Dreams

Wednesday, February 17, 2010

रुक जाओ! Copyright ©


रुक जाओ!

सोच रहा था मन में अपने

नयी रचना होगी क्या

प्रेम, गुलाब,हर्ष उल्लास

या फिर ऋतुओं का विवाह?

विस्फोट की गूँज में

हो गए सारी सोच गोल

नफरत इतनी मानवता में

लहू से लत्पत मेरे बोल।


बारूद भरा है मन में अपने

सीने में हथगोले बसते

द्वेष और घ्रिना की चिंगारी

प्रज्वलित करते हस्ते हस्ते।

कहाँ गयी हमारी शिष्ट

दया का भाव क्यूँ खो गया

नर भक्षक हो गए सब

विवेक सबका क्यूँ सो गया?

शुतुरमुर्ग की भांति

धसा दिया सर मिटटी में

अंधे होके जला रहे

एक दूजे को श्रिष्टी में।


दाग रहा है जो गोले

आत्मा उसकी भी मरी नहीं

ऊंचा सुनते है हम तो

धमाके की गूँज सही।

इतने बहरे न हो जाएं

की प्रतिदिन ज्वाला मुखी फटे

सामूहिक निषेद न हो जाए

कि नित दिन विस्फोट घटे।


जनमानस से गुहार है मेरी

अपने अन्दर प्रेम बढाओ

स्नेह से ओतः प्रोत हो ह्रदय

आत्मा जैसे संतों के खडाऊ।

गले लगा लो उनको जो

भीतर की आग से जला रहे इस जग को

आने वाले समय को समझो

पहचानो उसकी रग रग को।

प्रेम बहुत है चहुँ ओर

उसकी ओर पग बढाओ

नष्ट करदो

अन्दर के दानव को।

मन में ऐसा भाव जो आये

एक क्षण

रुक जाओ

रुक जाओ!




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