बेजान यन्त्र के सामने
तकते हुए आज याद आई
उसकी
जिससे तन मन महक उठता था
सारी दुविधा, सारे दुःख मिट जाते
और उमंग का सूरज चमक उठता था
पर इस आधुनिक युग में
वो नहीं आता
लाख चाहूँ , वो नहीं आता
पत्र
स्याही से लिखा अक्षर
क्या कुछ कहता था
बेजान पन्ने में जीवन
फूँक देता था
पिता की डांट थी, मात्र स्नेह भी
बहन का अटूट विश्वास बहता था
पर अब कोई पत्र नहीं भेजता
एक महीने में एक बार सही
पर उसकी राह देखता था
और अगले महीने तक
उसे अपने सिराहने टेकता था
माँ के हाथो की सुगंध होती उसमे
पिता का पसीना भी
छोटी की लेखनी में “भाई”
झूम उठता था
सारे शब्दों को मैं था सहेजता
पर अब कोई पत्र नहीं भेजता
बेटा पढाई अच्छे से करना
मैं पैसे भेज रहा हूँ
घर आजा दिवाली पे
मैं राह देख रहा हूँ
खाना अच्छे से खाता हैं न
मैं तेरी मनपसंद “चिज्जी” बना रही हूँ
तेरे सारे खिलौनों को रोज सजा रही हूँ
भैया मैं प्रथम आई कक्षा में
चाकलेट लेते आना
महिना भर तो रहोगे न
बस मेरे साथ ही खेलना
पर अब कोई पत्र नहीं भेजता
यार मेरे कैसा है तू
बहुत याद आती है
तेरे बिना तो अपनी महफ़िल
अधूरी रह जाती है
इस बार आये तो तुझे “किसी” से मिलवाऊंगा
और हाँ ,तेरा बल्ला मेरे घर पड़ा है
तेरी मम्मी को दे जाऊंगा
आजा घर जल्दी तेरा भाई तेरी
राह है देखता
पर अब कोई ऐसा पत्र नहीं भेजता
प्रिये तुम कहाँ गए हो
मेरा पत्र मिले तो फ़ौरन उत्तर भेजना
मेरे इन शब्दों को मेरे
आंसूं अब समझना
आओगे तो तुम्हे मैं जाने न दूँगी
अपने आलिंगन में तुम्हे अब समां लूंगी
घर पे शादी की बात हो रही है
देर मत कर देना
जोगन बन रही हूँ तुम्हारी मैं अब
कह देती हूँकिसी को हाथ न लगाने दूँगी
ऐसा हक अब कोई क्यूँ नहीं जताता
अब ऐसा पत्र क्यूँ नहीं आता
अब बस आधुनिक बेजान से पत्र आते हैं
मानो मृत हो गयी भावनाएं
एहसास करा जाते हैं
पिता पुत्र को एक पंक्ति में
सारी कहानी कह जाते हैं
पुत्र, पिता के चरणों को अब
इ-मेल से ही स्पर्श कर आते हैं
प्रेमी प्रेमिका तो एक दूजे को
दिल रुपी चित्र भेजके ही अब रिझाते हैं
और भाई बहन बस अब
चैटिंग पे ही लड़ पाते हैं
न जाने किस होड़ में लग गया जग
कि पत्र का मेहेत्व भूल गया
अब तो इतना नीरस हो गया यह युग
मैं तो अब “इन्बोक्स” की तरफ भी नहीं देखता
पर कोई मुझे पत्र नहीं भेजता
क्यूँ नहीं भेजता
मैं प्रतीक्षा करूँगा
उस लुप्त हो गयी अभिव्यक्ति की
जो एक पन्ने को जीवित कर देती थी
मैं राह तकुंगा उन शब्दों की
जो स्याही को अमृत धारा सा कर देती थी
पर पता नहीं कि पता है उसको मेरा पता
मैं भी तो इस इ-दुनिया का बन गया हूँ
एक बेघर गधा
जिसे “ @ “ से ही बस लोग जानते हैं
यूज़र नेम है घर उसका
.कॉम बन गयी उसकी गली
डाकिया है सर्विस प्रोवाइडर
टिकेट तो है मुफ्त जी
मैंने संभाल के रखी हैं
सारी यादें
जिन्हें अब कोई नहीं सहेजता
मैं फिर भी प्रतीक्षा करूँगा उस पत्र का
जिसे अब कोई नहीं भेजता
कोई नहीं भेजता
कोई नहीं भेजता
1 comment:
पत्र आज भी हैं किन्तु पोस्ट कार्ड या अन्तेर्देशीय पत्र नहीं रहे सन्देश के माध्यम एको फ्रेंडली बन गए हैं कागज बचाओ , पेड़ बचाओ से लेकर कम्प्यूटर ने सभी संदेशो से जुडी भावनाओं का स्वरुप बदल दिया है अब ऐसी चिठ्ठी नहीं आयेगी सिर्फ इ- मेल या एस एम् एस , या फिर फ़ोन पर ही बात हो सकेगी . सब कुछ बदल गया भावनाए भी स्वरुप खो चुकी हैं. ये दुलार और प्यार अब कोई व्यक्त ही नहीं कर पाता है भागम भाग जो लगी है
Post a Comment