हर पुकार पे, हर इशारे पे
हर सुर, हर ताल पे
जमूरा नाचा, उछला और भागा
समय, किस्मत और काल के एक इशारे पे
कभी सोया कभी जागा
कभी उचल कूद, कभी चुप चाप
कभी राग़ छेड़ा, कभी आलाप
बोला हरदम..ये न रुकेगा
जब बोला मदारी...
बोल जमूरे ...नाचेगा?
कभी मदारी ने दिखाई लाठी
कभी चाबुक दिया जमा
कभी रेवड़ी दी खाने को कभी
केला दिया थमा
बस हर बार इन इशारों पे जमूरा
हरदम मान गया
न सोचा न समझा , सरे गम छुपा गया
किसी ने लगाम थामी उसकी तो
सब अधूरा हो गया पूरा
जब मदारी बोला
नाचेगा? बोल जमूरा...
जमूरा बन बन थक गया हूँ
कठपुतली बनके पक गया हूँ
अपना न कुछ कर पाया था तभी
मैं मदारी बनते बनते रह गया हूँ
किसी का चाबुक, किसी का खेल
किसी और की इच्छाओं की रेलम-पेल
मौलिकता और दुस्साहस का चोला
अब पहनूंगा मैं,
जमूरे का भेस बदल के
सारे धागे तोडूंगा मैं
न प्रलोभन ना हुकुम बजाना मुझको अब तो केवल एक ही खेल खेला जाएगा
मैं मदारी बन जाऊंगा और कह दूंगा दुनिया से
बोल जमूरे- नाचेगा?
बोल्जमूरे- नाचेगा?
बोल जमूरे- नाचेगा?
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