Dreams

Friday, June 11, 2010

अंत का प्रारंभ या अभ्युदय? Copyright ©


सरसराती हवा

और विलुप्त होते मित्र

संरचना का बिखरना

और व्यवस्था का धुन्धला चित्र

खोखली हसी से अलंकृत यह सारे चेहरे

वस्ताविक्तायें अंधी होतीं

और सिद्धांतो के स्तम्भ, होते बहरे

कभी अभिमन्यु की भांति

चक्रव्यूह में मेरा घिराव

कभी शून्य की एक और सीढ़ी

पे मेरा पड़ाव

क्या है यह

पुरानी, जीर्ण काया का त्याग

या आगंतुक प्रलय

अंत का प्रारंभ

या अभ्युदय?


पुरानी सारी तसवीरें

बिखर रही हैं

और कांच के टुकड़े

अब कम चुभते हैं

निरुत्साह सा है मन

परन्तु चेतना चाग्रुक है

उधडे धागों के छोर

गायब होते स्वयं ही

पर न ही है उस ओर उजाला

और न कोई आशा की डोर

भले व्याकुल हो सांस

हर ओर चाहे हो सामूहिक निषेध

आँखे बंद नहीं हैं

ह्रदय में न है चुटकी भर भी खेद

निरुत्तर हूँ

और कड़वेपन में भी

है हलकी सी मिठास

पर होता हल्का सा आभास

कि यदि यह प्रलय है

या है नयी किरण

मृत्यु की अनुभूति

या नया जीवन

या हो जैसे एक कोश्थक

या आने वाले कल का विमोचक

मैं यहीं खड़ा हूँ

देख रहा हूँ

भयभीत हूँ पर फिर भी

ज्वालामुखी की गर्मी सेक रहा हूँ

क्या है यह?

सूर्यास्त या भाग्योदय

अंत का प्रारंभ

या अभ्युदय ?


समय ही यह निर्णय करेगा

कि यह दृश्य किस ओर बढेगा

मृत्यु की सच्चाई से हो रही है भेंट

या सुनहरे चमकते भविष्य

का सूरज चढ़ेगा

मैं धैर्य धारण कर चूका हूँ

समय के पहिये से संधि करली मैंने

केवल दर्शक हूँ

मूक दर्धक

अपनी स्थिर्बुध्धिता का हूँ संरक्षक

विधाता का पलड़ा किस ओर ढलेगा

भाग्य का पहिया किस ओर बढेगा

देखते हैं

क्युकी किन्गक्र्ताव्यविमूढ़ हूँ मैं

और इस गुत्थी को सुलझाना भी छोड़ दिया

क्या है यह

मरघट या शिवालय

अंत का प्रारंभ

या अभ्युदय?

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