Tuesday, April 5, 2011
बदलता मौसम ! Copyright ©
इस बदलते मौसम से क्या घबराना
यह मौसम भी कभी हमारे कोसने के घबराया है?
इन हवाओं से क्या कम्प्कपाना
यह कभी किसी के ज़ोर से कम्प्कपायी हैं?
इस अँधेरे से क्या डर जाना
अँधेरा तो मन मौजी है
सूरज पे पर हमेशा मुस्कुराना
यह मुस्कान लाता चेहरों पर
मौसम से क्या घाबराना
ये किसी की टिपण्णी पे नहीं घबराता!
इन्द्रधनुष देखो कैसे
सतरंगी चादर सा फैला
बूंदों पे थिरकता है
अपने दैविक अनुभव की अनुभूति
करवाता जब मुरझाये फूल रो उठते
देखो उस नृत्य मुद्रा में मोर को
कैसे बिन बतलाये मेघ मल्हार पे थिरके है
देखो अचल हिमालय को
मानो श्वेत चादर सी ओढ़े है
कैसे बसंत में नदियों में पानी छोड़े है
गरजते बादलों से न डर जाना
हमारे गरजने से न कभी यह रोये हैं
क्यूँ प्रकृति की धारा में
मैंने आज कलम डुबोई है
क्यूँ मौसम का धागा पकड़ा
क्यूँ इन्द्रधनुष की माला पिरोई है?
जिस बात पे कोई जोर नहीं
उसपे क्यूँ फिर हमने अपनी लुटिया डुबोयी है
क्यूँ चिंता की चिंगारी से अपनी फिर अपनी अर्थी ढोई है
जब मौसम नहीं बदलता किसी के चिल्लाने से
फिर हमने अपने आचरन की कश्ती
किसी के कहने से क्यूँ डुबोई है
जब हिमालय खड़ा रह सकता है, भीषण सर्दी सह सकता है
तो हमने अपनी सहनशीलता कैसे खोयी है
जब गरजते बादल तब बरसें जब धरती सूखी होई है
तो हम अपना हाथ क्यूँ खींच दें जब मानवता रोई है
इस बदलते मौसम से क्या घबराना
यह मौन्सम भी कभी हमारे कोसने के घबराया है?
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