कि तुम हो तृष्णा
कि तुम हो आस्था
कि तुम हो डोर जीवन की
कि तुम हो लक्ष्य
कि तुम हो मार्ग
कि तुम हो डगर मेरे मन की
कि तुम हो पहचान मेरी
कि तुम हो दृष्टिकोण भी
कि तुम हो श्वेत विश्वास
कि तुम हो उम्मीद का स्रोत भी
मिलोगी या नहीं, पता नहीं
पर इस मृगत्रिष्णा, इस प्रतिबिम्ब
से हूँ मैं ओतः प्रोत भी
कि तुम हो गंगा, तुम हो गौमुख
कि तुम हो साक्षात संगम भी
कि तुम ही हो चेतना
कि तुम ही हो मेरा दुस्साहस
कि तुम हो स्पंदन मेरे भीतर का
कि तुम हो चिंगारी
धधकती लौ भी
कि तुम हो ज्वालामुखी का मूह भी
कि तुम हो उत्तर
तुम हो प्रश्न भी
और ग्रन्थ ज्ञान का स्वाद भी
कि तुम स्तम्भ हो
कि तुम नीव हो
हो मेरी काया भी
कि तुम आस हो
कि तुम प्यास हो
और हो अमृतधारा भी
कि तुम धरती हो
अथाह आकाश हो
और हो संसार सारा भी
तुम तो हो जो हो
पर मैं क्या हूँ
अनंत में एक
बिंदु
जो अपने अस्तित्व को
तुम्हारी भक्ति में डुबोता है
या फिर अश्क जो
दूर क्षितिज पे टिकी निगाहों से
तुम्हारी राह तकते तकते
बहता है।
मैं जो भी हूँ
पर तुम…तो..
कि तुम तो..
कि तुम तो..!
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