Thursday, October 27, 2011
बरगद Copyright ©
दक्षिणामूर्ति कल्पवृक्ष में विराजे शंकर
जटाएं धरती की ओर, मूल आकाश की ओर, पत्ते वेदंकर
कृष्ण कहे जो वट-वृक्ष जाने वो जाना वेद महत्त्व
इसी की छाया में सिध्हार्थ रचा बोधी सत्त्व
बरगद फैलाये अपनी बाहें , युगों युगों तक
जड़ में इसके ज्ञान बसा,पत्ते पत्ते में वेद
रखदे अपनी जटाएं धरा पे जैसे हो विराट अंगद
युगों युगों का इसका जीवन, यह अमृत पान कराता बरगद
समय की चादर को चीरती इसकी बाहें
स्थिरता, धैर्य,बाहूबल,सद्भावना फैलाती इसके निगाहें
पितृ-रुपी इसकी छाया
मात्र प्रेम सी इसकी काया
बुद्ध इसके नीचे बना बुद्ध
इसकी छाया है सुधा से शुद्ध
फल देना इसका ध्येह न हो चाहे
पर हर किसी को गले लगाता बाहें फलिये
बरगद जैसा बन पाऊं मैं
इसकी जड़ो के जैसे हो मेरा मन
इसके तने के जैसे काया मेरी
औरों की छाँव बने मेरा तन
आना चाहें सब मेरी संगत
हो जाऊं मैं ऐसा बरगद
दूर से देखो कैसे ऋषि रूप में है विराजमान
वेद ज्ञान का सितार छेड़े, गाये शास्त्र गान
ध्यान मग्न , हरी छाल ओढ़े , साधू सा रूप
अनेक साधना, सिद्दी संजोये, न जाने कितना है ज्ञान
कभी चरित्र है इसका प्रशांत सा, गहरा , शांत
कभी है अथाह आसमान सा, जैसे सितारों का प्रांत
जहाँ जम जाए , स्तम्भ बन जाए , छाया फैलाए
हो जीवन मेरा भी ऐसा, छायादार, विराट,
जैसे हो साधू, जैसे हो सम्राट
सबको हो इच्छा आने मेरी सांगत
हो जाऊं मैं ऐसा बरगद
हो जाऊं मैं ऐसा बरगद
हो जाऊं मैं ऐसा बरगद
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