Dreams

Tuesday, November 30, 2010

विजय का भ्रूण Copyright ©


समाधी लगाये हैं

इतिहास में

रुख मोड़ने वाले

परिवर्तन ले आने

का दईत्व जिन्होंने

था हुए संभाले

जग बदल दिया , राहें मोड़ी

और तम में भी किया

स्वयं को रौशन

केवल कर्म था, एकाग्र भी

न खोखले बोल थे

न थे भाषण

इनके अन्दर यह भ्रूण

जीवित बचपन में

न हुआ था

केवल इनकी इच्छा और

संकल्प से ही वो

भ्रूण पनपा था



निकाल फेंका था

इन सबको समाज से

और मंदबुद्धी करार

किया था इनको बार बार से

हर दम हर पल इन को

किया था पीड़ित

इनके विश्वास इनकी सोच को

किया हरदम सीमित

इन सब बाहरी शक्तियों

की साज़िश थी यह भ्रूण

लिया जन्म इसने उस

कुंठा उस आग से

बार बार इन लोगों ने

खायी थी लाठी

उसी धधक से

जलाई इन्होने अपने

अन्दर की बाती




उस भ्रूण को

इन्होने पाला

कर्मठता की खुराक से

और पुरुषार्थ के

पसीने से सींचा

राह न छोड़ी और

उस सपने को अपनी

मुट्ठी में भींचा

यह भ्रूण उगा नहीं स्वयं से

न ही था जन्मजात

यह पल पल उगा था

न हुआ अकस्मात्




तो कोई दबाये तुझे

और तेरी सोच

तेरी कल्पना का

कर जाए तिरस्कार

समाज से निकाल दिया जाये तुझे

और हो तेरे विचारो न संघार

स्मरण रखना मेरी यह बात

बहुत ही उपजाऊ है यह आघात

जैसे महत्व समझा था गणित ने

शून्य का

वैसे जग ज़ाहिर मानेगा लोहा

तेरे अन्दर जीत के भ्रूण का




तू अलग है

तू तिरिस्क्रित है

तू परे है सामान्य से

तो याद रख तू

कि तू भिन्न है

क्यूँकी तू असामान्य है

अद्भुत है , अनुपम है

अद्वितीय है

इसीलिए

तू जीतेगा

सामान्य से ऊपर उठेगा

ब्रह्मा में विलीन होगा

बुध बनेगा

वो जीत का भ्रूण जो

पनपा था

वो विजयी वृक्ष बनेगा

वो विजयी वृक्ष बनेगा

वो विजयी वृक्ष बनेगा


Monday, November 29, 2010

शिखर...जीत या हार ? Copyright ©


कंठ सूखा था

मन घबराया था

छाती भरी थी

और मैं डगमगाया था

स्मरण है मुझे किस

विश्वास किस दृढ़ता से

मेरा विजयी अश्व

हिनहिनाया था

गति मेरी तीव्र थी और

एकाग्र चित्त था पूरे समय

शिखर की ओर निगाहें थी और

ध्वज हाथ में लहराया था

अकेले ही यह मंज़र पाने की इच्छा थी

क्यूँकी “स्व” को चमकाना था

और पहुँच के शिखर पे

“स्व” को “स्वर्ण” बनाना था



पहुंचा शिखर पे

और रेत ही रेत पायी

अश्कों के प्याले थे

और अपनों की चीखें

जो कह रही थीं मुझसे

कि अकेले जो तुझे सिद्ध करना था

वो तो तू कर चुका

झंडा भी लहराया तूने

और इतिहास में नाम भी

तेरा अंकित हो चुका

पर क्या तू

हम सब को साथ लेकर नहीं

चल सकता था

साथियों के ढाढस

मित्रों के साथ

को अपने तरकस में

ब्रह्मास्त्र बना कर नहीं

रख सकता था?



अब देख स्वयं को

तू खड़ा है वहां

चट्टान सा है पर है अकेला

तेरे साहस का गान

जग तो गा रहा

पर जीवन का मृदंग जो

बजना था

वो चुप चाप है खड़ा



यह युद्ध जीता हूँ मैं

और विजयी मेरी निगाहें हैं

जब प्रारंभ हुआ था युद्ध यह

कहा था मैंने साथ चलो सब

आलिंगन करने को तो

खुली मेरी बाहें हैं।



अब शिखर पे शीतल हवा है

सूरज भी मुस्कुरा रहा

आँख मिचोली खेलें बादल

हिम शिखर झिलमिला रहा

मैं अकेला नहीं हूँ

मैं “स्व” के साथ हूँ

उसकी ध्वनि कानो में मेरे

सुरीले राग़ हैं छेड़ रही

और द्वेश करने वालो की

छाती हमेशा की तरह

है भेद रही

गौरान्वित है मेरा अट्टाहस

शीश भी मेरा

विनम्र भाव से झुका है

परमात्मा के आशीर्वाद से

जीत का स्वाद मैंने चखा है




जिन्हें होना चाहिए साथ मेरे

वो मेरे साथ हैं

मेरे ह्रदय में

उनकी हसी , उनका हर्ष

उनका उल्लास ज्वलंत है

शीश झुके हैं उनके

जो मुझपर गुर्राते थे

मू सिले हैं उनके

जिनकी जिव्व्हा

कठोर शब्द बोलने में

कतई न हिचकिचाते थे

अब अट्टाहस है मेरा

हर किसी के कानो में

गूँज रहा

मेरे टपके लहू से

जीवन है अब पनप रहा



तो हे ऊंची उड़ान भरने वाले

घबरा मत उन हवाओं से

मौन हो जा, कर एकाग्र

और लगा पेंग विश्वास की

जो आता है साथ उसकी ओर

बाहें फैला

और जो न आये और करे

तिरस्कार

उसे जाने दे और कर नमस्कार

पहुँच शिखर पे

अकेले ही हो चाहे

शिखर तुझे भिन्न भिन्न

अनुभव करवाएगा

जैसे मैंने जीवन का स्वाद चखा है

वैसे तू भी जीवन का मृदंग बजाएगा

वैसे तू भी जीवन का मृदंग बजाएगा

विअसे तू भी जीवन का मृदंग बजाएगा


Friday, November 26, 2010

ईश के निकट Copyright ©


हर बार

यानि …

हर बार

ऐसा हुआ कि पहुँचके

निकट शिखर के मैं

फिसल गया

गगन चुम्भी इरादे

टूटे

और आत्मविश्वास

डगमगा गया

संभला ,

उठ खड़ा हुआ

हार को देह से झाड़ा

और पुनः प्रयास

का डंका बजा दिया



इतने निकट पहुच के

क्यूँ होता ऐसा

क्या धैर्य सिखाना

चाहता विधाता

या सर्वशक्तिमान वो है

इसका एहसास कराना

चाहता परमात्मा

लालसा को लालसा रहने

देना चाहता वो

कि प्रयास और करवाना

चाहता वो

जीत का खून चख के

कहीं मैं अपनी

मासूमियत का खो दूँ

क्या इस डर से

मुझे जीत का सेहरा न पहनाता वो

यदि है ऐसा तो बता दूँ तुझे ऐ खुदा

मैं तेरी माटी से ही हूँ बना

तेरे दिए वरदान को सार्थक

बनाता मैं

सद्भावना , विनम्रता का

धागा पकडे हूँ मैं

तेरी अनुभूति पल पल है

मुझे

मैं मंदिर, देवल मूरत को

न पूजता क्या इसका गुसा है तुझे

क्यूँकी मैं मन में बसाये हूँ

तुझे

तेरे प्रतिबिम्ब , तेरी लौ को

दिल में जगाये हुए हूँ मैं

परीक्षा कब तक करेगा

कब तक निकट ले जाके

गिरा देगा मुझे

कब प्यास बुझाएगा मेरी

कब मैं हूँगा शिखर पे

निकट नहीं….

कब?



वत्स

मैं तुझमे बसा हूँ

है मालूम मुझे

तेरा द्रिड संकल्प है

अर्घ्य और निष्ठां

है धूप मालूम मुझे

परन्तु

धैर्य नहीं तुझमे

ये बतला दूँ तुझे

लालसा भूख बन चुकी है

जो खा रही तुझे

बंद कर अपनी आँखें

और होने दे मुझे प्रकट

थामे रख बाँध को

चाहे स्थिति हो कितनी विकट

सांस भर विश्वास की

और मुझ में हो विलीन

होगा आखाश तेरा

सागर भी समर्पित तुझे

होगा तू शिखर पे

न होगा केवल निकट

न होगा केवल निकट

न होगा केवल निकट.


Tuesday, November 23, 2010

रोकूँ कैसे ? Copyright ©


मसले फूलों की महक थी

पीसी मेहँदी का रंग था

रात भर के सन्नाटे का

राग छेड़ता ह्रदय था

बंद पलकों में जो सपने थे

मेरी गोद में सर रखा था

मैं रात भर यूँ ही

निहारने को बैठा था



फिर स्वप्न टूट गया

मैं जागा और सारे

सपने वास्तविकता

के रंग में रंग गए

वो न थी गोद में

न थी मुस्कराहट

न स्नेह की गर्मी न

दबे पाऊँ की आहट

न झंकार पायजेब की

न ह्रदय में मृदंग

बस सन्नाटा, घुटन

और अनंत बेरंग



रोकूँ कैसे इस प्रेम को

जो रगों में दौड़ पड़ा

थामू कैसे उस

तूफ़ान को जो

साँसों में बह चला

रोकूँ कैसे इस वेग को

जो केवल उसकी ओर ले जाता

मेरे जीवन के थमे समय

पर है जो मुस्कुराता

रोकूँ कैसे उन अश्को को

जो भीतर बहते हैं

और बाहर सूख चुके हैं

रोकूँ कैसे उस तृष्णा को

जो भूख बन चुकी है

रोकूँ कैसे



रोकूँ?

या बहने दूँ?

ह्रदय की धड़कन को

बांधू या थर्राने दूँ

उम्मीद की लौं जगाये रखूं

कि उसे धुंआ होने दूँ

इस आत्मा को उसके प्रेम में

निरंतर प्यासा छोडूँ

कि ब्रह्मा होने दूँ

इस शरीर को रहने दूँ

कि राख होने दूँ



प्रेम खुराक है

एक सफल जीवन की

प्रेम के आभाव में

जीवन निरर्थक है

पर पा कर खो जाने पर

वो खुराक विष का

रूप ले है लेती

धीरे धीरे

अम्ल की भांति

खाती आत्मा को

सारी तेज़ी सारी स्फूर्ति

राह दिखाती थी जो

वो मज्जा वो चेतना

छीन है लेती



तो प्रश्न अभी भी

वहीँ है

रोकूँ या बहने दूँ

यदि रोकूँ

तो कैसे

रोकूँ तो कैसे

रोकूँ तो कैसे?




Friday, November 19, 2010

कल, कल.....Copyright ©


कल कल बहते कल को

कल में ही रहने दो

कल, जो कल आएगा

उसे धाराप्रवाह बहने दो

कल कल बहते कल को

कल में ही रहने दो



कल जो बीत गया

अब कभी न आएगा

आज जो है बीत रहा

कल में विलीन हो जाएगा

परन्तु आने वाला कल

तो हर उम्मीद का सेहरा पहनायेगा

कल कल बहते कल को

कल में रहने दो

कल, जो कल आएगा

उसे धाराप्रवाह बहने दो



कल घनी रात थी

पर कल उगते सूरज को देगा सलामी

कल हार थी

पर कल होगा जीत का शंख्नाध ही

कल काला था तो क्या हुआ

कल श्वेत, उज्जवल निर्मल होगा

कल का दरिद्र

कल पहनेगा समृद्धि का चोगा

कल कल बहते कल को

कल में रहने दो

कल, जो कल आएगा

उसे धाराप्रवाह बहने दो



कल टिका है स्मृति मैं

पर कल का स्तम्भ है विश्वास

कल जो था कोयला

वो कल हीरा जैसा चमकेगा

कल जो मुरझाया पुष्प था

कल वो कमल के जैसा खिलेगा

कल कल बहते कल को

कल में रहने दो

कल, जो कल आएगा

उसे धाराप्रवाह बहने दो



कल को करो प्रणाम

और ‘कल’ को गले लगाओ

‘कल’ की चमक से

कल के तम को दूर भगाओ

कल स्थाई नहीं था

पर कल निरंतर चलेगा

कल अनादी काल से आ रहा है

पर कल अनंत तक बहेगा

सारे पदचिन्हों को मिटा दो प्यारे

क्यूंकी कल नए सपने रंगेगा



कल कल बहते कल को

कल में रहने दो

कल, जो कल आएगा

उसे धाराप्रवाह बहने दो

कल कल बहते कल को

कल में रहने दो......