हाथ बंधे हैं
पैर जकड़े हैं
बंदी बने हैं सब के सब
भौतिकता की मज़बूत बेड़ियों में
जकड़े हुए इंसान और रब
रिश्ते नाते, समाज , भावनाओं
की सलाखों के पीछे हम खड़े हैं
पर ज्ञात नहीं हमे अभी कि
यह दिन प्रतिदिन होती और सशक्त
हम हो गए घुलाम इनके
हो गए इनके भक्त
त्याग देने से ही मानुष
सन्यासी होता नहीं
मोह माया के जाल से
सरपट निकलना अनिवार्य है
भौतिकता के साज़ो सामन ही नहीं
पीड़ा, द्वेष, घ्रिना,प्रेम
काम,क्रोध ,लोभ ,मोह
इन सबसे भी मूह मोड़ देने का कार्य है
तो सन्यासी होने से पहले
इन्द्रियों पे कर नियंत्रण
थाम स्वयं को और करदे
इन सभी का आत्मसमर्पण
इस चक्रव्यूह से निकलना
कठिन है प्यारे
अभिमन्यु भी न निकल पाया था
निकलते निकलते केवल
अपने प्राण ही दे पाया था
कारागार की सलाखें तोडनी नहीं
पिघलानी पड़ेंगी
ध्यान, विश्वास और बलिदान की
ज्योत पहले जलानी पड़ेगी
जब पिघले यह बेड़ियाँ
और टूटे यह बंधन
तब भी पुनः इस से जकड़े जानी की
लालसा से मुक्त होना पड़ेगा
और फिर कहीं जाके
स्वयं के मार्ग से
उसमे लुप्त होना पड़ेगा
गीता भी यही देती सार
कृष्ण ने हैं खोले द्वार
माया को छोड़, मोह को त्याग
न कि छोड़ दे संसार
युद्ध तो करना पड़ेगा
चाहे स्वयं से हो
शुद्ध तो होना पड़ेगा
चाहे अपने विचारों से हो
निकाल फ़ेंक यह भार
जो तेरे सीने पे है
मत हार
इस जीवन से
जी जीवन इस प्रकार
कि इन सब के होने पर भी
तोड़ सके तू
कारागार
यह स्वयं का कारागार
भौतिकता का कारागार
कारागार
2 comments:
स्वयं के कारागार से निकलना सबसे बडी जीत है.. सुंदर अभिव्यक्ति अनुपम जी...
जीवन की आत्म शुद्धी, विचारों की शुद्धी, कर्म की इमानदारी भौतिकता का परित्याग सब कुछ समां दिया है सुन्दरम !h
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