प्रांगण में खेले
दिल बहलाने को हम
उसने जग जीत लिया
लाठी, भाले, ढाल को छोड़
बल्ले से ही भयभीत किया।
थर थर कांपे सारे सैनिक
परचम विजय का लहरा दिया
हथगोले फेंके सबने उसपे
उसने सब सीमा पार किया।
छोटे कद पे न जा बन्दे
श्रम से बनी है जड़े उसकी
कड़ी तपस्या से बनी
है अचूक, तीव्र उसकी दृष्टी।
सौम्य स्वाभाव का है वोह मानुष
अंतर्मन में तूफ़ान छुपा
क्रोध को वश में करके
उसने अपना संसार रचा।
शांति से मैंदान में जाता
पर धुआंधार गोले बरसाता
अपनी सक्षमता के ध्वज पे
अभिमान का रंग नहीं चढ़ाता।
स्तोत्र रचूं मैं तेरे लिए
ग्रन्थ करूँ तुझपे समर्पित
शब्दों से मैं क्या रच पाऊं
तेरे कला और निष्ट की
जो करती पूर्ण देश को
अपनी बल्लेबाज़ी से गौरान्वित।
कितने आये, कितने देखे
तेरे जैसा न कोई हो पाया
खेल जगत में भारत का
जिसने इतना श्रेष्ट स्थान बनाया।
धर्म हमारा खेल ये है तो
देवाधिदेव बस तू ही है
हर श्रृंखला का बस तू ही पंडित
पुष्प,दीप, और आराध्य बस तू ही है।
राज्य कर रहा है तू
हो गए अब दो दशक
सारे अभिलेख तेरी जेब में
अर्ध पूर्ण और दो शतक!
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