Dreams

Sunday, February 21, 2010

सन्नाटा ! Copyright ©


सन्नाटा था चहुँ ओर

दबे पाऊँ आई एक दिन वोह

खून की चूनर ओद के

पूरा शेहेर जब रहा था सो।

लाल हो गयी धरा यह अपनी

आसमान अंगार हुआ

बिखरी लाशो का ढेर बन गया

मांस का लोथडा बिखर पड़ा।


पता उसे था

सो रहा था मेरा ज़मीर

खून की होली खेले वोह तो

देखूंगा मैं खड़ा खड़ा।

गहरी नींद सो रहा मैं

मौत का तांडव सुन रहा

आंसूं हो रहे अंगार , फिर भी

रंग रहा मैं पड़ा पड़ा।

नपुंसक हूँ मैं, उसे पता था

कुछ नहीं कर पाउँगा,

अपने डर को किसी की अक्षमता

के पीछे छुपाऊंगा ।


बार बार हो रहा यह मजमा

उसके खून से लटपट हाथो से

बचा सकूँगा शेहेर को अपने

क्या उसके भयावह घातों से?

पता उसे है जब तक बो रहे है नफरत हम

घ्रिणा द्वेष ,खून खराबा और आपसी जलन

तब तक हर दिन, हर रात सन्नाटा है

क्यूँकी सोते ज़मीर को

सिर्फ धमाका ही जगाता है

और क्रोध, घ्रिना और नफरत को

हमेशा लाल ही पोता जाता है!

हमेशा लाल ही पोता जाता है!

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