Tuesday, July 5, 2011
झील के किनारे...मिल गयी ज़िंदगी !! Copyright ©
झील की खामोशी और शाम का नशीलापन
क्षितिज पर मासूमियत फैली हुई और
उम्मीदों का नीलापन
ऐसा गुजरा कुछ समय था जब हमने ज़िंदगी को जीने दिया
कुछ नियमों को तोड़ दिया और कुछ रास्तों को छोड़ दिया
जब जीने की बारी आती सबकी, बंधनों में लोग बंध जाते
बेड़ियों को सहारा बनाके सलाखों में कैद हो जाते.
ऐसे जीवन जीना क्या जब हर ओर हथकड़ियाँ हो
कभी धर्म की, रिश्तों की, समाज की, नैतिकता की
और ऐसे मार देते धरती पे इस जीवन को
मेरी स्वतंत्र सांस पे जो सवाल उठाएं
वो वो लोग हैं जो सांस लेने से घबराएं
बोले मुझसे, कि नियम न हो तो जीवन जंगली हो जाएगा
बिना परिमाण के कैसे समाज में रह पायेगा
समाज उन्होंने बनाया है, जो अकेले न कुछ कर पाए हैं,
कभी स्वयं की खुशियों से जीवन अपना न भर पाएं हैं
सांस का स्वतंत्र होना जन्म सिद्ध अधिकार
बंधन तोड़ो, उतार दो अपने काँधे से भार
इस जीवन को जीलो, सारे नशे पीलो
थोडा हसलो, थोड़ो रोलो
पर इस बंद ज़िन्दगी को खोलो
सपने सारे पूरे करलो, खुली आँखों से
निकलो परिमाणों की सलाखों से
फिर झील की सद्भावना भरी ख़ामोशी
गा उठेगी
क्षितिज की मासूमियत खिल उठेगी
धड़कन राग़ गाएगी
ज़िंदगी गुनगुनायेगी
तुम इसे सराहोगे
यह तुम्हे सराहेगी
तुम इसे सराहोगे
यह तुम्हे सराहेगी
तुम इसे सराहोगे
यह तुम्हे सराहेगी!!
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