Wednesday, December 14, 2011
जश्न-ए-बहारा ! Copyright ©
जब खुश रहने की कीमत चुका चुका ,
कंगाल हो गया.
तब मालूम हुआ क़ि ..
आंसू जो छलके थे..वह अमृत धारा थे...
काँधे जो झुके थे वो किसी का सहारा थे...
कमर जो टूटी वह चौड़े सीने का इशारा थे....
और वह आंसू...
जाम-ए-ज़िन्दगी...
जश्न-ए-बहारा थे
जब कोशिश कर कर थक गया था
तब मालूम हुआ क़ि
वह हार, जीत की ओर इशारा थे
वह बहते लहू की बूँदें...माथे के तिलक की धारा थे
वह ज़ख्म, शहंशाह के ताज का सितारा थे
और वह थकान
आराम-ए-बादशाह
नवाब-ए-शिकारा थे
इल्म-ए-किस्मत
ज़ख्म-ए-मोहोब्बत
खून-ए-तख़्त
यह सब....
दूर नदी को पार करके
केवल एक किनारा थे
ज़िंदगी तो लम्हों में जी जाती है
लहरों में समेटी जाती है
बाकी सब साए,
केवल तस्वीर को पूरा करती कीलें
उसे थामते, सहारा थे
ज़िंदगी..
खुशनुमा लम्हों में समेट ले ए बन्दे
यह लम्हे ही तेरी कहानी के सितारा थे
जाम-ए-ज़िन्दगी
जश्न-ए-बहारा थे
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1 comment:
आंसू जो छलके थे..वह अमृत धारा थे...
हृदयस्पर्शी पंक्ति...! मन भींग गया!
शुभकामनाएं!
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