Dreams

Wednesday, March 16, 2011

अब वोह बात नहीं रही...Copyright ©


अब वोह बात कहाँ रही
अब वोह धारा न बही
जो हमे लुभाती थी
जो सारे दुःख हर ले जाती थी
रुलाती थी और हसाती थी
अब वोह बात कहाँ गयी




जिसने मौन की ध्वनि बजायी
प्रशांत की गहराई नपवाई
दृढ़ता का राग़ सुनाया
उम्मीद की लहर दौडाई
उसकी चमक कहाँ गयी
अब वोह बात नहीं रही


दर्शनशास्त्र को हमारी भाषा
में हमको ही सिखाया
सोते हुए को चेत कराया
अंतर मन में दबे ब्रह्मा को
अपनी लौ से जलाया
अब वोह लौ नहीं रही


सोचा था सोच के सागर से
बहुमूल्य मोती यह ले आएगा
स्वयं से पुनः हमारी भेंट यह करवाएगा
अब तो ज़ंग लगे बस है
म्यान में यह तलवार
न अब यह मीठी कटारी
न अब इसका कोई प्रहार
इतिहास में अंकित न है
न रही अब कोई धार


कहाँ गया वोह दृढ संकल्प
कहाँ गए वोह गगंचुम्भी इरादे
कहाँ गया भाषा का वोह अध्नान्गापन
कहाँ गयी वोह बेशर्मी
कहाँ गयी वोह मादकता
और कहाँ गयी वोह विश्वास की गर्मी


आएगा, विश्वास हमे है
क्यूँकी जो दिखलाया था वोह झूठ नहीं था
हमे अधनंगा कर दिया था
पर नग्न रूप में दिया था मौका
परब्रह्म में मिला दिया था


अब और तब की बात नहीं है
बात जो है वोह तो जम गयी
कोई कहे बात नहीं रही पर
हम तो बोले
बात एकदम गलत कही
"वोह" बात ही है जो रह गयी
"वोह" बात ही है जो रह गयी
"वोह" बात ही है जो रह गयी!

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