नित्य नीति
नियम ध्यान
और कर्मठता की
मूरत तू
सौम्यता और सौंदर्य
की प्रतिमा
अप्सरा सी सूरत तू
हर प्रेमी की कल्पना
में तेरी ही
परछाई है
ब्रह्मचारी के मन में भी
साधना तोड़ती भावना
तूने ही जगाई है
कवि स्याही से शब्द बुने
या लहू से अपने वाक्य गढ़े
प्रेमिका के वियोग का
या फिर पंक्ति में ही अश्क चड़े
ये धधक भी उसके मन में
तूने ही जालई है
जिस लौ के पीछे
हर पतंगा भस्म हुआ है
या फिर उसकी काया ही
मुरझाई है
वो नष्ट करती दावानल
भी तूने ही लगाई है
रूप और यौवन से अपने
तूने कई नावें डुबॉयिन हैं
ढक ले अपना रूप ओ सजनी
उसमे ही
इस दुनिया की भलाई है
ढक ले अपना रूप ओ सजनी
उसमे ही
इस दुनिया की भलाई है