मसले फूलों की महक थी
पीसी मेहँदी का रंग था
रात भर के सन्नाटे का
राग छेड़ता ह्रदय था
बंद पलकों में जो सपने थे
मेरी गोद में सर रखा था
मैं रात भर यूँ ही
निहारने को बैठा था
फिर स्वप्न टूट गया
मैं जागा और सारे
सपने वास्तविकता
के रंग में रंग गए
वो न थी गोद में
न थी मुस्कराहट
न स्नेह की गर्मी न
दबे पाऊँ की आहट
न झंकार पायजेब की
न ह्रदय में मृदंग
बस सन्नाटा, घुटन
और अनंत बेरंग
रोकूँ कैसे इस प्रेम को
जो रगों में दौड़ पड़ा
थामू कैसे उस
तूफ़ान को जो
साँसों में बह चला
रोकूँ कैसे इस वेग को
जो केवल उसकी ओर ले जाता
मेरे जीवन के थमे समय
पर है जो मुस्कुराता
रोकूँ कैसे उन अश्को को
जो भीतर बहते हैं
और बाहर सूख चुके हैं
रोकूँ कैसे उस तृष्णा को
जो भूख बन चुकी है
रोकूँ कैसे
रोकूँ?
या बहने दूँ?
ह्रदय की धड़कन को
बांधू या थर्राने दूँ
उम्मीद की लौं जगाये रखूं
कि उसे धुंआ होने दूँ
इस आत्मा को उसके प्रेम में
निरंतर प्यासा छोडूँ
कि ब्रह्मा होने दूँ
इस शरीर को रहने दूँ
कि राख होने दूँ
प्रेम खुराक है
एक सफल जीवन की
प्रेम के आभाव में
जीवन निरर्थक है
पर पा कर खो जाने पर
वो खुराक विष का
रूप ले है लेती
धीरे धीरे
अम्ल की भांति
खाती आत्मा को
सारी तेज़ी सारी स्फूर्ति
राह दिखाती थी जो
वो मज्जा वो चेतना
छीन है लेती
तो प्रश्न अभी भी
वहीँ है
रोकूँ या बहने दूँ
यदि रोकूँ
तो कैसे
रोकूँ तो कैसे
रोकूँ तो कैसे?
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