मेरे शब्द मुरझा रहे हैं
मेरे वाक्य झिलमिला रहे हैं
मेरी कविता दे रही है जीवित रहने की दुहाई
और मेरे विचार कराह रहे हैं
ऐसा कुछ मौसम है
जहाँ "कवी" के जीवित रहने का मापदंड
पाठक बना रहे हैं
ऐसे में क्या किया जाए
हास्यास्पद स्थिथि है यह "कवी" की मौत
जब कविताओं की अर्थी पे
समाज, कानून और अन्य “कलाकार”
वाह वाही के पुष्प चढ़ा रहे हैं
"कवी" की मौत जब होती है
तो समाज का एक स्तम्भ गिर जाता है
उस युग का एक दर्पण , जो सच्चाई दिखा सके
चकनाचूर हो जाता है
परन्तु उसके शब्द निरंतर
गूंजते हैं , समय की लम्बी सुरंग में
और स्मरण कराते हैं
वो हसी की फुहारें, वो थप्पड़
वो कटाक्ष और वो सच्चाई
जो वर्षो पहले तीखे थे
और अब भी तेज़ हैं.
समाज "कवी" को मार देता है
जब उसके शब्द अनुकूल नहीं गूंजते
उसे समाप्त कर देता है जब
विचार उसके पक्ष में नहीं होते
पार्श्व सोच को गाढ़ दिया जाता है
और दाह संस्कार करते ही
स्मारक बना दिया जाता है
कवियों जागो
तुम समाज का प्रतिबिम्ब हो
उसका एक मेहेत्वपूर्ण स्तम्भ
कवियों जागो
फूल पत्तियों, बेलाओं , मौसमो से
ऊपर अपने शांदों के गोले दागो
नहीं तो यह लोग तुम्हे
झडती पत्तियों सा मसल देंगे
और उन्ही झडे फूलों से
तुम्हारी कविताओं की अर्थियों
को चिता देंगे
मेरे अन्दर के कवि को
मैं न मरने दूंगा
अपने शब्दों की बेलाओं को
चाहे तो लहू से सीन्चुन्गा
नहीं तो यह भक्षक
उस बेला को ही निगल जायेगे
और उस कवि की मौत की
राख अपनी कालिक के नाले में
बाहा जायेंगे
तो यह पुकार समझलो चाहे
गुहार
समाज के स्तंभो
करो प्रहार
करो चोट
न होने दो
उस कवि की मौत
अपने अन्दर के कवि की मौत
कवि की मौत!
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