हर बरस जब पीली पत्तियां
धरा को अपने रंगों से खुश्क बना देती
और ग्रीष्म की बेला के आने का संकेत
सूखी टहनियां जाता देतीं
तब तब एक अजीब सी घबराहट
मन में छा जाती थी
आने वाली बर्फ , जो आत्मा नीरस
करने की शक्ती से सराबोर है
अपने आने से पहले सूखी टहनियों से
संकेत देती थी
मन में एक कम्पन, पीठ में एक घबराहट
जमा देती थी
पर इस बरस मैंने इन पत्तियों , इन शाखों से
बात छेड़ी
सोचा इनका मन टटोलूं
जो घबराते घबराते अपने वस्त्र
उतार देती हैं
पहले तने से पुछा मैंने
कुछ देर में तू अपनी टहनियों को
नग्न होते देखेगा
तू घबराता नहीं
जब बर्फ की मृत्यु सी चादर ओढेगा
तू कंपकपाता नहीं?
तने ने बोला
शाखों को भी तो नए कपड़ों की
इच्छा होती है
उन्हें थोडा नहाने दो
अपने तन से पसीना
थोडा तो बहाने दो
यह उत्तर सुनके टहनी से मैं बोला
तुम तो नग्न हो रही हो
तन को अपने, खुश सर्दी
में डुबो रही हो
फिर कैसे न तुम शर्माती
कैसे न इस शीत लहर से डर जाती
वो बोली
पत्तियों के रंग जब बदलते हैं
बसंत में जब पुनः चमकते हैं
उन्हें संभालना मेरा काम है
जैसे पंछी अपने बच्चों को
उड़ता देख , प्रसन्न हो जाते हैं
वैसे पत्तियों के बड़े होने में
मेरे अंग प्रत्यंग मुस्कुराते हैं
उन्हें आहार प्रदान किया मैंने
फिर उन्हें खिलखिलाते देखा
अब बारी उनकी उड़ने की
तो मैंने उसमे संसार देखा
अब तक तो मेरी मुरझाई काया
को पुनः जागने का मौका मिल चुका था
पर फिर भी मैंने पत्तियों के
राज़ को जान ने की ठानी
एक गिरती पत्ती को हवा में ही
पकड़ के मैंने उसके खुश्क बदन को छुआ
वो मुस्कुराई
एक मरती जान मुस्कुरा कैसे सकती है
मैंने पुछा
वो बोली
जिसने अपने बचपन के सारे रंग चखे हों
अपने माँ-पिता के आँचल से अंग ढके हों
भई- बहनों को बड़े होते देखा हो
फिर नयी फसल को पकते देखा हो
अब वो एक नए सफ़र को है अग्रसर
शीत लहर के आने से पहले
जिसका झुका न हो सर
उसे किस बात का शोक
अब मैं गिर जाउंगी और जहाँ से जन्मी हूँ
उसी मिटटी में मिल जाउंगी
अगले बसंत में फिर जन्म लूंगी
और फिर जीवन का स्वाद चाखुंगी
यह सुनके मेरे मुरझाये चेहरे का
अंदाज़ ही बदल गया
मौत के दामन में ऐसा जीवट देखके
जीवन का अर्थ ही बदल गया
कैसे मौत को गले लगाती पत्तियाँ
मुस्कुरा रही थीं
अपने पीलेपन से भी धरती
जगमगा रही थीं
जीवन ऐसे हो मेरा भी
क़ि जियूं तो चमकू
मरुँ तो दमकूं
मुस्कराहट रहे हर पल
चाहे बसंत सा कल हो
या पतझड़ सा आज
या फिर हो ग्रीष्म सा आने वाला कल
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