Friday, October 28, 2011
विस्फोट ! Copyright ©
समाज में गुनाह इतने पनपे हैं न जाने क्या हुआ है
हर कोने में मानवता का सडा लोथडा तिरिस्क्रित पड़ा हा
हर ओर नज़र घुमाओ तो चोट ही चोट है
यह कोई इत्तेफाक नहीं यह तो कलयुग का विस्फोट है
और कवि बनके मैंने चिंगारी भड़काई तो विद्रोही कहलाया गया
इन पापों के महलों के दरबार में मेरा मुक़द्दमा चलाया गया
" कवि तू क्यूँ अपने हाथ इन सब में डुबोता है,
क्यूँ तू शब्दों के बाणों से दे रहा हमारी छाती पे चोट
तुझे नेहला देंगे भौतिक सुखों में, होने दे यह विस्फोट"
इस विस्फोट की जड़ को कैसे साफ़ करूँ , कैसे नयी स्वच्छ पौध की खाद बनू
पापाचार से गठरी तो इन्हें जागीर में मिलने वाली है
कैसे इस गठरी को इनका सत्य होने से पहले बर्बाद करूँ
मेरी नियत में नहीं खोट, पर रोकूँ कैसे यह विस्फोट
प्रकृति का उद्गम भी हुआ था विस्फोट से
पर यह विस्फोट तो पैदा हुआ है आत्मा की चोट से
कोने में पहुंचाई बिल्लियों ने नोचना प्रारंभ जो किया
यह विस्फोट बीमारी फैलाता गर्भ हो गया
जड़ इसकी है कमजोरी जो युगों पहले जन्मी थी
कमजोरों की लाशों पे इसकी नीव पनपी थी
अब वो कमजोरी विस्फोट रुपी फूट रही
और मानवता मानव से धीरे धीरे छूट रही
मैं रोकूँ इसको और रोकूंगा मैं यह विस्फोट
चाहे हो जाए मेरी काया पे ही इसकी चोट
तुम भी रोको इस समाज में फैले विस्फोटक पदार्थ को
और एक नए भविष्य, नए जीवन के तुम भी पार्थ हो
जो भी होगा आने वाला भविष्य वो बस ऐसा न हो
जो दिखलाए तुम्हारे भीतर का खोट
बस हो जीवनदायी, कालिख रहित विस्फोट!
Thursday, October 27, 2011
बरगद Copyright ©
दक्षिणामूर्ति कल्पवृक्ष में विराजे शंकर
जटाएं धरती की ओर, मूल आकाश की ओर, पत्ते वेदंकर
कृष्ण कहे जो वट-वृक्ष जाने वो जाना वेद महत्त्व
इसी की छाया में सिध्हार्थ रचा बोधी सत्त्व
बरगद फैलाये अपनी बाहें , युगों युगों तक
जड़ में इसके ज्ञान बसा,पत्ते पत्ते में वेद
रखदे अपनी जटाएं धरा पे जैसे हो विराट अंगद
युगों युगों का इसका जीवन, यह अमृत पान कराता बरगद
समय की चादर को चीरती इसकी बाहें
स्थिरता, धैर्य,बाहूबल,सद्भावना फैलाती इसके निगाहें
पितृ-रुपी इसकी छाया
मात्र प्रेम सी इसकी काया
बुद्ध इसके नीचे बना बुद्ध
इसकी छाया है सुधा से शुद्ध
फल देना इसका ध्येह न हो चाहे
पर हर किसी को गले लगाता बाहें फलिये
बरगद जैसा बन पाऊं मैं
इसकी जड़ो के जैसे हो मेरा मन
इसके तने के जैसे काया मेरी
औरों की छाँव बने मेरा तन
आना चाहें सब मेरी संगत
हो जाऊं मैं ऐसा बरगद
दूर से देखो कैसे ऋषि रूप में है विराजमान
वेद ज्ञान का सितार छेड़े, गाये शास्त्र गान
ध्यान मग्न , हरी छाल ओढ़े , साधू सा रूप
अनेक साधना, सिद्दी संजोये, न जाने कितना है ज्ञान
कभी चरित्र है इसका प्रशांत सा, गहरा , शांत
कभी है अथाह आसमान सा, जैसे सितारों का प्रांत
जहाँ जम जाए , स्तम्भ बन जाए , छाया फैलाए
हो जीवन मेरा भी ऐसा, छायादार, विराट,
जैसे हो साधू, जैसे हो सम्राट
सबको हो इच्छा आने मेरी सांगत
हो जाऊं मैं ऐसा बरगद
हो जाऊं मैं ऐसा बरगद
हो जाऊं मैं ऐसा बरगद
Wednesday, October 26, 2011
मुझे तो कोई मुबारकबाद नहीं देता~ Copyright ©
मुझे तो कोई मुबारकबाद नहीं देता
मैं भी तो जिंदा रहने की पूरी कोशिश में हूँ
मेरी तो कोई पीठ नहीं थपथपाता
मैं भी तो मोहताजी साँसों की गर्दिश में हूँ
सांसें एक दिन थम जायेंगी, रगें यूँ ही जम जायेंगी
एक तरफ़ा प्यार ही बस कर पाएंगी
इन साँसों को कोई क्यूँ नहीं समझता
जो कहती हैं " मैं भी तो जिस्मानी बंदिश में हूँ"
मेरी घबराई रूह को कोई क्यूँ नहीं गर्मी देता
मैं भी तो एक पल को जी सकूँ
क्यूँ कोई इसे गोद में नहीं सहला जाता
मैं भी तो मासूम बिलकते बच्चे सा हूँ
खड़ा करके मैदान-ए- जंग में मुझसे पूछता है मुक़द्दर
लाशों का मंज़र पसंद है , या खून की खुशबू
और मैं बस इतना बोल पाता हूँ हर बार
मैं तो बस बिसातों के शिकस्त खाए बादशाहों सा हूँ
हवाओं ने कैंची पकड़ी है हाथो में , मेरी उड़ान के पर कुतरने
और मैं पूछता हूँ , मैं ही, बस मैं ही क्यूँ
हवाएं भी रो पड़ती हैं और कह देती हैं
तू उड़के क्या करेगा, तू आसमान को क्या छुएगा, तू तो बस धरती को छू...
मुबारकबाद न दे कोई, न लगाए गले से ज़िंदगी
न बहाए प्यार की कभी एक तरफ़ा ही नदी
मैं तो ठंडी पीठ की ठिठुराहट से ही बनाऊंगा गर्मी
मैं तो मौत की चादर ओढ़े , ज़िंदगी की महफ़िल में हूँ
मुझे तो कोई मुबारकबाद नहीं देता
मैं भी तो जिंदा रहने की पूरी कोशिश में हूँ
मेरी तो कोई पीठ नहीं थपथपाता
मैं भी तो मोहताजी साँसों की गर्दिश में हूँ
Tuesday, October 25, 2011
शुभ दीपावली Copyright ©
आज जलाना रावण को है
राम चन्द्र बन जाना है
द्वेष, घ्रिना और कालिख को मन से
राख में मिलाना है
सारी कालिख धो देनी है
सारा पाप मिटाना है
मन की लंका के कोने कोने में
आज राम राज्य बसाना है
अहंकार को आज देनी है आहुति
आलस्य को आज भस्म कर जाना है
मन मंदिर में दीप जगमगा उठे
ऐसा अनुपम आज बनाना है
सारे कौतुहल , सारी चिंता, सारे कीट पतंगों को ,मन के
आज स्वाहा कर जाना है
जो लंकेश बसा है मन में
उसे आज राम बनाना है
आकाश में टिमटिमाने से पहले
मन में आज टिमटिमाना है
बहार प्रसाद बांटने से पहले
आज भीतर भोग लगाना है
मन के दीपक की उष्ण गर्मी से
आज पूरा संसार सजाना है
राम राज्य का बसेरा करना
आज अयोध्या मन में ही बसाना है
सारे जग के विष को आज
नीलकंठ सा गले में समां जाना है
भेद भाव को भूल भूल के
मानुष को गले लगाना है
आज कामना यह ही केवल
मिट जाएँ, काम, क्रोध , मोह ,लोभ की भावनाएं
आज "जगे" हुए अनुपम की ओर से,
सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं
सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं
दीपावली की शुभकामनाएं.
Thursday, October 20, 2011
समझो तो ~ Copyright ©
मेरे बहते लहू के रंग में रंग जाए यह धरती तो
मेरे आंसूं के सैलाबों से यह गंगा भारती तो
मेरे अन्दर जो बहती है , जो सब सैलाब सहती है
जो समझो तो अमृत धरा , जो ना समझो तो पानी है
लब जो मेरे गीत गाते हैं, जो तेरा नाम जप जाते हैं
जो तेरे ही प्रेम का गान हरदम गुनगुनाते हैं
यह सारे सुर, ह्रदय के तार , तेरे प्रेम का संगम है
जो समझो तो तरन्नुम है, जो ना समझो तो गाली बन जाते हैं
बहुतों ने मेरी कविता की निंदा की, सराहा भी
किसी ने गाली दी, किसे ने इसे बे-इन्तेहा चाहा भी
मेरे बोल हर किसी के दिल तक पहुंचे येही इच्छा है
जो समझो तो मोहोब्बत है, जो न समझो तो रवानी है
जो गीता ने था समझाया , वो ही मैंने है दोहराया
जो कुरान-ए-पाक़ ने था फरमाया, वो मैंने भी है बतलाया
मोहोबात हो सभी लोगों में,मेरा यह ही डंका है
जो समझे तो आज़ादी है, जो ना समझे तो दंगा है!
जीवन की बिसातों पे , प्यादे मैंने भी रखे
कभी हराया भी, कभी कभी हार के स्वाद भी चखे
इन बिसातों के प्यादे होगे, क़ि होगे बादशाह कहीं के तुम
समझो तो खिलाड़ी हो, जो ना समझो खाओगे बस धक्के
मैं वो ही करता हूँ, जो मेरे मन को भाता है
सीख जाऊं सब कुछ मैं, चाहे अभी ना आता है
आगे बढ़ना ही मेरे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है अब
जो समझो तो तुम्हारा फायदा, नहीं तो बस घाटा ही घाटा है
कवि की बात पे ध्यान देना हरदम मेरे प्यारों
वो अपनी ही पीड़ा को शब्दों में पिरोता है
तुम्हे राह दिखा जाए, चाहे खुद को खोता है
तुम्हे दर्शन करा जाएगा वो तुम्हे अमृत चखा जाएगा
जो समझो तो जागोगे, नहीं तो जग तो वैसे भी सोता है
Wednesday, October 19, 2011
शर्त Copyright © .
जैसे ही होश संभाला,गरम खून यौवन का खौल उठा
अपनी शर्तों पे जीने का तूफ़ान,बाजुओं में दौड़ पड़ा
शर्त लगी थी ज़िंदगी से, न जाने इसे कौन जीतेगा
ज़िंदगी मेरी जागीर बनेगी, क़ि मेरा साया इसके कोठे पे बीतेगा
उम्र की जंजीरों ने मेरे सपनो को बाँधा था
चाहे मैंने अथाह आसमान की ओर ही निशाना क्यूँ न साधा था
उमंगो के गुब्बारे फूले न थे अभी तक
क्युंकी तजुर्बे का ही बस रह गया कांधा था
शर्त लगाई मैंने ज़िंदगी से और हाथ में था मुफलिस
दाव पे लगा था सब और समय रहा था पत्ते पीस
हार के डर से मुफलिस पे बाज़ी न लगायी सोचा तो जीत नहीं पाउँगा
पर हर बार हार से मिला हल्का सा डर, उठी हल्की सी टीस
ज़िन्दगी और किस्मत का समय था और मैं हारा
फिर कुछ सिक्के जोड़े और फिर हिम्मत का था सहारा
फिर बाज़ी लगी , फिर शर्त लगाई मैंने
फिर एक दिन किस्मत हारी, और बही जीत की धारा
शर्त लगाओ...ज़िन्दगी से, चलो तलवार की धार पे
जीतोगे तो हो ही तुम, पर न घबराओ हार से
जीत हार किस्मत नहीं, कर्म निश्चित करते हैं
हिम्मत भर लो, गहरी सांस लो और चिल्ला दो पूरी दहाड़ से
किस्मत तुम्हारे कदमो पे रेंगने के लिए ही है
बस उसे हराना तुम्हारा काम
शर्त ज़िन्दगी , किस्मत, काल से नहीं.... शर्त है खुद से
जाओ, लगाओ शर्त, और भरलो अपने जाम
Tuesday, October 18, 2011
सही सवाल !!! Copyright ©
सवाल पानी का नहीं...प्यास का है
सवाल मंजिल का नहीं...विश्वास का है
मंजिलें तो उतनी ही दूर हैं जितनी हम चाहते हैं
सवाल वहां पहुँचने का नहीं....प्रयास का है
सवाल रिश्तों का नहीं.....उन्हें निभाने का है
सवाल दोस्ती का नहीं.. मर मिट जाने का है
मोहोब्बत में निस्त-ए-नाबूत हो जाते दिल को पूछो
सवाल प्रेमिका का नहीं..उसपे दिल धड्काने का है
सवाल मुश्किलों का नहीं...शौर्य का है
सवाल तूफ़ान का नहीं...थमने के धैर्य का है
तूफ़ान तो बहुत आयेंगे , गिरा जायेंगे ,
सवाल उनके वेग का नहीं...उसे झेलने के कार्य का है
सवाल आंसुओं का नहीं....उन्हें मोती बनाने का है
सवाल दवाई का नहीं.....रोग निवारण का है
आंसूं तो छलकेंगे ही , टप टप टप टप
सवाल उनके टपकने का नहीं....उन्हें जाम बनाने का है
सवाल मदिरा का नहीं....उसकी मादकता का है
सवाल ज़हर का नहीं...उसे कंठ से लगाने का
विष को कंठ में समां के , नीलकंठ कहलाना
सवाल मंथन का नहीं...उस से अमृत छलकाने का है
तो सवाल बहुत हैं, उत्तर भी,
पर गलत सवाल पूछे जाते हम
फिर उत्तर न मिले , तो कह देते" दोष किस्मत के जाल का है"
पर अंततः, सवाल उत्तर का नहीं....सही सवाल का है
Friday, October 14, 2011
I hate my gun~ Pardon Me!!!! Copyright ©
words are like bullets, and i have a loaded gun
of sarcasm, wit and a condescending pun
i know the damage gets done and healing needs time
even though the intent of shooting was never mine
but ...i shot, pulled the trigger without knowing
and now the wounds are showing
so what should i say, or do i say at all
i want to throw this weapon , so i never shoot at all
but it was given to me , its use never told
i took it for granted, thinking i would never shoot
bleed people and then clear the barrel off the soot
i never knew what damage it could do.
before i killed many, hurt many with my words
tearing the heart with these powerful swords
to have a gun is not good in it self
to be able to shoot is not the only talent
knowing, when to shoot and how to
is what i need to learn
to be able to, this secret, discern
but, not using it is like a talent wasted
having the the cake, but never tasted
so, use, i will
but, use, it with caution , is what i will do
otherwise put it away
so pardon me ,all wounded
pardon me for all I've done.
unknowingly , when i shot the gun
now i know , what damage these bullets can do
now i know , what destruction can result
now i know, how it bleeds
how these words, a victim, treats
so pardon me , i will take heed
won't shoot , without a desperate need
even though my intent is right
i am throwing this gun out of my sight
will bring it when need be
till then....pardon me
till then....pardon me
till then....pardon me !!!!
Wednesday, October 12, 2011
धूप छाँव ....बदलते दाँव ! Copyright ©
नर्म धूप खिली है किसी जगह, कहीं काली छाँव
है ऊंचे महेल किसी शहर, खंडहर किसी गाँव
पर क्या इस अठखेली से तिलमिलाना प्यारे
तेरी मौलिकता ही आएगी, जगमगा जायेगी....दबे पांव
चिलमिलाती धूप में बोया बीज, काटी फसल सेकी छाँव
प्रयास की गठरी को थामे, नकले यात्री नंगे पांव
जीवन की यात्रा में देखा सब कुछ, पाया सब कुछ,
पर हिम्मत की गागर छलकने न दी, चाहे लहूलुहान हुए घाव
पथिक चला चल, मृगत्रिष्णा की प्यास संभाले, भूल जा पड़ाव
भूल तू अपने भाग्य को , वोह तो जुए खेले है , बदले है हर दम दांव
तूने उम्मीद की डोरी न छोड़ी तो बस शिखर पे पहुंचेगा ही
पर पहुँच शिखर पे, उड़ मत जाना, रखना धरती पे ही अपने पांव
धूप छाँव का खेल , खेलेगा जीवन तुझसे हरदम
कभी तुरुप का पत्ता देगा ,कभी मुफलिस करेगा तेरा दांव
इसके नितदिन बदलते चरित्र पे न हो खुश, न हो दुखी
इसने तो ठानी ही है, घाव देने के बात पूछना " बंधू और बताओ"
तेरी धूप तेरे मन में है, तेरी छाँव तेरी हार नहीं
जीवन के बदलते दांव से नहीं है तेरी विश्वास की नाव बही
तेरा जीवन , तेरी रेखाएं , सब तेरे विवेक , तेरे विश्वास पे टिकी हैं
तुझसे ही धूप यहाँ पे , तुझसे ही छाँव सही
आँख मिचोली खेले यह जीवन मृत्यु के धूप छाँव
महल बना दे तेरे सपने, चाहे खँडहर करदे तेरा गाँव
तूने हरदम सत्य, ढाढस, प्रयास और उम्मीद का दामन पकड़ना है
चाहे कितने बदलें तेरे पत्ते, चाहे कितने बदले इसके दांव
Monday, October 10, 2011
क्या मतलब ! Copyright ©
जो लहरों की मौजों के कायल हों , उन्हें साहिल के सुकून से क्या मतलब
जो रौशन सूरज सा चमकते हों, उन्हें अँधेरे में दिए से क्या मतलब
शिखर पे पहुंचेंगे यह यकीन हैं जिनको, लहरों को चीरेंगे यकीन है जिनको
उन्हें थकान और हार से क्या मलतब
जो सपने साकार करते हों, उन्हें भाग्य से क्या मतलब
जो युगपुरुष का चरित्र रखते हों, उन्हें समय और काल से क्या मतलब
जो काँटों की शय्या पे सर रखते हों, उन्हें मखमली राहों से क्या मतलब
जो जीवन की मदिरा से प्याले भरते हों, उन्हें किसी और साकी से क्या मतलब
तूफानों से जो कश्ती निकाल लेते हों , उन्हें कल कल बहते पानी से क्या मतलब
जो सपनो के महल बना देते , उन्हें रेत के खंडहरों से क्या मतलब
जो आविष्कार करना जानते हों, उन्हों एकत्र करने से क्या मतलब
जिन्हें रचना आता हो, उन्हें स्याही से, कलम से क्या मतलब
जो माँ के चर्नामृत पीते हों, उन्हें मृत्यु से क्या मतलब
जो पितृ-साए में विलासी हों, उन्हें चिंता से क्या मतलब
जो मोहोब्बत का स्वाद चखते हों, उन्हें कड़वाहट से क्या मतलब
जो मृत्यु की भभूत लगाये घुमते हैं, उन्हें अलंकार से क्या मतलब
मतलब केवल हो मौलिकता से , प्रेम से, सत्य से
मतलब केवल हो धैर्य से, आत्म-क्षमता से, विश्वास से
मतलब हो केवल आज से, अभी से, वर्तमान से
जिसे इन सब के साथ न जीना आये, उन्हें जीने से क्या मतलब!!
Wednesday, October 5, 2011
बोल जमूरे ~ नाचेगा?
हर पुकार पे, हर इशारे पे
हर सुर, हर ताल पे
जमूरा नाचा, उछला और भागा
समय, किस्मत और काल के एक इशारे पे
कभी सोया कभी जागा
कभी उचल कूद, कभी चुप चाप
कभी राग़ छेड़ा, कभी आलाप
बोला हरदम..ये न रुकेगा
जब बोला मदारी...
बोल जमूरे ...नाचेगा?
कभी मदारी ने दिखाई लाठी
कभी चाबुक दिया जमा
कभी रेवड़ी दी खाने को कभी
केला दिया थमा
बस हर बार इन इशारों पे जमूरा
हरदम मान गया
न सोचा न समझा , सरे गम छुपा गया
किसी ने लगाम थामी उसकी तो
सब अधूरा हो गया पूरा
जब मदारी बोला
नाचेगा? बोल जमूरा...
जमूरा बन बन थक गया हूँ
कठपुतली बनके पक गया हूँ
अपना न कुछ कर पाया था तभी
मैं मदारी बनते बनते रह गया हूँ
किसी का चाबुक, किसी का खेल
किसी और की इच्छाओं की रेलम-पेल
मौलिकता और दुस्साहस का चोला
अब पहनूंगा मैं,
जमूरे का भेस बदल के
सारे धागे तोडूंगा मैं
न प्रलोभन ना हुकुम बजाना मुझको अब तो केवल एक ही खेल खेला जाएगा
मैं मदारी बन जाऊंगा और कह दूंगा दुनिया से
बोल जमूरे- नाचेगा?
बोल्जमूरे- नाचेगा?
बोल जमूरे- नाचेगा?
Monday, October 3, 2011
पतझड़ Copyright ©
हर बरस जब पीली पत्तियां
धरा को अपने रंगों से खुश्क बना देती
और ग्रीष्म की बेला के आने का संकेत
सूखी टहनियां जाता देतीं
तब तब एक अजीब सी घबराहट
मन में छा जाती थी
आने वाली बर्फ , जो आत्मा नीरस
करने की शक्ती से सराबोर है
अपने आने से पहले सूखी टहनियों से
संकेत देती थी
मन में एक कम्पन, पीठ में एक घबराहट
जमा देती थी
पर इस बरस मैंने इन पत्तियों , इन शाखों से
बात छेड़ी
सोचा इनका मन टटोलूं
जो घबराते घबराते अपने वस्त्र
उतार देती हैं
पहले तने से पुछा मैंने
कुछ देर में तू अपनी टहनियों को
नग्न होते देखेगा
तू घबराता नहीं
जब बर्फ की मृत्यु सी चादर ओढेगा
तू कंपकपाता नहीं?
तने ने बोला
शाखों को भी तो नए कपड़ों की
इच्छा होती है
उन्हें थोडा नहाने दो
अपने तन से पसीना
थोडा तो बहाने दो
यह उत्तर सुनके टहनी से मैं बोला
तुम तो नग्न हो रही हो
तन को अपने, खुश सर्दी
में डुबो रही हो
फिर कैसे न तुम शर्माती
कैसे न इस शीत लहर से डर जाती
वो बोली
पत्तियों के रंग जब बदलते हैं
बसंत में जब पुनः चमकते हैं
उन्हें संभालना मेरा काम है
जैसे पंछी अपने बच्चों को
उड़ता देख , प्रसन्न हो जाते हैं
वैसे पत्तियों के बड़े होने में
मेरे अंग प्रत्यंग मुस्कुराते हैं
उन्हें आहार प्रदान किया मैंने
फिर उन्हें खिलखिलाते देखा
अब बारी उनकी उड़ने की
तो मैंने उसमे संसार देखा
अब तक तो मेरी मुरझाई काया
को पुनः जागने का मौका मिल चुका था
पर फिर भी मैंने पत्तियों के
राज़ को जान ने की ठानी
एक गिरती पत्ती को हवा में ही
पकड़ के मैंने उसके खुश्क बदन को छुआ
वो मुस्कुराई
एक मरती जान मुस्कुरा कैसे सकती है
मैंने पुछा
वो बोली
जिसने अपने बचपन के सारे रंग चखे हों
अपने माँ-पिता के आँचल से अंग ढके हों
भई- बहनों को बड़े होते देखा हो
फिर नयी फसल को पकते देखा हो
अब वो एक नए सफ़र को है अग्रसर
शीत लहर के आने से पहले
जिसका झुका न हो सर
उसे किस बात का शोक
अब मैं गिर जाउंगी और जहाँ से जन्मी हूँ
उसी मिटटी में मिल जाउंगी
अगले बसंत में फिर जन्म लूंगी
और फिर जीवन का स्वाद चाखुंगी
यह सुनके मेरे मुरझाये चेहरे का
अंदाज़ ही बदल गया
मौत के दामन में ऐसा जीवट देखके
जीवन का अर्थ ही बदल गया
कैसे मौत को गले लगाती पत्तियाँ
मुस्कुरा रही थीं
अपने पीलेपन से भी धरती
जगमगा रही थीं
जीवन ऐसे हो मेरा भी
क़ि जियूं तो चमकू
मरुँ तो दमकूं
मुस्कराहट रहे हर पल
चाहे बसंत सा कल हो
या पतझड़ सा आज
या फिर हो ग्रीष्म सा आने वाला कल
धरा को अपने रंगों से खुश्क बना देती
और ग्रीष्म की बेला के आने का संकेत
सूखी टहनियां जाता देतीं
तब तब एक अजीब सी घबराहट
मन में छा जाती थी
आने वाली बर्फ , जो आत्मा नीरस
करने की शक्ती से सराबोर है
अपने आने से पहले सूखी टहनियों से
संकेत देती थी
मन में एक कम्पन, पीठ में एक घबराहट
जमा देती थी
पर इस बरस मैंने इन पत्तियों , इन शाखों से
बात छेड़ी
सोचा इनका मन टटोलूं
जो घबराते घबराते अपने वस्त्र
उतार देती हैं
पहले तने से पुछा मैंने
कुछ देर में तू अपनी टहनियों को
नग्न होते देखेगा
तू घबराता नहीं
जब बर्फ की मृत्यु सी चादर ओढेगा
तू कंपकपाता नहीं?
तने ने बोला
शाखों को भी तो नए कपड़ों की
इच्छा होती है
उन्हें थोडा नहाने दो
अपने तन से पसीना
थोडा तो बहाने दो
यह उत्तर सुनके टहनी से मैं बोला
तुम तो नग्न हो रही हो
तन को अपने, खुश सर्दी
में डुबो रही हो
फिर कैसे न तुम शर्माती
कैसे न इस शीत लहर से डर जाती
वो बोली
पत्तियों के रंग जब बदलते हैं
बसंत में जब पुनः चमकते हैं
उन्हें संभालना मेरा काम है
जैसे पंछी अपने बच्चों को
उड़ता देख , प्रसन्न हो जाते हैं
वैसे पत्तियों के बड़े होने में
मेरे अंग प्रत्यंग मुस्कुराते हैं
उन्हें आहार प्रदान किया मैंने
फिर उन्हें खिलखिलाते देखा
अब बारी उनकी उड़ने की
तो मैंने उसमे संसार देखा
अब तक तो मेरी मुरझाई काया
को पुनः जागने का मौका मिल चुका था
पर फिर भी मैंने पत्तियों के
राज़ को जान ने की ठानी
एक गिरती पत्ती को हवा में ही
पकड़ के मैंने उसके खुश्क बदन को छुआ
वो मुस्कुराई
एक मरती जान मुस्कुरा कैसे सकती है
मैंने पुछा
वो बोली
जिसने अपने बचपन के सारे रंग चखे हों
अपने माँ-पिता के आँचल से अंग ढके हों
भई- बहनों को बड़े होते देखा हो
फिर नयी फसल को पकते देखा हो
अब वो एक नए सफ़र को है अग्रसर
शीत लहर के आने से पहले
जिसका झुका न हो सर
उसे किस बात का शोक
अब मैं गिर जाउंगी और जहाँ से जन्मी हूँ
उसी मिटटी में मिल जाउंगी
अगले बसंत में फिर जन्म लूंगी
और फिर जीवन का स्वाद चाखुंगी
यह सुनके मेरे मुरझाये चेहरे का
अंदाज़ ही बदल गया
मौत के दामन में ऐसा जीवट देखके
जीवन का अर्थ ही बदल गया
कैसे मौत को गले लगाती पत्तियाँ
मुस्कुरा रही थीं
अपने पीलेपन से भी धरती
जगमगा रही थीं
जीवन ऐसे हो मेरा भी
क़ि जियूं तो चमकू
मरुँ तो दमकूं
मुस्कराहट रहे हर पल
चाहे बसंत सा कल हो
या पतझड़ सा आज
या फिर हो ग्रीष्म सा आने वाला कल
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