Dreams

Friday, October 28, 2011

विस्फोट ! Copyright ©


समाज में गुनाह इतने पनपे हैं न जाने क्या हुआ है
हर कोने में मानवता का सडा लोथडा तिरिस्क्रित पड़ा हा
हर ओर नज़र घुमाओ तो चोट ही चोट है
यह कोई इत्तेफाक नहीं यह तो कलयुग का विस्फोट है





और कवि बनके मैंने चिंगारी भड़काई तो विद्रोही कहलाया गया
इन पापों के महलों के दरबार में मेरा मुक़द्दमा चलाया गया
" कवि तू क्यूँ अपने हाथ इन सब में डुबोता है,
क्यूँ तू शब्दों के बाणों से दे रहा हमारी छाती पे चोट
तुझे नेहला देंगे भौतिक सुखों में, होने दे यह विस्फोट"


इस विस्फोट की जड़ को कैसे साफ़ करूँ , कैसे नयी स्वच्छ पौध की खाद बनू
पापाचार से गठरी तो इन्हें जागीर में मिलने वाली है
कैसे इस गठरी को इनका सत्य होने से पहले बर्बाद करूँ
मेरी नियत में नहीं खोट, पर रोकूँ कैसे यह विस्फोट


प्रकृति का उद्गम भी हुआ था विस्फोट से
पर यह विस्फोट तो पैदा हुआ है आत्मा की चोट से
कोने में पहुंचाई बिल्लियों ने नोचना प्रारंभ जो किया
यह विस्फोट बीमारी फैलाता गर्भ हो गया
जड़ इसकी है कमजोरी जो युगों पहले जन्मी थी
कमजोरों की लाशों पे इसकी नीव पनपी थी
अब वो कमजोरी विस्फोट रुपी फूट रही
और मानवता मानव से धीरे धीरे छूट रही


मैं रोकूँ इसको और रोकूंगा मैं यह विस्फोट
चाहे हो जाए मेरी काया पे ही इसकी चोट
तुम भी रोको इस समाज में फैले विस्फोटक पदार्थ को
और एक नए भविष्य, नए जीवन के तुम भी पार्थ हो
जो भी होगा आने वाला भविष्य वो बस ऐसा न हो
जो दिखलाए तुम्हारे भीतर का खोट
बस हो जीवनदायी, कालिख रहित विस्फोट!

1 comment:

अनुपमा पाठक said...

प्रकृति का उद्गम भी हुआ था विस्फोट से
पर यह विस्फोट तो पैदा हुआ है आत्मा की चोट से
सत्य है!