Dreams

Wednesday, September 29, 2010

दस्ताने Copyright ©


हाथ रंगे थे

लहू से उसके

पोंछ नहीं पाया था

मन से तो यह लाल रंग

उतार न पाया पर

हाथो के लिए वो

दस्ताने खरीद लाया था


उन दस्तानो के अन्दर

न जाने कितनी दास्ताने छुपी थीं

हाथो की रेखाएं बस

अन्धाधुन्ध खिंची थीं

वो हाथ जो मुलायम होते थे कभी

अब उनमे कठोर परत बस चढ़ी थी

जीवन रेखा बस अब मौत के द्वार खड़ी थी



दस्तानो ने उसके, उसका जीवन सब से छुपा दिया

पर मन की कालिक कैसे पोछे

स्वयं की नज़रों से तो उसने स्वयं को ही गिरा दिया

माँ के गर्भ से तो वो यह भाग्य लेने नहीं आया था

पर कर्मो ने उसके

उस गर्भ को लज्जित , बाजारू बना दिया

दस्ताने क्या करते वो तो बस चलता फिरता एक शव था

मन के दस्ताने कहाँ से लाता

मन तो अब एक भ्रम था



दस्ताने बहुत कुछ छुपा जाते हैं

लोगों के कुकर्म , लोगों के पाप

दबा जाते हैं

पर दस्ताने भी चिल्ला उठे इस बार

हे मानव , हे पापी

अपने पापों का भार हम पर मत डाल

तेरे घृणास्पद जीवन का बोझ हम क्यूँ ढोएँ

फल वो ही पाए , जो ऐसे बीज है बोये



वो मूक होके , हथेलियाँ आगे बढ़ाये

देख रहा था दुःख से

उसके पापी जीवन , उसकी जीवन धारा

का राज़ छुपाये खड़े थे दस्ताने चुप से

आंसुओं की धारा बहने लगी फिर

पोंछा पुनः उसने उन दस्तानो से

वो अश्क जो हथेली पे पड़ जाते तो

घाव पुनः हरे हो जाते

दस्ताने थे खड़े उसके

आंसुओं और लहू से रंगे हाथों के बीच

मानवता अभी बाकी थी उसके भीतर के शैतान

और बाहर के इंसान के दरमियान

चाहे थी अभी उसकी आँखें मीच



दस्ताने वो परत हैं जो

लाख छाले हों हाथों में

फिर भी उसे बचाते हैं

चाहे कितनी कालिक पुती हो मन में

मानवता न भुलाने देते हैं

उन दस्तानो को न समझना बिकाऊ

वो तो कवच हैं तुमारे

और शैतान के बीच

दस्ताने हैं कवच तुम्हारे

और शैतान के बीच!

Tuesday, September 28, 2010

कभी कैलाश परिक्रमा करने की इच्छा
कभी प्रशांत मे डूबने की
कभी मसिनरम सा तर बतर भीगने की
कभी रेगिस्तान सा सूखने की
दिल बड़ा कमीना है
शांत सी दिनचर्या से मानता ही नही
बस उड़ान की बातें करता है
तो कोईनही ....यह उड़ान हे सही.....

नींबू पानी Copyright ©


जीवन नींबू पानी है

मैं उसका एक बुलबुला

खटास और मीठे में

मैं भी कुछ घुला घुला

काक्जी नींबू बाहर से

कडवा है तो

अन्दर है खटास भी

ऐसी ही है जीवन जीने की

आस भी

अंदर का रस निचुड़े तो

तरावट ही तरावट

बाहर का रस आँखों में

आये तो देता रुला

जीवन है नींबू पानी

मैं उसका एक बुलबुला



जीवन को पूरा निचोड़ना

ज़रूरी है

और उस खटास में

चीनी का घोल घोले बिना

हर गाथा अधूरी है

बीज आयें तो उन्हें भी

न भूले

बिना बीज के

नींबू पानी के लुत्फ़

हैं अधूरे

सोम रस से ताज़ा है

इसमें अमृत घुला

जीवन है नींबू पानी

मैं इसका एक बुलबुला



निचोड़ो जीवन

घोलो चीनी

मिलाओ उसमे ठन्डे

जल की धार

खट्टे मीठे का स्वाद उठाओ

कडवाहट को फेंको पार

घूँट दो घूँट नहीं

जी भर के पी

औरों को भी पिला

जीवन है नींबू पानी

तू उसका एक बुलबुला



ऐसा सात्विक जीवन ही

सफल है

जिसमे घुले हुए

खट्टे मीठे पल हैं

द्रवल है जीवन

धारा बहने दो

कडवाहट को बाहर निकालो

मिठास को रहने दो

बीजों से न घबराओ

शीतलता को रहने दो

थोडा घुलो थोडा घुलाओ

औरों को भी इसका

मेहेत्व समझाओ

कि ऐसे सात्विक जीवन में

कई स्वाद हैं

केवल कडवाहट नहीं

पर रेशे भी कमाल हैं

हर एक बूँद है

अमृत धारा

उलझाने से कुछ नहीं

मिलने वाला

सब स्वादों के

मज़े उडाओ

जीवन है नींबू पानी

तुम बुलबुले बन जाओ

बुलबुले बन जाओ

बुलबुले बन जाओ!

Monday, September 27, 2010

एक "कवी" की मौत ! Copyright ©


मेरे शब्द मुरझा रहे हैं

मेरे वाक्य झिलमिला रहे हैं

मेरी कविता दे रही है जीवित रहने की दुहाई

और मेरे विचार कराह रहे हैं

ऐसा कुछ मौसम है

जहाँ "कवी" के जीवित रहने का मापदंड

पाठक बना रहे हैं

ऐसे में क्या किया जाए

हास्यास्पद स्थिथि है यह "कवी" की मौत

जब कविताओं की अर्थी पे

समाज, कानून और अन्य “कलाकार”

वाह वाही के पुष्प चढ़ा रहे हैं



"कवी" की मौत जब होती है

तो समाज का एक स्तम्भ गिर जाता है

उस युग का एक दर्पण , जो सच्चाई दिखा सके

चकनाचूर हो जाता है

परन्तु उसके शब्द निरंतर

गूंजते हैं , समय की लम्बी सुरंग में

और स्मरण कराते हैं

वो हसी की फुहारें, वो थप्पड़

वो कटाक्ष और वो सच्चाई

जो वर्षो पहले तीखे थे

और अब भी तेज़ हैं.

समाज "कवी" को मार देता है

जब उसके शब्द अनुकूल नहीं गूंजते

उसे समाप्त कर देता है जब

विचार उसके पक्ष में नहीं होते

पार्श्व सोच को गाढ़ दिया जाता है

और दाह संस्कार करते ही

स्मारक बना दिया जाता है



कवियों जागो

तुम समाज का प्रतिबिम्ब हो

उसका एक मेहेत्वपूर्ण स्तम्भ

कवियों जागो

फूल पत्तियों, बेलाओं , मौसमो से

ऊपर अपने शांदों के गोले दागो

नहीं तो यह लोग तुम्हे

झडती पत्तियों सा मसल देंगे

और उन्ही झडे फूलों से

तुम्हारी कविताओं की अर्थियों

को चिता देंगे



मेरे अन्दर के कवि को

मैं न मरने दूंगा

अपने शब्दों की बेलाओं को

चाहे तो लहू से सीन्चुन्गा

नहीं तो यह भक्षक

उस बेला को ही निगल जायेगे

और उस कवि की मौत की

राख अपनी कालिक के नाले में

बाहा जायेंगे

तो यह पुकार समझलो चाहे

गुहार

समाज के स्तंभो

करो प्रहार

करो चोट

न होने दो

उस कवि की मौत

अपने अन्दर के कवि की मौत

कवि की मौत!

Sunday, September 26, 2010

शाम Copyright ©


वो शामें क्या थीं

जब पिताजी घर आते थे

कपड़ों में पसीने की खुशबू थी

और आके मुस्कुराते थे

मुझे और बहन को गले लगते थे

और “एक प्याली चाय मिल जायेगी क्या?” कहके

माँ की ओर बाँहें बढाते थे

वो शामें कहाँ गयीं

वो पल कहाँ गए



वो शामें कहाँ गयी जब

हम मित्र मंडली के साथ

धुनी रमा के देर से घर आते थे

और पिताजी “ऊठक बैठक”

फौजी की तरह करवाते थे

और थक जाने पर

गले लगाते थे

जब माँ दूध का गिलास हाथ में थामे

राजा बेटा पुचकारती थी

और जब यार सीटी बजा बजा के

चोरी छुपे घर से निकलने का

इशारा कर जाते थे

वो शामें कहाँ गयी

वो पल कहाँ गए




अब शामें बस एक हाथ में

जाम लिए और एक हाथ में कलम थामे

गुज़र जाती हैं

पुराने लम्हों की बस झलक दिखला जाती हैं

मय गले से उतरती है

और ह्रदय की धड़कन बस कसमसाती है

उम्मीद ही है बस जो

इस भयानक शाम में थोडा

अमृत घोल जाती है

कलम भी दगा दे जाती है

और मय भी अब बस..रुलाती है

वो शामें कहाँ गयी

वो पल कहाँ गए




शाम दर शाम हम वो ही

जाम थामे ,

वो ही कलम स्याही में डुबोये

बैठ जाते हैं

कभी मन ही मन मुस्कुराते हैं

कभी अपने आंसुओं में कलम डुबाते हैं

कभी कविता में दर्द दिखाते हैं

कभी बीती यादों की गाथा गाते हैं

नीरस सी शाम है

बेरंग सा जाम है

शब्द भी अब बस….

अंगडाई लेके सो जाते हैं

वो शामें कहाँ गयी

वो पल कहाँ गए




हम भोर भोर चिलाते रहे

सूरज उगने की राह ताकते रहे

ढलते हुए की चिंता न की

और बस जाम पे जाम घट्काते गए

यह शामें हमने ही बिगाड़ी हैं

यह दर्द हमने ही पाले हैं

जहाँ खुशियाँ होनी चाहिए थी

वहां बस गम के प्याले हैं

और हम कहते हैं

वो शामें कहाँ गयी

वो पल कहाँ गए

………..

Friday, September 24, 2010

जीने की आस ! Copyright ©


खोखली निगाहें

दूर क्षितिज पे न जाने क्या ढूंढती हैं

जिनमे खनकती थी बच्चों की किलकारी

वोह कान आज सन्नाटे में

न जाने क्या सुनते हैं

बिखरते मोतियों की गूँज

थक गयीं वो अश्कों की बूँद

धराशाही विश्वास

मृत सा आभास

न जाने क्या ढूंढते है

न जाने क्या ढूंढते हैं



रेगिस्तान में दूर दूर तक

बस गर्म हवा है

न जाने आत्मा कहाँ खड़ी है

न जाने आत्मविश्वास कहाँ पड़ा है

चरों ओर बस असंतुलन का रेगिस्तान पड़ा है

होंट सूख चुके हैं

पैर थक चुके हैं

मुरझाई उम्मीद है

कांपता ह्रदय भी

बहुत धड़क चुका है

बंद होती आँखें

पर फिर भी कुछ ढूंढ रहीं हैं

कुछ ढूंढ रहीं हैं



यात्रा का यह अंत तो न था

परिश्रम का यह फल तो न था

बहे लहू और छलके आंसुओं का

यह परिणाम तो न था

ऐसी नीरस तरुवर सी काया

नाउमीद सी छाया

मृत्यु को करीब आते देख

कर भी मुस्कुराया

फिर भी कुछ ढूंढ रही हैं

क्या ढूंढ रही है?



अचानक कुछ हुआ

क्या हुआ यह उसे भी न पता

आँखों में जीवन की चमक बस गयी

ह्रदय की आखरी धड़कन कस गयी

मृदंग सा शोर हुआ कानो में

और आत्मा में जैसे परमात्मा की

काया बस गयी

वो उठ खड़ा हुआ

लडखडाते पैरो पे....

पीठ जो झुक गयी थी, तन गयी

चेतना जो सो गयी थी…जग गयी

फेफड़ों से एक गहरी सांस ली उसने

और अचानक उसकी छाती विश्वास से भर गयी

वो चल पड़ा फिर से

यात्रा अधूरी थी... रह गयी



सूरज अब कुछ ढलने लगा था

बादल उसकी किरणों को छलने लगा था

हवाओं ने भी रुख मोड़ लिया था

और रेत भी संभल गयी

पुनः पथिक को राह अपनी

मिल गयी

मानो जान फूँक दी हो

मृत में और पार्थिव शरीर

उठ खड़ा था

रेंगती ज़िन्दगी दौड़ पड़ी थी

और जमा लहू उफन पड़ा था

निगाह तीखी थी

और चाल भी विश्वास भरी

मानो क्रांति सी आ गयी

मुश्किलें थी डरी डरी


उसके बाद सब इतिहास था

जो स्वर्ण अक्षरों में

छपा हुआ था

मानव शक्ति का एक और उदाहरण

दूर क्षितिज पे मुस्कुरा पड़ा था

पुनः जीत का सेहरा चमक उठा था

और ताने सीना विश्वास खड़ा था



कुछ ख़ास है मानव के विश्वास में

जो हर बाधा , हर मुश्किल का सीना

चीर सकता है

मौत से नज़रे मिला के उस पर हस सकता है

इसे जीवट कहते हैं

जब कुछ करने की शक्ति न हो

न हो अपने सपनो पे विश्वास

तब मानव में छुपी शक्ति

कराती है आभास

कि क्या है वो और कैसे....

मानव मन सर्वोपरि है

कैसे मंजिल

उतनी ही दूर है जितना वो चाहे

कैसे

वो सामने खड़ी है…



तेरे संकल्प और दृढ विश्वास

की भी यही शक्ति है

पहचान….

तेरे अन्दर भी जीवन जीने की

लालसा भरी है

पहचान....

जब सारी ऊर्जा मूक पड़ी हो

तब एक चिंगारी जागेगी

जो तेरे पूरे जीवन के प्रयास

को पहले त्यागेगी

और प्रज्वलित करेगी ऐसी ज्वाला

जिसे ईश भी नहीं झुकाने वाला

तो विश्वास कर स्वयं पे

और करता जा प्रयास

न छूटने पाए

वो जीने की आस

जीने की आस

जीने की आस!