Dreams

Tuesday, October 5, 2010

हैण्ड- बैग !!! Copyright ©


फिर एक दिन अनायास ही

नज़र गयी , अपनी सखी के

हैण्ड - बैग पे…

मन में उत्सुकता के कीटाणु जग गए

हमने उसे उठाने का ऑफर दिया

कि एक मौका मिले तो उसमे झाकें

ऐसा विद्रोह तो अगस्त क्रांति

ने भी नहीं देखा होगा

इतना बड़े…”नो.........” का झांपड़

तो अंग्रेजों ने भी नहीं सेका होगा

अब तो हमे जानना ही था

कि क्या होता है इन बैग्स में

जिनसे गूची ,लूई वितौन और वर्साचे

जैसे बिक्रेता इतना माल दबाते हैं

ऐसा यह कौनसा खजाना छुपाते हैं

पता तो लगाना ही होगा

कि यह जीव अपने इस झोले में

कौनसा सोना भर भर के ले जाते हैं



अगला मौका मिलते ही हमने बैग दबाया

फँस न जाएँ , इधर उधर सर घुमाया

कांपते हाथों से और देहेलते दिल के साथ

हमने मूह खोला और पाया….

मोबाइल फ़ोन…

( तभी वो फ़ोन नहीं उठाती

नेटवर्क नहीं था , हैं चिल्लाती ,

इतने भारी कवर के अन्दर तो

एयरटेल, आईडिया यहाँ तक कि

धीरू भई भी नहीं पहुँच पायेगा

इतनी भीड़ है वहां अन्दर….

नेटवर्क बेचारा “ ढूंढता ही रह जाएगा”)



मेकप … का सामन

चार लिपस्टिक, दर्जन भर रुमाल

लाली, काजल, और एक आईना

( पूरी दूकान थी भाई,

इतनी रूप सज्जा की चीज़ें तो मैंने

दुकान में भी नहीं देखि

शायद…उनकी ढलती उम्र के

भय से यह हथियार साथ लेके चलती हैं

पता नहीं कब कवच की ज़रुरत पड़ जाए

न जाने सारी सुन्दरता, बारिश में कब धुल जाए)



अन्य न जाने कितनी चीज़ें थी उसमे

मानो पूरा संसार हो

देव, भी साथ हैं चलते

अन्दर मानो पूरा परिवार हो

खिलखिला रहे थे जब हम मन ही मन

और उड़ा रहे थे हसी

हमारी दृष्टि एक रुमाल में लिपटी

एक तस्वीर पर फंसी

उन्ही की तरह “डेलीकेत्ली” हमने

उस रुमाल को खोला


और रो पड़े…॥


कई सालों से जो हमने

उन्हें पत्र भेजे थे वो

यथा रूप थे वहां

हमारी और उनकी तसवीरें

भी हो रहीं थी जवान

हमारे दिए फूलों के

अंश अभी भी थे बसे

और टटोला तो…

हमारे ही रुमाल में

था यह सब हुआ समां

न जाने दिन भर में

कितनी बार वो हमे

देखती होगी

न जाने कितनी बार

हम ना भी हों तो

यादों से सीना अपना

सेकती होगी

हमसे बिछड़ने के भय से

हरदम हमे साथ लेके चलती हैं

भीड़ में खो जाए तो भी

हमारे साथ से सर ऊंचा रखती है



तो इस से पहले मैं और किसी

स्त्री का मज़ाक उडाऊं

उनके भारी भरकम झोले को

देख सर पकड़ जाऊं

या फिर उनके नए नए बग्स पे

कर जाऊं टिपण्णी

एक बार फिर उस चित्र को मन में

दोहराऊंगा….

“एक नहीं कई बैग खरीदो डार्लिंग”

का नारा लगाऊंगा….

अरे चाहे कितने के भी हों

महंगे हो चाहे कितने सस्ते

अरे भई इन महंगे मंदिरों में

हम जो हैं बसते

हम जो हैं बसते

हम जो है बसते !!!!!!!


जय गूची

जय वितौन

जय वर्साचे!!!

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