बहुत दिनों बाद
संदूक खोलता हूँ
तो क्या पाता हूँ…?
तसवीरें बीते कल की
खोये हुए पल की
झंकारें जो झनकी नहीं
पुकारें जो पहुंची नहीं
कुछ सवाल जिनके जवाब न मिले
कुछ ख़याल जो अवतरित न हुए
कुछ साज़ जो छिड़े नहीं
कुछ अंदाज़ जो दबे रहे
अधूरे सपने जो न ले सके आकार
एक अधूरे इन्द्रधनुष के प्रकार
कुछ कटी पतंगे, कुछ टूटे धागे
कोनो में छुपे हुए कुछ वादे
समय की बरछी, भाग्य की तलवार
जिसने किया था हर ओर से प्रहार
एक कोने में थी
अतीत की बन्दूक
यह सब निकला जब खोला
मैंने अपना संदूक
संदूक !
और भी बहुत था जिसपे
मैंने कभी ध्यान नहीं दिया
मात्र प्रेम की बाती
और पित्र छत्र का दिया
बहिन का अटूट प्रेम
और सम्पूर्णता का एहसास
मासूम बचपन
अल्हड़ जवानी
छोटे सपने जो हुए थे पूरे
मित्रों का साथ, सखी की बात
निराधार उन्माद
जोशीला शंखनाध
कल्पनाएं , रंग और मधुर स्वर
सपनो के महल और ताश के घर
उत्साह, उल्लास, मुस्कान
कुछ न होने पर भी , शान
मदमस्त चाल
लहराते बाल
लालाहित प्यास
अनायास ही कुछ पाने की भूख
यह सब भी था
जब खोला संदूक
संदूक !
एक कोने में दबी थी
एक मखमली पोटली
सुनहरे धागे की मुलायम
रस्सी से बंधी हुई
अचंभित, उत्सुक
और थोडा घबराया मन
कौतुहल ह्रदय में
कंपकपाया तन
एक हथेली में रखा मैंने
दूजे से खीँची डोरी
चौंधिया गयी आँखे
जब चमकी एक रौशनी सुनहरी
शिव, ब्रह्मा और हरी के
दर्शन करती जैसे आँखे गहरी
पोटली में था....... ज्ञान
अनुभव और आशा
जैसे हो शिव का त्रिशूल
यह था मेरे अस्तित्व का आधार
मेरे सारे संदूक का सार
मानो बह रहा हो अमृत
जीवित, हो रहा जैसे मृत
मैं ….नहीं गया था चूक
धन्य था मैं
कि मैंने खोला संदूक
इतने समय के बाद
मेरा संदूक
संदूक!
अब सब काठ कबाड़
सब साफ़ कर चुका हूँ
सब अनचाहा, विसर्जित कर चुका हूँ
सिर्फ पोटली है एक कोने में
विराजमान
सुसज्जित, अलकृत
इश्वर की मूरत के सामान
अब पुनः इसे बंद कर दूंगा
और अगले कई वर्षों के बाद
इसे खोलूँगा
एक नयी पोटली
नया ज्ञान, नया अनुभव
होगी नयी आशा
जिसकी मैं तब समझूंगा भाषा
तब तक रहता हूँ मैं मूक
जब तक पुनः
खोलूँगा यह संदूक
मेरे जीवन का संदूक
अद्वितीय संदूक
संदूक!
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