संतोष और प्रसन्नता
दो भिन्न भाव हैं
एक का दुसरे से न कोई मेल
न कोई लगाव है
संतुष्टि का एहसास कर्म पे निर्भर है
प्रसन्नता तो एक पड़ाव है
मानस, भाव के बिना निर्जीव है
संतोष के बिना, पशु
और प्रसन्नता के बिना
उसका जीवन, एक नासूर
एक घाव है
संतोष का स्रोत कर्मठता में है
पुरुष का पौरुष
उसके पुरुषार्थ से है
नारी का नारित्व
धैर्य और अंकुश पे है
संतुष्टि की धारा
बहती वहां जहा कर्म
का चोगा पहने मानवता
प्रसन्नता एक पड़ाव है
एक मनोस्थिति , एक अलगाव है
मोक्ष के मार्ग का एक
चुनाव है
प्रसन्नता के स्रोत भिन्ना हैं
मार्ग अनेक हैं
प्रसन्नता का परचम वो
लहराए
जो स्वयं से संतुष्ट हो जाए
एक बात दोनों में है सामन्य
स्वतंत्रता
दोनों भाव, स्वतंत्र
बना देते आत्मा को
बस चुनाव करना
हमारा कार्य
किस मार्ग की ओर बढ़ना
ये अपना निर्णय
आपका क्या चुनाव है
कर्म करने की उत्सुकता
या ख़ुशी का कोष
प्रसन्नता या संतोष
प्रसन्नता या संतोष
प्रसन्नता या संतोष