Dreams

Monday, November 29, 2010

शिखर...जीत या हार ? Copyright ©


कंठ सूखा था

मन घबराया था

छाती भरी थी

और मैं डगमगाया था

स्मरण है मुझे किस

विश्वास किस दृढ़ता से

मेरा विजयी अश्व

हिनहिनाया था

गति मेरी तीव्र थी और

एकाग्र चित्त था पूरे समय

शिखर की ओर निगाहें थी और

ध्वज हाथ में लहराया था

अकेले ही यह मंज़र पाने की इच्छा थी

क्यूँकी “स्व” को चमकाना था

और पहुँच के शिखर पे

“स्व” को “स्वर्ण” बनाना था



पहुंचा शिखर पे

और रेत ही रेत पायी

अश्कों के प्याले थे

और अपनों की चीखें

जो कह रही थीं मुझसे

कि अकेले जो तुझे सिद्ध करना था

वो तो तू कर चुका

झंडा भी लहराया तूने

और इतिहास में नाम भी

तेरा अंकित हो चुका

पर क्या तू

हम सब को साथ लेकर नहीं

चल सकता था

साथियों के ढाढस

मित्रों के साथ

को अपने तरकस में

ब्रह्मास्त्र बना कर नहीं

रख सकता था?



अब देख स्वयं को

तू खड़ा है वहां

चट्टान सा है पर है अकेला

तेरे साहस का गान

जग तो गा रहा

पर जीवन का मृदंग जो

बजना था

वो चुप चाप है खड़ा



यह युद्ध जीता हूँ मैं

और विजयी मेरी निगाहें हैं

जब प्रारंभ हुआ था युद्ध यह

कहा था मैंने साथ चलो सब

आलिंगन करने को तो

खुली मेरी बाहें हैं।



अब शिखर पे शीतल हवा है

सूरज भी मुस्कुरा रहा

आँख मिचोली खेलें बादल

हिम शिखर झिलमिला रहा

मैं अकेला नहीं हूँ

मैं “स्व” के साथ हूँ

उसकी ध्वनि कानो में मेरे

सुरीले राग़ हैं छेड़ रही

और द्वेश करने वालो की

छाती हमेशा की तरह

है भेद रही

गौरान्वित है मेरा अट्टाहस

शीश भी मेरा

विनम्र भाव से झुका है

परमात्मा के आशीर्वाद से

जीत का स्वाद मैंने चखा है




जिन्हें होना चाहिए साथ मेरे

वो मेरे साथ हैं

मेरे ह्रदय में

उनकी हसी , उनका हर्ष

उनका उल्लास ज्वलंत है

शीश झुके हैं उनके

जो मुझपर गुर्राते थे

मू सिले हैं उनके

जिनकी जिव्व्हा

कठोर शब्द बोलने में

कतई न हिचकिचाते थे

अब अट्टाहस है मेरा

हर किसी के कानो में

गूँज रहा

मेरे टपके लहू से

जीवन है अब पनप रहा



तो हे ऊंची उड़ान भरने वाले

घबरा मत उन हवाओं से

मौन हो जा, कर एकाग्र

और लगा पेंग विश्वास की

जो आता है साथ उसकी ओर

बाहें फैला

और जो न आये और करे

तिरस्कार

उसे जाने दे और कर नमस्कार

पहुँच शिखर पे

अकेले ही हो चाहे

शिखर तुझे भिन्न भिन्न

अनुभव करवाएगा

जैसे मैंने जीवन का स्वाद चखा है

वैसे तू भी जीवन का मृदंग बजाएगा

वैसे तू भी जीवन का मृदंग बजाएगा

विअसे तू भी जीवन का मृदंग बजाएगा


1 comment:

गिरधारी खंकरियाल said...

अब शिखर पे शीतल हवा है

सूरज भी मुस्कुरा रहा

आँख मिचोली खेलें बादल

हिम शिखर झिलमिला रहा

मैं अकेला नहीं हूँ

मैं “स्व” के साथ हूँ
अति सुंदर मर्मस्पर्शी प्रस्तुति . आभार