जब से सीना ताने
खड़ा हिमालय
तबसे ना जाने कितने
अनगिनत गीत लिखे गए
इसकी विशालता के,
ऊँचाई और महानता के
श्वेत सुनहरी चादर ओढ़े
इसकी उदारता के
किन्तु क्या कहता यह हिमालय
क्या सन्देश विश्व को पहुंचता
हिमालय
सोच रहा मैं
कि यदि कर पाऊं इसके मन में क्या है
उसकी शब्दों में व्याख्या
तो इसकी अद्वितीय सुन्दरता का चेहरा
विश्व को दिखा सकूँ
इससे जो मैंने सीखा है वो सब तक
पहुंचा सकूँ।
इसकी ही गोद में खेला
मैं पूरा बचपन
हिमाद्री, हिमाचल और शिवालिक
में ही बीता सारा छुटपन
अनगिनत पुष्पों, बलाओं और नदियों का उद्गम
देखा मैंने प्रस्फुटित होता जीवन
त्रिशूल,नील्कंथ और कंचनजंगा
धौलागिरी, अन्नपूर्ण और नंगा परबत
की चोटियों से ऐसे बहता अमृत
अनेक खुशबुओं, अनेक आकारों का स्रोत
स्वयं श्वेत रहता पर करता हम सबको
भिन्न भिन्न रंगों से ओतः प्रोत
यह इसकी गरिमा है
जीवन देना इसका धर्म
माता भी है और पिता भी
अचल, शुष्क रहकर भी
पालना इसका कर्म.
सदियों से मोर्चा थामे
खड़ा हिमालय अडिग
हिंद का रक्षक बनके खड़ा
हिंद का ताज भी
हिंद का कल
हिंद का आज भी
शत्रु से ढल भी
और शत्रु की सक्षमता पे सवाल भी
निवासस्थान शिव का और समाये
हुए बद्रीविशाल भी
मौन रहता मेरा हिमालय
मानुष के निरंतर बलात्कार
को चुपचाप सहता मेरा हिमालय!
लेकिन दर्द अब उसका मुझे दिखाई देता
हिम की चादर जो सदियों से ओढ़े हुए था हिमालय
अनुभव उसे हो रहा जैसे हो तन उसका अधनंगा
और यह वोह ही है जिसकी गोद से
भगीरथ निकाल लाये थे माँ गंगा
वृक्ष इसके तन से मानव ने बेरहमी से काट दिए
अनगिना तुनार नदियों को प्रदूषण से छांट दिए
छात्पता रहा इस घुसपैठ से
मानव की अनुत्तरदायी एंठ से
यह तो स्वयं शिव है स्वयं शावालय
मेरा हिमालय ,तुम्हारा हिमालय
हमारा हिमालय !
शीघ्र ही इन आंसुओं को न पोछे तो
इसकी पीड़ा न समझे तो
जिस शिलाजीत का यह है धारक
बेजान, बंजर हो जाएगा
बूँद बूँद को हम तरसेंगे
और नहीं मेघ हसकर बरसेंगे
न होगा जीवन
न होंगे रंग
खोखला होगा हर स्वर हमारा
और ना बाजेगी बसंत की तरंग
इसे बचालो
इसे संभालो
जिसने तुमको अनादिकाल से है पाला
उसके अनादर से मानव तूने
स्वयं का गला ही घोंट डाला
न कर इसका अनादर
पुनः चढ़ा दे इस्पे
श्रद्धा की श्वेत चादर
नहीं बचाया इसको अभी तो
होगा अंत बहुत भयावह
पूज ले इसको, दंडवत करले
बचा ले अपना हिमालय
बचा ले अपना हिमालय
बचा ले अपना हिमालय!
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