मैं गगन में उड़ता पंछी
न बांधो मुझे
मैं तो उड़ ही जाऊंगा
मैं पवन का वो सौम्य झोंका
न थामो मुझे
मैं तो उड़ा ही ले जाऊंगा
मैं स्वतंत्र हूँ
बेड़ियाँ न डालो मुझपे
मैं तो जंजीरें तोड़ ही दूंगा
मैं सतरंगी चिड़िया
कैद न करो मुझे
मेरे रंग इतने हैं चमकीले
जिसकी चमक जग से
छुपने न पायेगी
और मुझे आज़ाद करने पे
विवश हो ही जायेगी
मैं हिमालय
अचल सा
मैं प्रशांत विशाल भी
मैं उत्तर भी और सवाल भी
मैं…………
आज इतनी प्रशंसा क्यूँ?
आज इतना आत्मविश्वास क्यूँ?
क्यूँ कि ज्ञात हुआ आज मुझे
“स्वयं” का सम्मान
“स्वयं” पे भरोसा न किया तो
न हिमालय न प्रशांत
न उसूल और न सिद्धांत
ये सारे शब्द खोखले हैं
“स्वयं” है तो ब्रह्मा है
नहीं तो सब मिथ्या
सब भ्रम है
“स्वयं” है तो संसार है
नहीं तो बस शून्य में गूंजती
एक पुकार है
“स्वयं” में ही तो वो बसा है
"स्वयं" ही तो उसका आकर है
"स्वयं" के हर अणु में
बसा वो निराकार है.
यह न भाँपो “स्वयं” से
कि स्वार्थी हो जाओ
यह मत समझो कि बस
"स्वयं" का ही गुण गाओ
बल्कि "स्वयं" को पाने की हो
चेष्टा, और हो प्यास
"स्वयं"सुधारक हो
हर एक प्रयास
सारे रिक्त स्थान भर के
हो जाओ "स्वयं"
हो जो प्रतिबिम्ब उसका, परम
"स्वयं" प्राप्ति हो जाए तो
आत्म-प्रशंसा करने में
भी न होगी ग्लानि
क्युंकी उस प्रतिबिम्ब की प्रशंसा
होगी तेरी ज़ुबानी
स्वयं!
तो आज “स्वयं” को "स्वयं" ही
की अनुभूति हुई
आज "स्वयं" ने "स्वयं" को
थोडा सा पहचाना
उसकी शक्ति, उसकी सीमा
को जाना
बस इसी लिए आज
“स्वयं” को आप से मिला रहा हूँ
चाहे जितना भी अभिमानित लगूं
“स्वयं”-विलीन हुआ जा रहा हूँ
परन्तु..अब आरंभ है
पूर्ण "स्वयं" प्राप्ति का
तो उत्सुक हुआ जा रहा हूँ
जिस दिन पूरा "स्वयं",
स्वयं पहचान लूँगा
उस दिन स्वयं का
प्रमाण नहीं दूंगा
न देना पड़ेगा उत्तर
न होगी ग्लानि
न होगी मिथ्या
न कोई भ्रम
बस
स्वयं
स्वयं
स्वयं!
No comments:
Post a Comment