Dreams

Monday, September 19, 2011

फुसफुसाती पंखुड़ियां Copyright ©


बरसात ख़त्म होने आई है और भीगी धरा नहाई है
ऐसे मे हरी पत्तियाँ और फुसफुसाती पंखुड़ियाँ गाईं है
सारे राग जो पंखुड़ियों ने छुपा के रखे थे
आज मेघ मल्हार सा वो भी गुदगुदाइं है




क्या राज़ छुपा है इनके भीतर, फुसफुसते हुए यह क्या कहती हैं
क्या है इनके भीतर जो यह हरदम दबा के रहती हैं
प्रेम रस से ओताः प्रोत यह पंखुड़ियाँ तो कान्हा के चरनो की दासी हैं
राधा जैसी यह भी कनहिया के मन मे यह वसुधारा सी बहती हैं


मुझे इन पंखुड़ियों की फुसफुसाहट में वेदों सा स्वर मिल जाता है
इनके गुदगुदाने से जीवन का भार मिट जाता है
गुलाबी, पीले, नीली और सुर्ख लाल इनके रंगो का इंद्रधनुष ही अब तो
मेरे मन को भाता है


पंखुड़ियों, अपनी सादगी ज़रा मुझे भी दे दो , मैं भी युगों युगों से प्यासा हूँ
तर बतर होने को आतुर हूँ, मैं भी बेरंग ,नीरस, सा हो जाता हूँ
फुसफुसाओ मेरे कानों में और , आत्मा को वरदान दो
मेरे जीवन को भी ऐसी ही सादगी, ऐसे ही महक प्रदान करो

1 comment:

अनुपमा पाठक said...

पंखुड़ियों की सन्निधि निश्चित ही सादगी प्रदान करेगी!