Dreams

Monday, February 1, 2010

कटे हाथ ! Copyright ©


लोकतंत्र की नीव धरी

थी श्रम्हारा हाथो से

संरचना की थी समृध समाज की

दूरदर्शी बातो से।

श्रम से हमने देश रचा था

प्रेम से गमले को सींचा था

क्यूँ अब हम काट रहे यह

फसल अपनी बर्बादी की

क्यूँ है लहू – लुहान यह जननी

छाती क्यूँ है फट रही धात्री की?


प्रजातंत्र को जेब में लेकर

घूम रहे ठेकेदार

चोरी, दगा और घूस खाके

कर रहे देश का बलात्कार।

उत्तरदायी कौन यहाँ पे

सब का है यह कारोबार

संपन्न हो रहे और समृध

दारिद्रय हो रहा सीमा पार।


श्रमिक फसा है बीच में इनके

नितदिन पत्थर तोड़ रहा

विश्वास उसे है

सपने पूरे होंगे एक दीन

पायी पायी जोड़ रहा।


सोच रहा वोह इक दिन

भाग्य का सूरज चमके गा

हथेली पे धरके स्वर्ण मुद्रा

वोह भी एक दीन खेलेगा।

नहीं ज्ञात है उसको लेकिन

निरंतर चलेगी यह रात

न कोई सूरज न कोई मुद्रा

छीन चुके हैं उसका भविष्य

उसके हिस्से केवल कटे हाथ

केवल कटे हाथ!

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