Dreams

Thursday, September 23, 2010

रेत Copyright ©


देखो कैसी विलासी सी विराजमान

है सागर किनारे

जितना शांत है प्रशांत

उतना ही सौम्य रूप धारे

धूप में चमकते छोटे

इसके टुकड़े सारे

मानो धरती पे उतर आये हों

आकाश के तारे

समेट लूँ मन चाहे अपनी मुट्ठी में

पर उँगलियों के बीच से खिसकते

यह हीरे सारे

रेत सा निराकार ही है अस्तित्व मेरा

मन में स्वप्न की तरह रम जाऊं

पर कैद करना चाहो तो भी

पल भर में उड़ जाऊं

हाथों से तुम्हारे



न जाने कितने युगों से

यह है यहाँ लेटी

नित दिन सुबह सूरज को है

सलामी देती

और उसकी गर्मी को अपनी बांहों में

समां लेती

चांदनी सी शीतलता की चादर

उढाती रात को

और फिर मुस्कुरा पड़ती प्रभात को



मरुस्थल की रेत थोडा गुस्सैल है

जीवन देना मानो अपमान हो

जल हो मानो विष

उसे पल भर में सुखाना अभिमान हो

मीलों अपनी चादर फैलाती

और पथिक को राह भटकाती

उसे चालते रहने के लिया

मृगत्रिष्णा का झांसा भी दे जाती

पतन्तु शाद्वल के आशीर्वाद

से कईयों की माँ भी बन जाती

कठोर लेकिन कोमल

मैं भी हूँ इस तरह

गुस्सैल, अभिमानी,

कठोर और भूल भुलैया

मरुस्थल सा निर्जीव

किन्तु शाद्वल का सा पानी



रेत घडी के सामान

दो डमरू में विराजमान,

समय का चिन्ह

रेत के टुकडो सा मेरा

आचरण

स्वयं कैद हूँ

पर समय की सही चाल भी

शांत दिखता हूँ और

एक मुहाने से कल कल बहता हूँ

रेत के समान है जीवन

बोहुत कुछ कहता हूँ

पर शांत रहता हूँ



रेत के महल नहीं बनाये जाते

उसपे लिखें नाम

स्थायी नहीं रह पाते

वो तो निरंतर के अभुध्यान

का हिस्सा है

इतिहास के किसी पन्ने

का एक भुलाया किस्सा है

डूबती है , दुबाती है

हर तिनका

हज़ारों कहानी कह जाती है



मैं वो रेत हूँ

जो है , था , और रहेगा

और समय घडी में

निरंतर बहेगा

इतिहास की हर मार सहेगा

परन्तु भविष्य में

बस मौन रहेगा

उस से ह्रदय न लगा लेना

न जाने किस आंधी से

टूट पड़ेगा

न जाने किस लहर

में बह चलेगा

न जाने किस लहर में

बह चलेगा

न जाने किस लहर में

बह चलेगा

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