
और फूँक दो प्राण इस गुब्बारे में
मिला दो मिठास, खारे में"
अपने छोटे फेफड़ों में मैने
स्वास भरा
पूरा, लंबा..
और सिकोड दिए प्राण
फिर गुबारे के छोर को मूह से लगा
छोड़ दिए पूरे वेग से स्वास के बाण
जैसे जैसे हवा गयी, गुब्बारा फूला
ब्रह्मांड रूपी, चमकदार
मेरी पहली रचना का बना जैसे आधार
फूलते साथ ही पर पिताजी ने
किया एक सुई से प्रहार
फुस्स...
आशा
हर ओर निराशा
आंसूओं के खारेपन ने
चहु ओर दुख तराशा
मैं बिलकते हुए पूछा
"आपने क्यूँ मेरा गुब्बारा फोड़ा
क्यूँ मेरे प्रयास को तोड़ा
क्यूँ मेरा गुब्बारा ना बनने दिया
क्यूँ सब उम्मीद को मरोड़ा?"
पिताजी ने स्नेह से गले लगाया
फिर रहस्य खोला
"बेटे, साँस तुम्हारी छाती में है
उसे गुब्बारे में क्यूँ समेटना?
ब्रह्मांड चहु ओर है, उसे
परिधि में क्यूँ लपेटना?
गुब्बारे में हवा
एक दिन बासी हो जाएगी
फिर कोई सुई चुभो देगा
ज़िंदगी, उदासी हो जाएगी
एकत्र करते करते
अपना स्वास ना व्यर्थ कर
इसे गुबारे में भर कर
ब्रह्मांड का अर्थ, न अनर्थ कर
स्वास ब्रह्मांड का हिस्सा है
उसे एकत्र नहीं किया जाता
जो सब ओर है उसे गुबारे में भर कर तो
सर्वत्र नहीं किया जाता"
मुझे तो तब गुबारे की पड़ी थी
पिताजी की निर्दयता
और मेरे आँसुओं की दीवार
हमारे बीच खड़ी थी.
अब समझा हूँ....
एकत्र करते करते
गुबारे फुलाते फुलाते
साँस फूल गयी है
जो स्वास उड़ान के काम आना था
वो गुब्बारों में भरा है
जीवन स्थिर खड़ा है
भौतिक चीज़ों का गुब्बारा
समाज का गुब्बारा
परिवार का गुब्बारा
ब्रह्माड़ मेरा गुब्बारों में भरा है
कई बार यह गुब्बारे
सुई से चुभो भी दिए हैं
मैं फिर उन्हे भर देता हूँ
जीवन जीना का "कर" देता हूँ
अब सारे गुब्बारे मैं स्वॅम फोड़ दूँगा
मुझे स्वतंत्र होना है
साँस भरनी है और उड़ना है
पीछे नहीं मुड़ना है
पंख फैलाना है, जिसमे शान है
स्वतंत्र जीवन ही महान है
जहाँ
ना गुब्बारे हैं, ना बंदी ब्रह्माड़ है