कैसे विनम्र सा बैठा
अथाह सागर फैला हुआ
मौत सा सन्नाटा सुनाई देता
इसके अन्दर सिमटा हुआ
बंद करके आँखें मैं
लेट गया सफ़ेद रेत पे
सुनने को आतुर था मन
सुर जो बनता
लहरों के साहिल पे टकराने से
जब पूरा ध्यान उन लहरों पर था
और मन के सारे द्वार मैंने खोल दिए
पहचानने को वो शक्ति मैं था बैठा
ऐसा लगता मानो कह रहा सागर
धैर्य हूँ मैं
शंकर हूँ और शक्ति हूँ मैं
आदि और अंत हूँ मैं
तेरे अन्दर छुपा बैठ
संत हूँ मैं
बाहर हलकी हलकी चंचलता
पर भीतर प्रशांत हूँ मैं!
उसके स्वर को सुनके मैंने
चक्षु खोल दिए
और देखा कि कितना नीला
रंग था उसका
जैसे हो शंकर का कंठ
जिसने विष जग के सारे धारण किये
आकाश को चुनौती देता यह नीला सागर
उगते, ढलते सूरज को सलामी देता नीला सागर
अपनी गहराई में न जाने कितने
मोती हुए छुपाये
एक कुँवारी अद्भुत दुनिया बसाए
और एक दैविक शक्ति का भण्डार
ऐसे कि क्रोधित हो जाए तो
नष्ट कर दे पूरा संसार
पर फिर भी कितना शांत
कहता “ अपने आप में “
ब्रह्मा और ब्रह्माण्ड हूँ मैं
प्रशांत हूँ मैं!
मन किया यही इसको देखता रहूँ
आलिंगन करलूं और समां जाऊं इसकी गहराई में
इसकी शीतल लहरों में गोते खाऊं
और इस जैसा स्वतंत्र हो जाऊं
जिसे किसी भी बात का न भय हो
न कोई संकोच
बस एक तथ्य , बस एक सोच
अकस्मात् ही लहरें बोली
यदि चाहिए मुझ जैसा
व्यक्तित्व, मेरी जैसी काया
जिसमे पूरा जीवन है समाया
तो पहले अनेक नदियों को
स्वीकार करना सीख
भंवर को समां के
तूफ़ान को झेलना सीख
रात्रि में ज्वार भाटा को सह
और सवेरे मुस्कुराना सीख
दे सूरज को सलामी
चन्द्र को कर नमस्कार
जो कोई तेरी ओर आये
न कर उसका तिरस्कार
क्रोध को डाल लगाम
उसपे कर नियंत्रण
ऐसा कि सब जाने छुपी शक्ति तेरी
और कर दें आत्मा समर्पण
जब यह सब में होगा निपुण
और अपना लेगा यह सारे गुण
तब तेरी भी होगी पूजा
कहलाएगा तू संत
अपार शक्ति को दिल में समां के
हो जायेगा तू प्रशांत
हो जायेगा तू प्रशांत
हो जायेगा तू प्रशांत !
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